संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

पर्यावरण के नाम पर वनाधिकार कानून की अनदेखी !

हिमाचल के किसानों द्वारा किए गए नाजायज कब्जे के मसले पर हिमाचल उच्च न्यायालय का 6 अप्रैल 2015 का आदेश पर्यावरण की आड़ में लिया गया एक ऐसा फ़ैसला है, जिस में वनाधिकार कानून-2006 व उस पर माननीय उच्चतम न्यायालय के प्रावधानों व आदेशों की अवहेलना हुई है, साथ में जीने के संवैधानिक अधिकार की भी अनदेखी की गई है।

सरकारों व न्यायालयों की कारपोरेट पोशाक नीयती

आजकल पर्यावरण के नाम पर कोर्ट भी अजब फैसले सुना रहे हैं। ऐसा ही फ़ैसला ग्रीन ट्रिब्यूनल ने पिछले दिनों मनाली रोहतांग के मसले पर दिया। जिस में आदेश दिया गया कि सभी दुकानों, ढाबों, घरों जो इस सड़क के आस-पास सरकारी भूमि पर हैं, को यहाँ से हटाया जाए । अब दस वर्ष पुरानी व कोई भी डीजल गाडियाँ रोहतांग जा ही नहीं सकेंगीं । बाद में कुछ बदलाव करके आदेश दिये कि पर्यटकों को ले जाने वाली गाड़ियों, जिस में डीजल गाड़ी से 2500 व पेट्रोल गाड़ी से 1000 रुपया बसूला जाए, और फिर उसे पर्यावरण पर खर्च किया जाए। रोपवे को पीपीपी मॉडल पर लगाया जाए तथा सीएनजी गाडियाँ चलाने के भी आदेश दे डाले, जबकि यह अभी तय नहीं है कि रोहतांग में सीएनजी बस सेवा चलाना संभव भी है या नहीं? इस आदेश से फिलवक्त जो आजीविका का नुकसान होगा, उस पर एनजीटी ने विस्थापितों को टिकाऊ विकास का हवाला देकर दिलासा दिया कि जब टिकाऊ विकास होगा, तो उन्हें हुई असुविधाओं की भरपाई स्वत: हो जाएगी।

हिमाचल उच्च न्यायालय भी टिकाऊ विकास का हवाला देते हुए आदेश करता है कि प्रदूषक को उस के तहत दंडित किया जाए। रियो घोषणापत्र का जिक्र करते हुए कहा गया कि सरकार को प्रदूषक को दंडित करने का कानून बनाना चाहिए। यह बहुत अच्छी बात है, सभी यह चाहते हैं। परंतु जब हिमाचल में बन रही जलविद्युत परियोजनाओं, ट्रान्समिशन लाइन, सीमेंट प्लांट, बड़े निर्माण संरचनाओं तथा बड़े उद्योगों से हो रहे जंगल के विनाश व पर्यावरणीय नुकसान की बात करें तो ये नए पर्यावरण संरक्षक कहाँ टिके रह पाते हैं ? इन सभी परियोजनाओं ने सरकारी, वन व शामलात भूमि पर नाजायज कब्जा किए, गैरकानूनी तरीके से अनुछेद -5 के क्षेत्रों में सरकारी व आदिवासियों की भूमि हथियाई – उस पर कोर्ट द्वारा क्या आदेश दिये गए? आज से कुछ साल पहले जब कड्छ्म बांगतू (किन्नौर) जलविद्युत परियोजना व वाघेरी सीमेंट प्लांट (नालागढ़) में जेपी कंपनी ने सैंकड़ों बीघा वन व शामलात भूमि पर नाजायज कब्जा किया था, तब इस का स्थानीय जनता ने इसका भारी विरोध किया व सड़कों पर उतरकर आंदोलन भी किया । अंत में जब सरकार ने कुछ कार्यवाही नहीं की तो किन्नौर के आदिवासी किसानों ने जिलाधीश के विरुद्ध एफआइआर करवाने के लिए थाने में पर्चा दिया। इसे राजनैतिक दबाव से रोक दिया गया । पिछले पाँच सालों से यह मुकदमा हिमाचल उच्च न्यायालय में है – उस नाजायज कब्जे पर क्या बोला, कोई कभी? ऐसे कई मामले होंगे जहां परियोजनाओं ने नाजायज कब्जे कर रखे होंगे, परंतु विकास के छदम पर्दे के पीछे सरकार व कोर्ट आज तक कुछ नहीं बोला। ऐसे में किसान और गरीब आदमी जो दो जून की रोटी के लिए संघर्ष कर रहा है आज जो इन की नजर में सब से बड़ा पर्यावरण विरोधी हो गया है, पर कंपनियाँ नहीं।

सरकारें तो आज कारपोरेट पोषक हैं ही, परंतु न्यायालय भी अब कारपोरेट के हितैषी दिखने के लिए पर्यावरण संरक्षण की व्याख्या कुतर्कों के सहारे कर रहा है । जनता को प्रदूषक घोषित किया जा रहा है जबकि कारपोरेट विकास के मसीहा । यह सत्य सर्वविदित होते हुए भी कि औद्योगिक विश्व का उद्भव ही प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन का मूल कारण है, फिर भी कारपोरेट पक्षकारी के लिए ऐसे कुतर्क गढे जा रहे हैं। कारपोरेट विकास का उद्देश्य केवल मुनाफे के लिए सांझा संसाधनों को जनता के नियंत्रण से मुक्त कर के प्रकृति का अंधाधुंध दोहन ही होता है। उपभोक्तावाद को बढ़ावा देना, टिकाऊ उत्पादों के बजाए use and throw वाली वस्तुओं का उत्पादन कर के संसाधनों के विनाश के अलावा आज हर जगह प्लास्टिक व अन्य जगह जगह कचरा फैलने का मूल कारण बना है। जबकि कारपोरेट विकास का फायदा समाज के ऊपरी तबके को ही मिला है तथा देश की जनता, खास कर किसान दो जून के लिए आज भी संघर्ष कर रहा है। हिमाचल की 91% जनता गाँव में रह रही है और अगर अपनी मेहनत से जीने के लिए वन भूमि पर खेती कर रहा है तो इसे नाजायज कब्जा नहीं बल्कि उसका हक माना जाना चाहिए।

उक्त फैसले में हिमाचल उच्च न्यायालय ने दर्शाया है कि वर्ष 2013-14 में दस बीघा के ऊपर के 9612 नाजायज कब्जा के मामले दर्ज किए गए हैं, जबकि इस से कई गुना ज्यादा मामले विभिन्न कोर्ट में लम्बित पड़े होंगे । अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे प्रदेश में ऐसे नाजायज कब्जे के तीन लाख से भी ऊपर मामले वास्तव में होंगे। कमोवेश हर किसान परिवार खेती व आवास के लिए वन भूमि पर कब्जा होगा। क्योंकि यह हिमाचल में परंपरा से होता है कि खेत के साथ लगती वन भूमि पर खेती व आवास बनाया जाता है, जिस का किसानों को बाजिब –उल –अर्ज (निस्तार का) अधिकार देता है। सच यह भी है कि शहरी तथा औद्योगिक क्षेत्रों में दुकानों, घरों व व्यापारिक प्रतिष्ठानों के लिए बड़े पैमाने पर नाजायज कब्जे किए गए हैं।

नाजायज कब्जा हटाने का काम एक कानूनी प्रक्रिया के तहत किया जा सकता है, परंतु पिछले दिनों जिस तरह सोलंग, मनाली घाटी तथा गोहर में कब्जे हटाए गए, उसमें संवैधानिक अवहेलना निश्चित तौर पर हुई है।
वन भूमि पर आजीविका के लिए हस्तक्षेप के कारण

हिमाचल में औद्योगीकरण, अधोसंरचना विकास, शहरीकरण तथा आवासीय गृह निर्माण इत्यादि के कृषि भूमि पर दबाव के चलते आज 9% से भी कम कृषि भूमि बची है। प्रदेश कि 90% आबादी गावों में रहती है। आज भी कृषि पर यहाँ की 69 लाख आबादी में से लगभग 60% की आजीविका मुख्यतः चल रही है। पहाड़ी व मुख्यतः असिंचित कृषि भूमि पर कड़ी मेहनत कर के यहाँ के किसानों ने बागवानी का विकास और सब्जी उत्पादन जैसे कार्य शुरू किए, जिस से किसानों की आय में बढ़ोत्तरी हुई है। इसी खेती व आवासीय भूमि का समय के साथ हिस्सेदारी बढ़ने से जोतों का आकार कम होता गया। ऐसे में कृषि भूमि, आबादी के अनुपात में बहुत कम रह गई है। परिणाम स्वरूप 80% हिमाचली किसान सीमांत किसान रह गया है, जिस के पास एक एकड़ से भी कम की मल्कियत वाली भूमि बची है। बहुत से किसान परिवार भूमिहीन या एक बीघा व इस से भी कम भूमि के मालिक रह गए हैं। इन्ही कारणों से किसानों ने आजीविका की जरूरतों के लिए खेती का वन भूमि पर फैलाव किया। दखल के कई अन्य कारण भी हैं।

छठवें से आठवें दशक तक यहाँ भूमि सुधार का कार्य पूर्ण हुआ। परिणाम स्वरूप दलित, आदिवासी व मुजारों (tenants) के पास कुछ भूमि की मल्कियत गई और जमींदारी प्रथा का उन्मूलन हो गया। हिमाचली किसान के पास बहुत कम कृषि भूमि उपलब्ध होने के कारण सन 1968 में प्रदेश सरकार ने दलित, मुजारों व भूमि हीनों को अतिरिक्त कृषि भूमि (कम से कम सबों को 5 बीघा) देने के लिए नई तोड़ का नियम बनाया। 7वें व 8वें दशक में लाखों बीघा वन भूमि कृषि के लिए इस के तहत किसानों को आबंटित की गई। वन संरक्षण अधिनियम 1980 के आने के बाद यह कार्य रुक गया। हजारों नईतोड़ के आवेदनों पर आज भी पट्टे जारी नहीं हो सके हैं, जबकि किसान उन जोतों पर पिछले तीन-चार दशकों से खेती कर रहे हैं। किन्नौर तथा भाखड़ा विस्थापित इलाकों में इन्हें नईतोड़ की मिसस्लों को नाजायज कब्जा कह कर, पिछले वर्षों में उन पर बेदखली की कार्यवाही की गई। साल 2002 जुलाई में सरकार ने फ़ैसला किया कि सभी नाजायज कब्जे बहाल कर दिया जाएंगे। इस के लिए एक आवेदन फार्म दिया गया, जिसकी सरकार ने किसानों से 50 रुपया कीमत भी बसूली। लगभग एक लाख पचास हजार उक्त आवेदन फार्म, नक्शा तथा एफ़िडेविट सहित तहसीलों में जमा किए गए। जिस पर बाद में कोई कार्यवाही नहीं हुई और ऐसे में आज वे सभी आवेदन भी नाजायज कब्जा की परिधि में आ जाते हैं।

भाखड़ा विस्थापितों की कहानी अलग ही है; 1963 में भाखड़ा बांध में जल भराव शुरू हुआ, जिस में 371 के करीब गांवों की लाखों एकड़ कृषि व वन भूमि 168 वर्ग किलोमीटर डूब क्षेत्र में पानी में समा गई। उस समय के जो भूमि मालिक थे, उन्हें हरियाणा के हिसार, सिरसा व फतेहबाद इत्यादि में भूमि के बदले भूमि दी गई । बहुत से किसान परिवार वहाँ नहीं गए। विस्थापितों में जो भूमिहीन थे, खास कर दलित, मुजारे व दस्तकार उन्हें तो भूमि के बदले भूमि भी उपलब्ध नहीं हुई। बाद में उन्हें आसपास के जंगलों में बसने को सरकार द्वारा कहा गया तथा इन के लिए विशेष नईतोड़ नियम 1971 भी बनाए गए। जिस के तहत कुछ परिवारों को पट्टे मिल पाए, जबकि हजारों परिवार आज भी घर बना कर उस समय से वनों में बसे हैं परंतु पट्टे न मिलने के कारण कब्जाधारी ही हैं। साल 2008 से किन्नौर व प्रदेश के दूसरे आदिवासी इलाकों में वन अधिकार कानून 2006 के अमलीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। लोगों ने वन अधिकार के दावे पेश किए, बाद में इन्हीं दावेदारों पर वन विभाग ने नाजायज कब्जे के मुकदमें बनाना शुरू किए ताकि डर के मारे आदिवासी किसान इस कानून के तहत वन भूमि पर दखल के दावे पेश न कर सके।

ऐसे में प्रदेश के किसानों द्वारा वन भूमि पर हस्तक्षेप परिवार पोषण के लिए खेती व रिहायशी घर के निर्माण लिए किया गया है। ज्यादातर हस्तक्षेप 2005 से पहले का ही है।

वैधानिक व्यवस्था

वनाधिकार कानून 2006 की धारा 4(5) प्रतिबंधित करती है कि आदिवासी तथा अन्य परंपरागत वननिवासियों को वन भूमि पर कब्जे से तब तक नहीं हटाया जा सकता, जब तक इस कानून के तहत उन के परंपरागत वन अधिकारों की मान्यता व सत्यापन की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती । वनाधिकार कानून 2006 की धारा -2 व 3(1) आदिवासियों और अन्य परंपरागत वन निवासियों को अधिकार देती है कि चाहे वे वन के अंदर या बाहर रहते हों परंतु अपनी आजीविका की मूल जरूरतों के लिए वन व वन भूमि पर निर्भर हों, ऐसे में वे वन भूमि पर स्वयं की खेती तथा आवास करने का अधिकार रखते हैं। परंतु यह दख़ल/कब्जा 13 दिसम्बर 2005 से पहले का होना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय ने 2011 की एक जनहित याचिका क्रमांक 180 के फैसले में इसी तर्क को दोहराते हुए आदेश दिया कि आदिवासी तथा अन्य परंपरागत वन निवासी को वन भूमि पर कब्जे से तब तक नहीं हटाया जा सकता व वन भूमि हस्तांतरण प्रक्रिया अमल में नहीं लाई जा सकेगी, जब तक इस कानून के तहत वन अधिकारों की मान्यता व सत्यापन की प्रक्रिया पूरी नहीं हो जाती। वनाधिकार कानून 2006 विशेष केंद्रीय अधिनियम है। ऐसे में उक्त कानून वन अधिनियमों व राज्य के क़ानूनों जैसे H.P. Public Premises & Land (Eviction & Rent Recovery) Act, 1971 व Himachal Pradesh Land Revenue Act, Section 163 के प्रावधानों के तहत होने वाली कब्जा हटाने व वन संरक्षण कानून-1980 के तहत होने वाली वन भूमि हस्तांतरण की प्रक्रिया पर रोक लगाता है। ऐसे में उक्त कोर्ट आदेश को वैधानिक नहीं माना जा सकता और न ही वाध्यकारी।

सरकारों व आदिवासियों तथा अन्य परंपरागत वन निवासी क्या कर सकते हैं?

इस लिए राज्य सरकार को हिमाचल उच्च न्यायालय के आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय का दरवाजा न्याय के पक्ष में खटखटाना चाहिए तथा आदिवासी व अन्य वननिवासियों के हितों की पैरवी की जानी चाहिए। सच तो यह है कि प्रदेश सरकार ने उच्च न्यायालय में भी इस केस में उचित पक्ष नहीं रखा तथा न ही वन अधिकार कानून को लागू करने में अभिरुचि दिखाई है। यह मसला वर्ष 2008 से उच्च न्यायालय में चल रहा था। विगत साल में जब कोर्ट ने 10 विघा से उपर के नाजायज कब्जों को हटाने का आदेश जारी किया था, उस समय भी हिमालय नीति अभियान ने सरकार को सुझाव दिया था कि वन अधिकार कानून के तहत कोर्ट में पक्ष रखे। वर्ष 2014 अगस्त में वन अधिकार कानून के तहत गठित मुख्य सचिव की अध्यक्षता वाली राज्य स्तरीय निगरानी समिति ने भी इस पर प्रस्ताव पारित किया और सरकार से अनुरोध किया था कि उक्त कानून के तहत्त आदिवासी व अन्य परंपरागत वननिवासियों के हितों की पैरवी की जाए, परंतु सरकार व इन के पैरोकारों ने इस बात को नजरंदाज किया।

मनाली रोहतंग के मसले में भी सरकार का रवैया पहले से ही लचर रहा तथा एनजीटी में स्थानीय लघु पर्यटन कारोवारियों के हितों की ठीक से पैरवी नहीं की गई। परिणाम स्वरूप आज वहाँ पर्यटन उद्योग पर निर्भर हजारों स्वरोजगारियों, छोटे कारोवारियों, श्रमिकों तथा पर्यटन उद्योग पर ही संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
मेरा प्रदेश के किसानों, जो मुख्यरूप में आदिवासी व अन्य परंपरागत वन निवासियों की श्रेणी में आते हैं को सुझाब है कि उन को अपने विरुद्ध हो रही इस गैरकानूनी कार्यवाही के खिलाफ संगठित हो कर विरोध करना चाहिए तथा उच्चतम न्यायालय में भी अपना पक्ष रखना चाहिए।

गुमान सिंह
संयोजक हिमालया नीति अभियान
गाँव खुंदन डाक बंजार जिला कुल्लू हिमाचल प्रदेश
ईमेल :gumanhna@gmail.com, फोन:9418277220

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