संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

बैतूल के आदिवासियों ने शुरु किया सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा बचाओ अभियान



मध्य प्रदेश में बीते 21 सालों से वन विभाग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अवहेलना की जा रही है। 12 दिसंबर 1996 भारत की सर्वोच्च अदालत ने सिविल याचिका क्रमांक 202/95 में वन और वन भूमि की व्याख्या एवं परिभाषा कर आदेश दिया था। इस आदेश के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय ने छोटे एवं बड़े झाड़ के जंगलों को वन भूमि के तौर पर परिभाषित किया था। न्यायालय के इस आदेश के अनुसार जंगलों में रह रहे पारंपरिक निवासियों का जंगलों पर वैध कब्जा निर्धारित हो जाता है। परंतु वन विभाग लगातार इस आदेश की अवहेलना करते हुए जंगलों पर अवैध कब्जा बनाए हुए हैं। इसके विरोध में ग्राम सर्वोदय अभियान के नेतृत्व में ‘सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा बचाओ’ अभियान की 12 दिसम्बर 2017 को शुरुआत हुई। इस अभियान में बैतूल के 150 गांवों से 2500 आदिवासी प्रतिनिधियों ने भागीदारी की। हम यहां आपके साथ सत्यम श्रीवास्तव की यह विस्तृत रिपोर्ट साझा कर रहे हैं।

बैतूल/ ग्राम सर्वोदय अभियान के नेतृत्व में ‘सर्वोच्च न्यायालय की गरिमा बचाओ’ अभियान की शुरुआत हुई. मुकेश उइके, जिला पंचायत सदस्य, मदन चौहान, पूर्व सरपंच, मूला जी नर्रे, पूर्व जिला पंचायत सदस्य, नरेन्द्र उइके व उज्जवल के सामूहिक नेतृत्व में बैतूल जिले के विभिन्न तहसीलों के करीब 150 गाँवों से 2500 आदिवासी व अन्य परम्परागत जंगल निवासियों ने जिला कलेक्टर व मुख्य वन संरक्षक को जंगल व जंगल के सामुदायिक संसाधनों पर सदियों से चले आ रहे और आधिकारिक रिकार्ड्स में दर्ज हक हुकूकों को लेकर सात ज्ञापन दिए. इनमें लघु वनोपज के स्वामित्व अधिकार, निजी भूमि पर वन विभाग के नियंत्रण, अवैधानिक बेदखली, सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की अवमानना और वन अधिकार मान्यता कानून की घनघोर अवहेलना व उल्लंघन आदि से संबंधित ज्ञापन थे. सभा का नेतृत्व व सञ्चालन मुख्य रूप से ग्राम सर्वोदय अभियान के सह संयोजक और जंगल व ज़मीन के मुद्दों पर अध्येता एडवोकेट अनिल गर्ग ने किया. अभियान का शीर्षक मुद्दा ध्यान खींचता है जिस पर एडवोकेट अनिल गर्ग का कहना है कि-  “1996 से लेकर आज 21 साल बीत जाने के बाद भी वन विभाग द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों व आदेशों की अवहेलना की जा रही है, राज्य सरकार भी इस पर मौन है, स्वयं कोर्ट को भी इस अवहेलना पर कोई एतराज नहीं है, ऐसे में देश के नागरिकों का ही यह दायित्व बन जाता है कि वो आगे आयें और देश की सर्वोच्च अदालत की गरिमा को बचाने के लिए संघर्ष करें.”

गौरतलब है कि 21 साल पहले आज ही के दिन यानी 12 दिसंबर 1996 को भारत की सर्वोच्च अदालत ने सिविल याचिका क्रमांक 202/95 में वन और वन भूमि की व्याख्या एवं परिभाषा कर आदेश दिया था. इस आदेश के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय ने छोटे एवं बड़े झाड़ के जंगलों को वन भूमि के तौर पर परिभाषित किया था. इस आदेश को चुनौती देते हुए मध्य प्रदेश सरकार ने पुनर्विचार के लिए याचिका भी लगायी थी. इसके बाद 1 अगस्त 2003 को अपने आदेश पर कायम रहते हुए छोटे व बड़े झाड़ के जंगलों को वन भूमि के रूप में ही दर्ज करने के निर्देश दिए.

एडवोकेट अनिल गर्ग इस विषय पर अपने वक्तव्य में जोड़ते हैं कि – एक बार वन भूमि के तौर पर परिभाषित हो जाने के बाद इस ज़मीन पर सदियों से प्रचलित और आधिकारिक अभिलेखों में दर्ज  सामुदायिक निस्तार व हक़, वनाधिकार मान्यता कानून 2006 के लागू होते ही समाज को स्वत: प्रदान किये जाने की प्रक्रिया शुरू हो जाना थी लेकिन मध्य प्रदेश सरकार और वन विभाग ने इन ज़मीनों को समुदायों को न देकर कभी संरक्षित वन अधिसूचित किया, कभी भूमि बैंक के लिए, कभी नारंगी भूमि बताकर सर्वोच्च अदालत के आदेश की अवमानना की. इतना ही नहीं लोगों की निजी सवामित्व की ज़मीनों को भी जो छोटे व बड़े झाड़ के जंगल मद में दर्ज थीं उन्हें भी अपने नियंत्रण में लिया और लोगों को गैर कानूनी ढंग से अपनी ही ज़मीनों से बेदखल करने के लिए दबाव बनाया जा रहा है. इन ज़मीनों पर पैदा होने वाले लघु वनोपज पर सामुदायिक अधिकारों  को तरजीह न देते हुए ग्रामीण आबादी की पहुँच से इसे दूर किया जा रहा है.

उल्लेखनीय है कि हाल ही में बैतूल जिले में ही वन विभाग के नियंत्रण से अवैध कब्ज़े के रूप में शामिल की गयी लगभग 80 हेक्टेयर ज़मीन बैतूल शहर के विकास के लिए वापिस ली गयी है. यह अपना तरह का देश में पहला उदहारण है जब वन विभाग द्वारा आजादी के बाद  से जारी मनमानी को चुनती दी गयी और वन विभाग को सामुदायिक निस्तार की ज़मीनों को वापिस करना पडा. यह देखना दिलचस्प है कि मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में एक ही ज़मीन को राजस्व व वन विभाग अपने अपने अभिलेखों में दर्ज करते चला आ रहा है और उन ज़मीनों पर अपने अपने ढंग से कार्यवाही करते आ रहे हैं. इसे एडवोकेट अनिल गर्ग- समानांतर कार्यवाहियों का इतिहास कहते हैं जो असल में संसद द्वारा स्वीकार किये गए ‘एतिहासिक अन्यायों’ का एक महत्वपूर्ण पहलू है क्योंकि ज़मीनों के रिकार्ड्स में  इस तरह की माम्नानियों का सबसे ज़्यादा खामियाजा इन ज़मीनों पर साड़ों से बसे आदिवासियों व अन्य परम्परागत आबादी को भुगतना पड़े हैं और यह उत्पीड़न बदस्तूर जारी है.

इन्हीं सवालों को लेकर ग्राम सर्वोदय अभियान की ओर से यह पहला सम्मलेन किया गया. बैतूल से शुरू हुए इस अभियान को पूरे प्रदेश में व्यापक व पुरजोर ढंग से उठाया जाएगा.

इसको भी देख सकते है