संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

चुटका परमाणु बिजली संयंत्र विरोधी आंदोलन: संघर्ष की राह अभी लंबी है…


मंडला जिले की हरी-भरी धरती के सुदूर इलाक़े में छोटा सा आदिवासी गांव है- चुटका। तीन साल पहले तक नारायनगंज तहसील में ही इसे बहुत कम लोग जानते थे। आज यह गांव मंडला में ही नहीं, पूरे मध्य प्रदेश में जाना जाता है। राज्य के बाहर भी यह नाम यहां-वहां लोगों की ज़ुबान पर चढ़ने लगा है। उसकी इस शोहरत के पीछे कोई चमत्कारिक उपलब्धि नहीं है। सामने खड़ी पहाड़ जैसी आफ़त ने उसे सुर्ख़ियों में लाने का काम किया है। यह आफ़त परमाणु बिजली संयंत्र की प्रस्तावित परियोजना लेकर आयी है।

परियोजना के निशाने पर अकेला चुटका नहीं है। उसके साथ दो पड़ोसी गांव भी परियोजना की बलिवेदी पर चढ़ेंगे। विकास नाम के इस पगलाये यज्ञ में दी जानेवाली आहुतियों का सिलसिला यहीं पर नहीं थमेगा। उसकी आंच से दर्जनों दूसरे गांव भी स्वाहा हो जाने की हद तक झुलसेंगे। ज़ाहिर है कि इस आपदा की आहट ने इलाक़े के अमन-चैन को बुरी तरह घायल करने का बेहूदा काम किया है।


परमाणु संयंत्र बरगी बांध के किनारे जमेगा। याद रहे कि बरगी बांध नर्मदा घाटी में बने 30 बड़े बांधों में से एक है। यह भी याद रहे कि इससे मध्य प्रदेश के तीन जिलों के 162 गांवों के लोग विस्थापित हुए थे- मंडला के 95, सिवनी के 48 और जबलपुर के 19 गांव। यह भी याद रहे कि विस्थापितों में 70 फ़ीसदी से अधिक आदिवासी हैं। और यह भी याद रहे कि विस्थापित हुए लोग अभी तक विस्थापन की त्रासदी से उबर नहीं सके हैं। मुआवज़े और पुनर्वास को लेकर किसी पारदर्शी और न्यायसंगत नीति की ग़ैर मौजूदगी में बरगी बांध ने उनके साथ ज़ालिमाना मज़ाक़ किया। विकास का जाप करते हुए उनकी सिधाई के साथ छल किया और उन्हें वंचनाओं के जंगल में फेंक दिया।

बरगी बांध को रानी अवन्ती बाई लोधी सागर परियोजना के नाम से बनाया गया था। इसी कड़ी में इतिहास का वह पन्ना भी याद रहे कि रानी अवन्ती बाई ने अपने पति की मौत के बाद अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जंग लड़ी थी और इसके लिए 25 हज़ार से अधिक सिपाहियों की फ़ौज़ तैयार की थी। चार साल तक चली यह जंग गोरी हुक़ूमत द्वारा छीनी गयी लोधी साम्राज्य की ज़मीन की वापसी के लिए थी। लेकिन उसका अंत दुखद निकला। चौतरफ़ा घिर जाने के बाद रानी अवन्ती बाई ने अंग्रेज़ों के हत्थे चढ़ने के बजाय मौत को गले लगाने का फ़ैसला किया और अपनी तलवार से ख़ुद को क़ुर्बान कर दिया। इसी के साथ लोधी साम्राज्य का सूरज भी हमेशा के लिए बुझ गया। रानी अवन्ती बाई की पराजय गोरी हुक़ूमत की फ़ौज़ी ताक़त से कहीं ज़्यादा उसकी ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति का नतीज़ा थी।

ख़ैर, जबलपुर से कोई पैंतालीस किलोमीटर दूर बसा बरगी कभी हरदुली ग्राम पंचायत का मामूली गांव था। कोई तीन किलोमीटर दूर बने बरगी बांध ने इसकी तसवीर बदल दी और उसे नया नाम मिला- बरगीनगर। आज यहां सिंचाई विभाग का गेस्ट हाउस है, इंटर कालेज है, बड़ा बाज़ार है। और हां, विस्थापितों की कालोनी भी। बरगी बांध के क़रीब उम्दा रेस्त्रां भी खुला। आख़िर बरगी बांध पर्यटक स्थल जो है। यहां सेवा में बहुत कुछ हाज़िर है। मंहगी शराब पीजिये और गहरे पानी में स्टीमर पर घूमने का लुत्फ़ भी उठाइये। शर्त बस इतनी कि जेब में दमड़ी हो।

यहां बरगी बांध पर दो पन बिजलीघर भी हैं। यह अलग बात है कि उसके आसपास का इलाक़ा चराग़ तले अंधेरा की पुरानी कहावत का नमूना पेश करता है। बिजली का यहां कोई ठिकाना नहीं रहता। और क्यों रहे? बिजलीघर आदिवासियों के घरों को रौशन करने के लिए तो बना नहीं। ख़ुद बरगीनगर के ग़रीब वाशिंदे बिजली के सुख से बाहर हैं।

बहरहाल, चुटका परमाणु बिजली संयंत्र की परियोजना पर वापस लौटें। परियोजना का ख़ाक़ा 1984 से ही बनना शुरू हो गया था जब परमाणु ऊर्जा आयोग के विशेष दल ने चुटका के आसपास के इलाक़े का दौरा किया। तब बरगी बांध से हुए विस्थापन का मुद्दा ताज़ा और गरम था। शायद इसीलिए गांववाले नहीं सूंघ सके कि एक और आफ़त उन पर घात लगाने की तैयारी में है। कोई 25 साल बाद इसके ख़िलाफ़ हलचल तब शुरू हुई जब अक्तूबर 2009 में केंद्र सरकार ने इसके प्रस्ताव को हरी झंडी दिखा दी। परियोजना के मुताबिक़ पहले दौर में संयत्र की दो इकाइयां लगेंगी और प्रति इकाई सात सौ मेगावाट बिजली का उत्पादन होगा। जल्द ही दो और इकाइयां लगा कर परियोजना का विस्तार किया जायेगा। इस तरह चुटका परमाणु बिजली संयंत्र की उत्पादन क्षमता 28 सौ मेगावाट हो जायेगी।

परियोजना के लिए चुटका, टाटीघाट और कुंडा गांव की 650 हेक्टेयर ज़मीन का अधिग्रहण होगा। परियोजना से सात किलोमीटर दूर बसे सिमरिया गांव के पास टाउनशिप का निर्माण होगा और इसके लिए 75 हेक्टयर अतिरिक्त ज़मीन का अधिग्रहण होगा।

परियोजना को केंद्र सरकार की हरी झंडी मिलने के फ़ौरन बाद नवंबर 2009 में चुटका में आसपास के 50 गांवों की बड़ी सभा का आयोजन हुआ था। तब तक यह ख़बर आग की तरह दूर-दूर तक फैल चुकी थी कि परमाणु बिजली संयंत्र का इलाक़े पर बुरा असर पड़ेगा, कि सैकड़ों परिवार अपनी आजीविका से हाथ धो बैठेंगे, कि बरगी बांध से विस्थापित हो चुके कुछ गांव दोबारा विस्थापन की मार झेलेंगे। इससे सभी सकपकाये हुए थे और ग़ुस्से में थे। उस सभा में मंडला के सांसद बसोरी सिंह मसराम भी पहुंचे थे। अब इसे संसदीय राजनीति की विडंबना कहें कि जन प्रतिनिधि महोदय के सुर जनमत से ठीक उलट थे। उन्होंने विकास की दुहाई दी, बेहतर मुवावज़े और पुनर्वास का झुनझुना हिलाया। लेकिन जैसा कि तय था, सांसद महोदय की दाल नहीं गली। उनका सामना लोगों के तीखे विरोध से हुआ और उन्हें बैरंग लौटना पड़ा। दूसरी ओर सभा ने एकमत से प्रस्तावित परियोजना पर अपनी नामंज़ूरी दर्ज़ की। संघर्ष के संचालन के लिए चुटका परमाणु संघर्ष समिति का भी गठन किया गया।

यह सभा जन संघर्ष का बिगुल थी। उसी माह संघर्ष समिति ने मंडला के कलेक्टर से भेंट कर परियोजना के बारे में पूछताछ की। लेकिन कलेक्टर ने परियोजना के बावत कोई जानकारी होने से ही इनकार कर दिया। कहा कि यह आदिवासी क्षेत्र पांचवीं अनुसूची में आता है, कि पेसा कानून के तहत गांव सभा की मंज़ूरी के बग़ैर कोई परियोजना लागू नहीं की जा सकती, कि इसलिए निश्चिंत रहें। चलते-चलते उन्होंने बाहरी लोगों के बहकावे में न आने की सीख भी दी। लेकिन कलेक्टर का आश्वासन ही बहकावा था। इसका ख़ुलासा भी बहुत जल्द हो गया जब 20 नवंबर 2009 को टाटीघाट में सर्वे की टीम आ पहुंची। गांव की महिलाओं ने खदेड़ा तो टीम चुटका जा पहुंची लेकिन वहां की महिलाओं ने भी उसे घेर लिया।

गांववालों के तीखे प्रतिरोध को देखते हुए सर्वे टीम ने परियोजना को लेकर अधिकारियों के साथ खुली बातचीत की पेशकश रखी। बातचीत के लिए अगले दिन की तारीख़ तय हुई लेकिन उस दिन कोई सरकारी अधिकारी नहीं पहुंचा। तहसीलदार से जब इस बावत फ़ोन पर बातचीत हुई तो जवाब मिला कि आप लोग (चुटका परमाणु संघर्ष समिति) हमें ताक़त का इस्तेमाल करने का मौक़ा न दें।

तहसीलदार के इस बर्ताव से नाख़ुश होकर आंदोलनकारियों ने उसी समय एसडीएम को फ़ोन किया और तहसीलदार के ख़िलाफ़ शिक़ायत दर्ज़ की। एसडीएम ने पूरे मसले पर चर्चा करने के लिए तीसरे दिन का समय दिया। उस दिन 38 गांव के दो हज़ार से अधिक लोग जमा हुए। तहसीलदार ने आंदोलन के नेताओं को जेल में ठूंस देने की धमकी दी तो एसडीएम ने भी उन पर शासकीय काम में बाधा डालने का आरोप मढ़ा। लेकिन गांववाले इस धौंसपट्टी के आगे नहीं झुके और अपना फ़ैसला सुना दिया कि अब बात होगी तो केवल कलेक्टर से, और तब तक सर्वे भी नहीं होने दिया जायेगा।

अब कलेक्टर को परखने की बारी थी। इसी कड़ी में अगले माह, दिसंबर 2009 में, एक बार फिर चौपाल लगी। कलेक्टर और एसपी समेत पूरा सरकारी अमला चुटका पहुंचा। जिस कलेक्टर ने कानून का हवाला देकर गांववालों को भरोसा दिलाया था कि ग्राम सभा की अनुमति के बग़ैर कोई परियोजना लागू नहीं की जा सकती, उसी कलेक्टर ने परियोजना की तरफ़दारी करते हुए सर्वे में रूकावट न डालने की अपील की। आंदोलनकारियों ने सवाल जड़ा कि जब गांववाले परियोजना के पक्ष में ही नहीं तो सर्वे क्यों? उन्हें याद दिलाया गया कि इसी तरह बरगी बांध को भी जन हितकारी परियोजना के बतौर प्रचारित किया गया था। कहा गया था कि उससे प्रभावित लोगों को वैकल्पिक ज़मीन मिलेगी, नौकरी और मुफ़्त बिजली मिलेगी, बेहतर ज़िंदगी जीने की तमाम सरकारी सहूलियतें मिलेंगी, उनकी क़िस्मत बदल जायेगी। बरगी बांध तो बन गया लेकिन मिला कुछ भी नहीं। बरगी बांध से बिजली बन रही है लेकिन हमारे घरों में आज भी कुप्पी जलती है। क्या यही विकास है?

इस गरमाते माहौल को और आंच मिली जब कलेक्टर ने इन सवालों से तिलमिला कर ‘बाहरी’ लोगों को सभा से निकल जाने का फ़रमान सुनाया। उनका इशारा बरगी बांध विस्थापित एवं प्रभावित संघ के नेताओं के अलावा परमाणु बिजली परियोजना से ‘अप्रभावित’ रहनेवाले गांव के लोगों से था। इस पर नयी बहस छिड़ी कि आख़िर ‘बाहरी’ कौन है? चुटका परमाणु संघर्ष समिति के प्रतिनिधियों ने कहा कि हमारे लिए तो सबसे पहले प्रस्तावित परियोजना के अधिकारी बाहरी व्यक्ति हैं जो यहां बिन बुलाये मेहमान हैं। ख़ुद परियोजना का आकलन है कि संयंत्र से 11 किलोमीटर के अर्ध व्यास में बसे दर्जनों गांव संभावित विकरण के दायरे में होंगे। परियोजना से भले ही तीन गांव के लोग उजड़ेगे लेकिन और गांव भी उसके बुरे नतीज़ों को भुगतेंगे। कोई अनहोनी घटी तो पूरा महा कौशल वीरान हो जायेगा।

इस गहमागहमी में जो होना था, वही हुआ। चौपाल उखड़ गयी। सरकारी अमला देख लेने की मुद्रा के साथ आंखें तरेरते हुए गांव से विदा हो गया। अब तक की प्रक्रिया से साफ़ हो गया कि प्रशासन से कोई उम्मीद रखना बेमानी है, कि प्रशासनिक तंत्र तो सरकारी इरादों को पूरा करने का ज़रिया भर है, कि परियोजना का फ़ैसला भले ही केंद्र सरकार ने लिया है लेकिन उसमें राज्य सरकार की भी बराबर की रज़ामंदी है, कि विकास के नाम पर जारी विनाश को रोकने के लिए जन संघर्ष के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं। आख़िर यों ही नहीं कहा जाता कि संघर्ष सबसे बड़ा शिक्षक होता है।

बहरहाल, दिसंबर 2009 में चुटका परमाणु संघर्ष समिति ने परियोजना के ख़िलाफ़ मंडला के कलेक्टर को राज्यपाल के नाम संबोधित ज्ञापन सौंपा। फ़रवरी 2010 को पहले दौर में प्रभावित होने जा रही तीनों ग्राम पंचायतों ने परियोजना के ख़िलाफ़ विधिवत प्रस्ताव पारित किया। इसे अनदेखा करते हुए प्रशासन ने अप्रैल 2010 में चुटका में विशेष ग्राम सभा का आयोजन किया। इरादा था परियोजना के पक्ष में जनमत तैयार करना। लेकिन यह सरकारी जुगत काम न आयी। ग्रामीणों ने दोटूक जवाब दिया कि वे अपनी जान दे सकते हैं लेकिन ज़मीन नहीं।

यह नारा गांव-गांव गूंजा और उसकी आवाज़ जबलपुर में भी बुलंद हुई। परियोजना के ख़िलाफ़ हस्ताक्षर अभियान चला जिसे तत्कालीन केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को ज्ञापन के बतौर भेजा गया। फ़िलहाल, परियोजना को अभी तक अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं मिला है। इस बीच इलाक़े का सर्वेक्षण किये जाने की जब-तब कोशिशें जारी रहीं। कहना होगा कि ग़ांववालों और ख़ास कर महिलाओं की सजगता के चलते ऐसी हर कोशिश को केवल नाकामयाबी हाथ लगी।

परियोजना का रास्ता साफ़ करने के लिए सामाजिक कार्य की आड़ में गांवों में घुसपैठ करने और लोगों को भरमाने का पैंतरा भी आज़माया गया। जबलपुर की सिहोरा तहसील की किसी संस्था को स्वास्थ्य शिविर लगाने का ठेका दिया गया। लेकिन गांववाले भांप गये कि इसका असल मक़सद तो कुछ और है। शंका इसलिए भी पैदा हुई कि सरकारी योजना के तहत पहले से ही बरगी बांध से सटे इलाक़ों में चिकित्सा सुविधा पहुंचाने के लिए हर हफ़्ते वाहन और स्टीमर का दौरा लगता है, तब अचानक इस स्वास्थ्य शिविर का आयोजन क्यों? आख़िरकार, जागरूक और सतर्क वाशिंदों के कड़े रूख़ के सामने संस्था की एक न चली और उसे अपने स्वास्थ्य शिविर का बोरिया-बिस्तर समेट कर वापस लौटना पड़ा।

आंदोलन के प्रतिनिधि मंडल ने राजस्थान में राणा प्रताप सागर नाम से चंबल नदी पर बने बांध के इलाक़े का दौरा किया जहां रावतभाटा परमाणु बिजली संयंत्र भी है। उसने देखा कि परमाणु बिजलीघर के चलते बांध का पानी दूर तक जामुनी रंग का हो गया है और उससे गंधक-पोटाश जैसी गंध निकलती है। आसपास से मछलियां कब की ग़ायब हो चुकी हैं। खेती-किसानी चौपट होती जा रही है। चौतरफ़ा भूख, ग़रीबी, कुपोषण का राज है। कुल मिला कर परमाणु बिजलीघर ने इलाक़े में ख़ुशहाली लाने के दावे के ठीक उलट सामाजिक तानेबाने को तहस-नहस करने, आत्मनिर्भरता की स्थिति और संस्कृति को भी भंग करने और लोगों की ज़िंदगी को दुश्वारियों के अंधेरे में ढकेलने का का ही काम किया। दौरे से लौट कर इन अनुभवों को साझा किये जाने के कार्यक्रम भी आयोजित हुए।

वैसे, चुटका से कोई दस किलोमीटर दूर बसे गोरखपुर बरेला में तीन साल पहले झाबुवा तापीय बिजली संयंत्र की परियोजना को मंज़ूरी मिली थी। इसमें कहीं कोई दिक़्क़त पेश नहीं आयी। सीधे-सादे आदिवासी परियोजना द्वारा दिखाये गये सुनहरे कल के झांसे में आ गये और उन्होंने आगा-पीछा सोचे बग़ैर परियोजना के पक्ष में हामी भर दी और कौड़ियों के भाव अपनी उपजाऊ ज़मीनें उसके हवाले कर दीं। संयंत्र अभी निर्माणाधीन है लेकिन समस्याओं की बारिश शुरू हो चुकी है। चट्टानों को विस्फोट से उड़ाया जाता है तो आदिवासियों के घर दहल उठते हैं। ज़्यादातर मकानों में दरारें पड़ गयी हैं। धुकधुकी लगी रहती है कभी कोई तगड़ा विस्फोट न हो जाये कि उनका आशियाना भरभरा कर ढह जाये। विस्फोट से उड़नेवाली धूल बचे-खुचे खेतों में पसर जाती है। यह ज़मीन को बांझ बना देने का सिलसिला है। गोरखपुर बरेला के लोगों को अब समझ में आया कि उनसे भारी भूल हुई। देर से और बहुत कुछ लुट जाने के बाद ही सही लेकिन वे जाग रहे हैं। चुटका परमाणु संघर्ष समिति के क़रीब आ रहे हैं। अभी तो ख़ैर शुरूआत है।

थोड़ा पीछे लौटें और विकास के झंडे तले मुनाफ़े के लुटेरों की बाजीगरी देखें। बरगी बांध बनने से पहले नर्मदा में मछली पकड़ने पर कोई पाबंदी नहीं थी। लेकिन 1984 में बांध बनने के फ़ौरन बाद राज्य मत्स्य महासंघ को मछली पकड़ने का ठेका मिल गया। यह सरकारी मेहरबानी इसलिए हुई कि महासंघ पर कुछ मुट्ठी भर लोगों का दबदबा है और जिनकी सत्ता के गलियारे में ऊंची पहुंच है। महासंघ को मिले ठेके के ज़रिये मुनाफ़े की लूट के लिए स्थानीय मछुवारों को मालिक से दिहाड़ी का मज़दूर बना दिया गया। एक झटके में दो हज़ार से अधिक मछुवारों का परंपरागत अधिकार छिन गया। इसके ख़िलाफ़ तीनों जिलों के प्रभावित मछुवारे एकजुट हो गये।

कहते हैं कि दुखियारों को उनके दुख जोड़ते हैं। किसानों ने भी उनका पूरा साथ दिया। भारत जन आंदोलन के प्रणेता बीडी शर्मा भी जुड़े। यह उन्हीं का दिया नारा था कि ‘खेती डूबी यहां हमारी, जल की रानी कहां तुम्हारी‘। कहना होगा कि इस नारे ने बरगी बांध से विस्थापित हुए किसानों और मछुवारों के बीच एकता को मज़बूत करने का बड़ा काम किया।

1994 में तीनों जिलों के प्रभावित मछुवारों ने नौका रैली निकाली। बांध में मछली पकड़ने का जाल डाला और जुलूस बना कर मछली बेचने टिकरिया (मंडला), किनदरोई और धनसौर (सिवनी) और बरगी (जबलपुर) पहुंचे। यह क़दम मछली पकड़ने के अधिकार की सार्वजनिक अभिव्यक्ति थी। आख़िरकार, बरगी बांध से प्रभावित हुए मछुवारों को इनसाफ़ मिला। मछुवारों की 54 कोआपरेटिव सोसाइटीज़ को मछली पकड़ने का अधिकार मिला। राज्य मत्स्य महासंघ को उल्टे पांव इलाक़े से भागना पड़ा। बरगी बांध विस्थापित मत्स्य उत्पादन एवं विपणन मर्यादित सहकारी संघ के बैनर तले मछुवारों की कोआपरेटिव सोसाइटीज़ एक सूत्र में बंधी। यह सिलसिला 1995 से 2001 तक चला।

इसके बाद मछली पकड़ने का टेंडर निकला और जो जबलपुर के बड़े (मतलब कि दबंग) शराब ठेकेदार के हाथ लगा। इस तरह लंबे और कड़े संघर्ष से हासिल हुई उपलब्धि बिखर गयी। इसकी बड़ी वजह यह रही कि जीत की ख़ुशी में इस सच को भुला दिया गया कि लुटेरी ताक़तें अपनी हार के बाद चुप नहीं बैठेंगी, नयी शक़्ल में उभरेंगी और नये तरीक़े आज़मायेंगी। इस बीच बरगी बांध से प्रभावित किसानों और मछुवारों के बीच एकता के तार ढीले पड़ते गये। यह लापरवाही घातक साबित हुई। यह सबक़ है कि जन संघर्षों से मिली जीत को बनाये रखना उसे हासिल करने से कहीं ज़्यादा कठिन और चुनौती भरा काम हुआ करता है। इसमें तनिक भी फिसलन संघर्ष को बहुत पीछे ढकेल देती है।

बरगी बांध में चुटका की 75 फ़ीसदी तो टाटीघाट की 90 फ़ीसदी ज़मीन समा गयी। जो बची, उसमें ज़्यादातर बर्रा है- बर्रा मतलब पथरीली, केवल कोंदो-कुटकी उगाने लायक़। कुंडा गांव इस मायने में ख़ुशक़िस्मत है। बरगी बांध में यहां की बहुत कम ज़मीन गयी। यहां के आदिवासी दोफ़सली बड़ी जोतों के मालिक़ हैं और इतने सक्षम रहे हैं कि इस गांव से कभी पलायन नहीं हुआ। चुटका परमाणु बिजली संयंत्र की परियाजना इस आत्मनिर्भरता पर ग्रहण लगाने का काम करेगी। इस समझ और कमाल की एकता के चलते यह पूरा गांव परियोजना के ख़िलाफ़ है।

दुर्भाग्य से चुटका और टाटीघाट में ऐसा नहीं है। परियोजना को लेकर लोग बंटे हुए हैं। ताज़ा ख़बर यह है कि मंडला के कई भाजपाई और कांग्रेसी नेता चुटका और टाटीघाट में औने-पौने दाम में ज़मीन ख़रीद रहे हैं। इस आधार पर ख़ुद को इलाक़े का वाशिंदा बताते हुए परियोजना के पक्ष में खुल कर प्रचार कर रहे हैं। यह परियोजना के विरोध में खड़े लोगों से मुक़ाबला करने का नया दांव है। इसे रोकना, व्यापक एकता की राह खोलना और संघर्ष को जीत की मंज़िल तक ले जाना चुटका परमाणु संघर्ष समिति के लिए बड़ी चुनौती है।

आदियोग

(युवा कवि प्रियांक जोशी का आभार जिनके सहयोग ने मेरी चुटका यात्रा को संभव बनाया)

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