संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

छत्तीसगढ़ : रावघाट रेल परियोजना के तहत आदिवासियों की ज़मीनों का जबरन अधिग्रहण

छत्तीसगढ़ के कांकेर  जिले के अंतागढ़ ब्लॉक के ग्राम पतकालबेड़ा में 17 आदिवासी परिवारों की 30 एकड़ भूमि, जिस पर उन्हें वन अधिकार मान्यता कानून के अंतर्गत व्यक्तिगत वन अधिकार पत्र भी प्राप्त है, का बिना मुआवज़ा, बिना नोटिस, बिना ग्राम सभा अनुमति के दल्ली राजहरा रावघाट रेल परियोजना के तहत अधिग्रहण किया जा रहा है।

वर्ष 2017 में बिना किसी सूचना या सहमति के वन विभाग और ठेकेदार के कर्मचारियों द्वारा उक्त भूमि पर पेड़ कटाई एवं रेत की ढुलाई का कार्य आरम्भ किया गया , जिसके दौरान 4 परिवारों के घर तोड़ दिया गए , एवं 271 फलदार पेड़ों को काट दिया गया । शासन को अनेक सूचना एवं शिकायत प्रदान करने के बावजूद , उनको किसी प्रकार की राहत नहीं मिली। इस वर्ष 2019 में ग्रामवासियों द्वारा विरोध में अपनी भूमि पर निर्माण कार्य पर रोक लगायी गयी , जिसके पश्चात् शासन ने उन्हें क्षतिपूर्ति प्रदान करने का निर्णय लिया।

कल, दिनांक 04. 05. 19 को, अनुवाभिगीय अधिकारी (रा) अंतागढ़ के कार्यालय में ग्रामवासियो की कांकेर अपर कलेक्टर एम आर चेलक , अनुविभागीय अधिकारी (रा ) सी. एल ओंटी एवं कांकेर विधायक अनूप नाग के साथ मीटिंग का आयोजन हुआ। इस मीटिंग में ग्रामवासियो द्वारा यह बात रखी गयी की उन्हें न तो कोई मुआवजा दिया जा रहा है , न ही प्रभावित परिवारों के लिए नौकरी – जो की कानून एवं न्याय का उल्लंघन है।

ज्ञात हो कि भूमि अधिग्रहण कानून 2013 के अंतर्गत वन अधिकार पत्र धारकों और राजस्व पट्टाधारकों, दोनों को ही “भूमिस्वामी” की परिभाषा में माना गया है, अत : वन पट्टे की भूमि के अधिग्रहण के लिए भूमि अधिग्रहण कानून 2013 का पालन अनिवार्य है।

परन्तु आज तक कांकेर ज़िले में वन अधिकार पत्र धारकों को विभिन्न परियोजनाओं के तहत भूमि अधिग्रहण के समय कोई राहत नहीं मिलती है। पतकालबेड़ा के ग्रामीणों को भी उपस्थित अधिकारियों ने यह पट्टी पढाई कि उनका कोई अधिकार नहीं है, और यह तो प्रशासन का बड़प्पन है की पीढ़ियों से काबिज़ आदिवासियों को वे कुछ थोड़ी सी क्षतिपूर्ति देने के लिये तैयार हैं।

प्रशासन की ऐसी सोच ने वन अधिकार कानून को खोखला बना दिया है। वन अधिकार मान्यता कानून की प्रस्तावना में लिखा है कि आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वन निवासी समुदायों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ है कि विकास के नाम पर उनकी पीढ़ियों से काबिज़ ज़मीनें छीन ली गई हैं और इसी अन्याय को सुधारने के लिए ये कानून बनाया गया है। पर आज भी, इस कानून के लागू होने के बावजूद, प्रत्येक विकास परियोजना में फिर यह अन्याय दोहराया जा रहा है। यह बेहद दुःख की बात है की वन अधिकार कानून के लागू होने के 13 लम्बे वर्षो बाद भी ज़मीनी स्तर पर अधिकारियों को इस कानून की बुनियादी समझ नहीं है।

कल की मीटिंग में पतकालबेड़ा के ग्रामवासियों पर यह दबाव डाला गया की वे अपर्याप्त क्षतिपूर्ति मंज़ूर करे एवं और किसी मुआवज़े या नौकरी की मांग न रखे, जिसके विरोध में क्षतिपूर्ति लेते समय ग्रामवासियों ने पत्र दर्ज किया कि उनका मुआवजा एवं नौकरी का अधिकार जीवित है , जिसकी मांग वो शासन से बरकरार रख रहे है।

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