किसान आंदोलन के 100 दिन : एक रिपोर्टर की नज़र से देखें दिल्ली बॉर्डर के हाल
-गौरव गुलमोहर
किसान आंदोलन तीन महीने का कठिन दौर पार कर चौथे महीने में प्रवेश कर चुका है। किसानों के सौ दिन डटे रहने को पूरी दुनिया अचंभित नज़रों से देख रही है। गाहे-बगाहे लोग अनुमान लगाते रहते हैं कि किसान अब और ज्यादा दिनों तक आंदोलन में नहीं बैठे रह सकते, लेकिन तभी किसान नया रणनीतिक दांव सामने लाकर सबको चौंका देते हैं। लोग अनुमान लगा रहे थे कि ठंड तो किसान ट्रॉली और कम्बलों में बिता दिए लेकिन चिलचिलाती धूप, नीचे सीमेंटेड सड़क और बिना छत के किसान कैसे आंदोलन करते रह सकते हैं? तभी किसानों ने आंदोलन में कुटिया बनाना, पंखे टांगना और कूलर लगाना शुरू कर दिया।
किसानों के इस साहस को, खास तौर से महिला किसानों के जीवट को दुनिया की अग्रणी पत्रिका टाइम ने अपने कवर पर इज्जत बख्शी है।
एक ओर आंदोलन को कमजोर बताने की कवायद तेज होती नज़र आती है, तो दूसरी ओर आशंकाएं भी बढ़ रही हैं कि केंद्र की मोदी सरकार इसी महीने के अंत में शुरू हो रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव से पहले आंदोलन को खत्म करने के लिए कोई ठोस कदम उठा सकती है। आंदोलनरत किसानों के बीच यह चर्चा आम थी कि पश्चिम बंगाल चुनाव में किसानों की एक बड़ी रैली हो सकती है ताकि केंद्र की मोदी सरकार पर दबाव बनाया जा सके। बाद में इस आशय का एक बुलेटिन खुद संयुक्त संयुक्त किसान मोर्चा ने जारी करते हुए बंगाल में किसान रैली की तारीख 12 मार्च तय कर दी।
मैंने किसान आंदोलन की प्रवृत्ति और दिशा को समझने के लिए दिल्ली की तीन सीमाओं ग़ाज़ीपुर, सिंघु और टीकरी बॉर्डर पर एक सप्ताह किसानों के बीच बिताया। मैंने पाया कि किसान आंदोलन को मीडिया की नज़र से नहीं देखा जा सकता है। यह आंदोलन विस्तृत और विविधता लिए हुए है। आंदोलन व्यवस्थित और क्रमबद्ध ढंग से चल रहा है, जो अमूमन किसी जनांदोलन में देखने को नहीं मिलता है। मैं इस आंदोलन को जनांदोलन कहते हुए इसीलिए पूरी सावधानी बरत रहा हूं।
ये मेला है…
है जहां तक नज़र जाती
और जहां तक नहीं जाती
इसमें लोक शामिल हैं
इसमें लोक और सुर-लोक और त्रिलोक शामिल हैं
ये मेला है
इसमें धरती शामिल, पेड़, पानी, पवन, शामिल हैं
इसमें हमारी हंसी, आंसू और हमारे गान शामिल हैं
और तुम्हें कुछ पता ही नहीं इसमें कौन शामिल हैं
इसमें पुरखों का दमकता इतिहास शामिल है
इसमें लोक-मन का रचा मिथहास शामिल है
इसमें धैर्य हमारा, सब्र, हमारी आस शामिल है
इसमें शब्द, चित्त, धुन और अरदास शामिल है
और तुम्हें कुछ पता ही ऩहीं
इसमें वर्तमान, अतीत संग भविष्य शामिल है
इसमें हिंदू, मुस्लिम, बौद्ध, जैन और सिक्ख शामिल हैं|
बहुत कुछ दिख रहा और कितना अदृश्य शामिल है
ये मेला है
पंजाबी कवि डॉ. सुरजीत पातर की लिखी यह कविता हमारे सामने आंदोलन का दृश्य बखूबी प्रस्तुत करती है। निस्सन्देह यह किसान आंदोलन कई मायनों में ऐतिहासिक है और आजादी के बाद का सबसे बड़ा जनांदोलन बनने की क्षमता लिए हुए है। किसान एक साथ बनी कई-कई धारणाओं को तोड़ रहे हैं। जो समाज किसानों को गरीब, कमजोर, निरीह और याचक की भूमिका में देखने का आदी हो चुका था, किसान उसके सामने चुनौती पेश कर रहे हैं। आंदोलन में बैठे किसानों के भीतर एक खास तरह का जुनून, गुरूर दबा हुआ रोष देखा जा सकता है। यही गुरूर कहीं न कहीं आज मौजूदा सरकार के गले की हड्डी बन चुका है।
इस आंदोलन में जाने के बाद अधिक संभावना यह है कि आप इससे भावनात्मक रूप से जुड़ जाएं और आलोचनात्मक व समीक्षात्मक दृष्टि खो दें। यह सम्भावना तब और बढ़ जाती है जब हम किसानों का बनाया खाना खाते हैं, उनके साथ दिन-रात बिताते हैं, उनके साथ उनकी ट्रॉली में ही सोते हैं और हर रोज़ एक नयी मुसीबत, नयी पीड़ा से टकराते हैं। जाहिर है, ऐसे में आप उनके अनुरूप या उनके बरक्स उनकी खामियों को देखना भूल जाएं। चूंकि एक पत्रकार का काम किसी परिघटना को विभिन्न आयामों में देखना होता है, तो मैंने अपने दिल्ली प्रवास के दौरान इसकी भरसक कोशिश की है।
तीन बॉर्डर, तीन मोर्चे: एक मंज़रकशी
किसान आंदोलन का ग़ाज़ीपुर मोर्चा नेशनल हाइवे-24 के उस सिरे पर हो रहा है जहां दिल्ली और गाजियाबाद मिलते हैं। यहां एक मंच लगा है। मंच के सामने हजारों किसानों के बैठने की व्यवस्था है। आंदोलनस्थल को यूपी पुलिस ने लगभग दो किलोमीटर आगे पीछे से बैरिकेड लगा कर बंद किया हुआ है। अभी दो दिन पहले हाइवे की शायद एक लेन खोली गयी है वरना इससे पहले तक बैरिकेड के बगल से खाई, झाड़-झंखाड़, भारी धूल के बीच से होते हुए दोपहिया वाहनों, साइकिलों और पैदल यात्रियों को गुज़रना पड़ रहा था। चारों ओर नज़र दौड़ाने पर एक दृश्य आम दिखता है- कहीं जाट किसान हुक्का गुड़गुड़ा रहे हैं तो कहीं सिक्ख किसान लंगर खिला रहे हैं।
ग़ाज़ीपुर मोर्चे से कोई 50 किलोमीटर उत्तर में दिल्ली के लगभग दूसरे छोर पर सिंघु बॉर्डर का मोर्चा डटा है। यहां किसानों के दो मंच लगे हैं। संयुक्त किसान मोर्चा का प्रमुख मंच कुंडली गांव से गुजरने वाले नेशनल हाइवे-1 पर है। यहां हाइवे के बीच में लगभग सात से आठ किलोमीटर तक सघन रूप से पंजाब और हरियाणा की तम्बू लगी ट्रॉलियां और ट्रैक्टर खड़े हैं। आंदोलन के दोनों ओर सघन कुण्डली की सघन बस्तियां, दुकानें और बड़े-बड़े मॉल हैं। इस मंच के पीछे निहंग सिक्ख नीला वस्त्र और शस्त्र धारण किये डेरा जमाए बैठे हैं। उनके घोड़े पुलिस के बैरिकेडों से बंधे हुए हैं। वे वहीं चारा खा रहे हैं। यहां से घोड़ों के मल-मूत्र की अजीब सी दुर्गंध उठती है। कंटीली बैरिकेड के पीछे सीआरपीएफ के वर्दीधारी जवान तैनात हैं।
बैरिकेड के पीछे दूसरी ओर यानी सिंघु गांव में किसान मज़दूर संघर्ष समिति नाम के संगठन का मंच लगा है, जिसने खुद को आंदोलन की मुख्य संयोजक इकाई संयुक्त किसान मोर्चा से अलग कर लिया है। किसान मज़दूर संघर्ष समिति के मंच के सामने ट्रॉलियां अधिक संख्या में नहीं हैं। मंच के सामने भी अधिक संख्या में किसान मौजूद नहीं होते। मंच के बगल में एक लंगर है जहां चाय, खिचड़ी और अन्य खाने की व्यवस्था की गई है। इस मंच पर संयुक्त किसान मोर्चा से भिन्न स्थिति देखने को मिलती है। इस मंच से ज्यादा आक्रामक और बेतरतीब भाषा का इस्तेमाल सुनने को मिलता है।
उधर संयुक्त किसान मोर्चा के मंच पर सुबह से शाम तक नेशनल मीडिया या गोदी मीडिया, अडानी-अम्बानी जैसे पूंजीपतियों और तीन काले कानूनों के बारे में बोलते हुए आम किसान, किसान नेता और महिला किसान सुनाई पड़ती हैं।
पंजाब के गांवों से जत्थे में आने वाले किसान कुंडली गांव से यानी मुख्य आंदोलन से दिल्ली की ओर बसे आंदोलन में बगल वाली गली से होते हुए एक बार उसे देखने जरूर जाते हैं। पंजाब के कई किसान नेता मानते हैं कि किसान मज़दूर संघर्ष समिति इसलिए आंदोलन में शामिल है क्योंकि वे भी जानते हैं यदि बिना बिल वापसी के कोई संगठन गांव वापस गया तो गांव उन्हें नकार देंगे।
हरियाणा-दिल्ली की एक और सीमा टीकरी बॉर्डर पर किसान आंदोलन का तीसरा मोर्चा कायम है। टीकरी मेट्रो स्टेशन से दो किलोमीटर आगे जाकर अंग्रेजी के वाई अक्षर के आकार में फैला यह मोर्चा रोहतक बाईपास और बहादुरगढ़ सिटी वाली रोड पर लम्बाई में लगभग पन्द्रह किलोमीटर तक विस्तृत है। टीकरी बॉर्डर मेट्रो स्टेशन पर पुलिस ने नाकेबंदी कर के आंदोलन में जाने का मुख्य रास्ता रोक दिया है।
टीकरी बॉर्डर स्टेशन से बाहर निकलते ही बाईं ओर बदबूदार कूड़े से ढंका एक मैदान दिखता है। मैदान से होते हुए लगभग दो किलोमीटर तक मेहतर, कूड़ा बीनने वालों और रेहड़ी-पटरी पर दुकान लगाने वालों की घनी बस्ती से होते हुए आंदोलन तक पहुंचना होता है।
दिल्ली की इन तीनों सीमाओं पर चल रहे किसान आंदोलन एक दूसरे से संख्या, व्यवस्था, विविधता, राजनीतिक, रणनीतिक और सामाजिक तौर पर भिन्न हैं। ग़ाजीपुर में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट किसानों की तादाद ज्यादा है। यह आंदोलन नोएडा में नेशनल मीडिया के दफ्तरों के करीब होने के नाते मीडिया की नज़र में है। सिंघु और टीकरी में पंजाब और हरियाणा के हजारों सिक्ख-जाट किसान नेशनल मीडिया से दूर आंदोलन कर रहे हैं।
ये किसान सीधा दिल्ली में आंदोलन करने नहीं आ गए। पहले उन्होंने अपने राज्यों हरियाणा और पंजाब में तीन कृषि कानून के खिलाफ लगभग तीन महीने तक आंदोलन किया। वहां खेती किसानी से सीधे और अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लोगों को बताया कि इस कानून से उन्हें क्या नुकसान होगा। उसके बाद इन्होंने दिल्ली का रुख किया।
मीडिया से चौकस
आंदोलन अमूमन इसलिए होते हैं ताकि मीडिया उनकी समस्या को विस्तृत रूप में दिखाए जिससे मौजूदा सरकार पर दबाव बने और समूह या समुदाय को उसकी समस्याओं से निजात मिल सके। इस लिहाज से यह अपने आपमें बिल्कुल अलग किस्म का आंदोलन है जिसे मीडिया की जरूरत नहीं है। आंदोलनस्थल पर प्रवेश करते ही दिल्ली के प्रमुख मीडिया घरानों, एंकरों के पोस्टर लगे मिलते हैं जिसमें उन्हें आंदोलन में प्रवेश करने से मना किया गया है। कुछ पोस्टर, बैनर ऐसे भी लगे हैं जिनमें प्रमुख एंकरों और मीडिया घरानों से आंदोलन कवर करने की अपील की गई है। दोस्त मीडिया और दुश्मन मीडिया की पहचान किसानों के बीच एकदम साफ़ है।
टाटा नगर, झारखंड से आए परमजीत सिंह पूछते हैं, “पत्रकारों की आत्मा क्यों मरी हुई है? आंदोलन तो आपके लिए भी हो रहा है। आप भी तो रोटी खाते हैं? जी न्यूज तो गेंहूँ उगाता नहीं है? पूरे लुधियाना, बिहार के लोग आकर कमाते हैं! हमारी जमीन छिन जाती है तो हम कहां जाकर नौकरी करेंगे?”
रात में पहरा देते बुजुर्ग वीर सिंह के साथ गौरव (बाएं) और राकेश विश्वकर्मा (दायें)
किसान पूरी तरह चौकन्ने हैं। केवल पत्रकारों पर ही नहीं, आंदोलन में आने वाले हर बाहरी पर वे नज़र रख रहे हैं। मीडिया को लेकर हालांकि किसानों में खास तरह का भय देखने को मिलता है। संयुक्त किसान मोर्चा ने बाहरी असामाजिक तत्वों और ‘गोदी’ मीडिया से आंदोलन को बचाने के लिए किसानों के बीच से ही कई युवाओं को काम पर लगा रखा है। इन्हीं में एक हैं राकेश विश्वकर्मा। ऐसे नौजवान जो आंदोलन में निगरानी का काम कर रहे हैं उनकी तादाद काफी ज्यादा है।
सभी गांवों की ट्रॉलियों से दो से तीन लोग निगरानी के लिए लगाए गए हैं। वे हर बाहरी पर तेज़ नज़र रख रहे हैं। रात में नौजवान, बच्चे और बूढ़े लाठी लिए आंदोलन के बाहर टहलते हुए, पुकार लगाते हुए ऐसे रखवाली कर रहे हैं जैसे वे अपने खेत-खलिहानों की रखवाली करते हैं। ऐसे ही एक बुजुर्ग पचहत्तर वर्षीय वीर सिंह मिले, जो बीते 86 दिनों से सिंघु बॉर्डर पर पहरा दे रहे थे। सिंह ने कहा, “बिना फतह किए हम यहां से जाने वाले नहीं हैं।”
किसान आंदोलन में आम किसान से लेकर संगठनों से जुड़े किसान किन्हीं विषयों पर सबसे अधिक बात कर रहे हैं तो वह नेशनल मीडिया, सरकार और तीन कृषि कानून हैं। मीडिया को लेकर किसानों में समझ साफ है कि यदि ‘गोदी मीडिया’ को आंदोलन से बाहर रखा गया तो आंदोलन को लम्बे समय तक चलाया जा सकता है।
सिंघु बॉर्डर से लेकर टीकरी तक आए दिन बाहरियों के साथ कुछ संदिग्ध मीडिया रिपोर्टरों को पकड़ा जाता है जो आंदोलन को बदनाम करने के उद्देश्य से खाली स्थानों, खाली मंच और दोपहर में बंद लंगरों का वीडियो बनाते, फोटो लेते हैं। साफ नज़र आता है कि किसान जितना आंदोलन से नहीं थके हैं उससे ज्यादा सरकारी एजेंटों और सरकारी मीडिया से आंदोलन को बचाते हुए आजिज आ चुके हैं।
किसान आंदोलन में शुरू से ही शामिल पटियाला से भारतीय किसान यूनियन, राजेवाल के ब्लॉक अध्यक्ष हजूरा सिंह की बातों से हम आंदोलन में नेशनल मीडिया के महत्व को समझ सकते हैं। क्या आपको मीडिया की जरूरत नहीं? इस सवाल पर वे कहते हैं:
भारत ही नहीं, पूरी दुनिया की इस आंदोलन पर नज़र है। सोशल मीडिया के माध्यम से इस आंदोलन की बात देश-दुनिया के कोने-कोने में जा रही है। नेशनल मीडिया के लोग आए दिन इस आंदोलन को साजिश और आंदोलनकारी किसानों को आतंकवादी, खालिस्तानी, पाकिस्तानी, देशद्रोही बताते हैं। उन्हें कैसे आंदोलन में घुसने दिया जा सकता है?
सूरा सो पहचानिए जो लड़े…
आंदोलन शुरू से ही घोषित रूप से अहिंसक रास्ते पर चल रहा है लेकिन आंदोलन में महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, अबुल कलाम आज़ाद जैसे राष्ट्रनिर्माताओं की तस्वीरें लाख खोजने पर भी नज़र नहीं आती हैं। वहीं भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव और चौधरी चरण सिंह की तस्वीरें प्रमुखता से हर दूसरे-तीसरे पंडाल, सभी मंचों और ट्रॉलियों पर नज़र आ जाती हैं।
हां, इनके बीच यदा कदा आंबेडकर भी दिख जाते हैं। इससे इस बात का भी अनुमान लगाया जा सकता है कि हरियाणा और पंजाब की अवाम के बीच गांधी के बरक्स भगत सिंह की स्वीकार्यता किसी हद तक अधिक है। अवाम का भगत सिंह से खासा भावनात्मक जुड़ाव देखने को मिलता है।
हरियाणा के किसान जहां चौधरी चरण सिंह की बात करते हैं वहीं पंजाब के किसान देश के इतिहास में अपने पूर्वजों का योगदान बताने से पीछे नहीं हटते। पंजाब के किसानों में एक चीज सामान्य तौर पर देखी जा सकती है कि वे अपने सेना नायकों के साथ आंदोलन में आये हैं। ऐसा लगता है कि वे आंदोलन को आंदोलन नहीं, बल्कि जंग समझकर दिल्ली तक आये हैं।
हम यह बात पंजाब के पटियाला से आंदोलनकारी सेना से रिटायर्ड जवान सेवा सिंह (65) की बातों से साफ तौर से समझ सकते हैं। वे कहते हैं, “एफसीआई के लेबर और कर्मचारी, चावल रैसमिलर, आढ़ती (28 हजार) उतने ही मुनीम और मजदूर, बेरोजगार हो जाएंगे। रोड पे आ जाएंगे। सेलो पर सब मशीन और कम्प्यूटर से होगा। वे क़्वालिटी लेंगे और किसान मरेगा। किसान की हालत बद से बदतर हो जाएगी। पेमेंट नहीं होगा तो हम किसान कोर्ट भी नहीं जा सकते हैं।”
सेवा सिंह कहते हैं, “यूपी, बिहार में किसानों को मालिक से मजदूर बना दिया। यहां के लोग हमारे पास आते हैं। एमएसपी हमारी जान है। हम आर्मी से हैं। हम अगर सीमा पर लड़ सकते हैं तो यहां भी लड़ सकते हैं। पीछे हटने का सवाल ही नहीं पैदा होता है। हमने आज तक कोई जंग हारी नहीं है। यह शेरों की कौम है।”
सेवा सिंह की तरह ही आंदोलन में बैठे हजारों किसान गुरुनानक, तेगबहादुर और गुरुगोविंद सरीखे संतों, गुरुओं और शूरवीरों को याद करते हुए यह बताते हैं कि सरदारों की कौम कभी हारना नहीं सीखी है।
जब तक तोड़ेंगे नहीं तब तक…
आंदोलन के पहले दिन से ही एक नारा सुनाई पड़ रहा है- ‘जब तक बिल वापसी नहीं, तब तक घर वापसी नहीं’। अब यह नारा आंदोलनकारी किसानों के भीतर एक विश्वास और प्रण के रूप में बैठ चुका है। हर एक की जुबान से यह नारा स्वतः ही निकल रहा है। शायद किसान इस नारे को इतनी बार सुन चुके हैं और दोहरा चुके हैं कि इसी से शक्ति प्राप्त कर रहे हैं और अपनी प्रतिबद्धता को दिखा रहे हैं।
किसान जरनैल सिंह कहते हैं कि “हम जाएंगे तभी जब कानून वापस हो जाएगा। जब तक मोदी उतरेगा नहीं तब तक नहीं जाएंगे। 2024 का चुनाव यहीं से होगा। पंजाब खत्म हो गया, सब खत्म हो जाएगा।” अगर आपके नेता कानून में बदलाव पर सहमत हो गए तो? इस सवाल पर गुरमिंदर सिंह (65) कहते हैं कि “नेता जाना चाहें तो चले जाएं हम नहीं जाएंगे। हमारे नेता सुलझे हुए हैं। हम सब कानून बदलवा कर ही एक साथ गांव वापस जाएंगे।”
आने वाली औलादों के लिए…
आंदोलन में किसान मज़दूर एकता का नारा प्रमुखता से लगाया जा रहा है। किसान बताते हैं कि इस आंदोलन में खुर्पी, हँसिया, फावड़ा, कटार और ट्रैक्टर बनाने वाले, मण्डी के आढ़ती और मज़दूर बड़ी संख्या में शामिल हैं। कुछ ट्रैक्टर मेकैनिक, मज़दूरों से आंदोलन में मुलाकात जरूर हुई, लेकिन उनकी संख्या किसानों की अपेक्षा कम है। नगण्य है। इसका तर्क किसान देते हैं कि यदि बड़ी संख्या में मज़दूर भी चले आये तो गांव में खेती बर्बाद हो जाएगी।
पटियाला से आयी महिलाओं के एक समूह से मैंने बात की। उनका मानना था यह सिर्फ हमारी लड़ाई नहीं बल्कि आने वाली संतानों की लड़ाई है। वे कहती हैं, “चाहे चार साल लग जाए नहीं जाएंगे। मरे जियें परवाह नहीं। मोदी को क्या जरूरत थी यह कानून लाने की? गांव-गांव में जो विरोध था आपस में अब वह भी खत्म हो गया है। सब साथ आ गए हैं। मोदी जी कब तक कानून वापस लेंगे ऊपर वाला जाने। लेकिन यह लड़ाई अगर हम नहीं लड़े तो कल हमारे बच्चों को लड़ना पड़ेगा।”
हरियाणा के लंगर में काम कर रहे रमेश कहते हैं, “किसी को रोड पर बैठना ठीक लगता है क्या? काम छोड़कर हम यहां बैठे हैं। खेत, घर, रिश्तेदारी में काम है लेकिन हम महीनों से यहां बैठे हैं।”
यह आंदोलन नागरिकता कानून विरोधी आंदोलन से किन्हीं मामलों से मिलता-जुलता है तो उससे भिन्न भी है। नागरिकता कानून भी लोगों के घर, परिवार, देश, माटी और उनकी आने वाली औलादों से जुड़ा था। तीन कृषि कानून भी आने वाली औलादों की खेती किसानी से जुड़े हैं। जहां नागरिकता कानून के खिलाफ देशभर में शाहीन बाग खड़े हो गए थे वहीं तीन कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों ने दिल्ली के बाहर स्थायी शहर बसा लिए हैं।
नेतृत्व से बड़ा आंदोलन
सरकार और उसके समर्थक यह समझने की भूल कर रहे हैं कि ये किसान सरकार के राजनीतिक विरोधी हैं और किसी राजनीतिक पार्टी या संगठन के अपील पर दिल्ली तक चले आये हैं। यह सबसे बड़ा झूठ और भ्रम है। किसान आंदोलन में घूमकर मैंने पाया कि आंदोलन में आम किसान हैं जो लाल झंडे के तले तो आये हैं लेकिन लाल झंडा किस दल का है उन्हें नहीं पता। यह एक दो किसानों की बात नहीं बल्कि आंदोलन में बैठे किसानों के बीच बिल्कुल आम बात है।
दूसरा यह कि यदि मौजूदा सरकार, जिसकी छवि एक आक्रामक सरकार की रही है यदि किसान आंदोलन को भी आक्रामकता से हिंसा के रास्ते खत्म करना चाहती है या खत्म करने की सोच रही है तो यह सरकार की सबसे बड़ी गलती साबित हो सकता है। सिंघु और टीकरी बॉर्डर पर किसान आंदोलन घनी बस्तियों के बीच से गुजने वाले हाइवे पर हो रहा है। यदि सरकार हिंसा का रास्ता अख्तियार करती है तो आगे किसानों की भारी संख्या को उग्र होने से कोई रोक नहीं सकता है, जिसका परिणाम कुछ भी हो सकता है।
वहीं आस-पास के मुहल्लों में रहने वालों में किसानों को लेकर कोई खास नाराजगी भी नज़र नहीं आती। ग़ाज़ीपुर और सिंघु बॉर्डर के आंदोलन में आस-पास की बस्तियों के हजारों कूड़ा बीनने वाले, कामगार, ऑटो ड्राइवर, रिक्शा चालक दो जून का लंगर चख रहे हैं।
यह किसान आंदोलन अब किसान नेताओं या किसी विपक्षी दल से कहीं आगे निकल चुका है। किसान नेता एक-एक सप्ताह आंदोलन में नहीं पहुंच पाते हैं, लेकिन आन्दोलन अपनी गति से चलता रहता है। किसान नेताओं का किसानों पर दबाव होने के बजाय अब किसानों का दबाव किसान नेताओं पर कायम हो चुका है। किसानों के बीच अब यह आम सहमति बन चुकी है कि वे कानून बिना वापस कराए आंदोलन से उठने वाले नहीं हैं। सरकार के खिलाफ अविश्वास की लकीर भी मोटी होती जा रही है। यह खाई आने वाले दिनों में सरकार पाट पाएगी, इसकी उम्मीद न के बराबर है।
गौरव गुलमोहर इलाहाबाद स्थित स्वतंत्र पत्रकार हैं। उन्होंने फरवरी के तीसरे सप्ताह में सात दिन अलग-अलग मोर्चों पर किसानों के बीच प्रवास कर के अनुभव लिया और कई स्टोरी लिखीं। यह कहानी उनके अनुभवों और नोट्स का संकलन है।
साभार : जनपथ