भूअर्जन अध्यादेश और कॉरपोरेट राज के खिलाफ संसद मार्च : 24 फ़रवरी 2015
24 फ़रवरी 2015
स्थान: जंतर मंतर, नयी दिल्ली।
साथियों,
हम आप सभी से अनुरोध करते हैं कि आगामी 24 फ़रवरी को संसद भवन/जन्तर मंतर पर इस अधायादेश के विरोध में देश की तानाशाही सरकार पर दबाव बनाने के लिए भारी संख्या में आयें और इस सरकार को यह सन्देश दें कि देश के किसान, मजदूर और तमाम मेहनतकाश वर्ग अभी गूंगा बहरा नहीं हुआ है, वह ज़्यादा जागरूक और अपने हको को लेकर, देश के समुचित विकास और एक न्यायपूर्ण व्यवस्था बनाने को लेकर सरकार से कहीं ज्यादा प्रतिबद्ध है.
साथियों,
जैसा की आप जानते हैं भूमि अधिग्रहण को आसान बनाने के लिए राजग सरकार ने पिछली साल अमल में आये कानून में संशोधन करके एक अध्यादेश पारित किया है. इस अध्यादेश को लाकर सरकार ने अपनी दो मंशाएं स्पष्ट की हैं-
- इस सरकार को संसदीय प्रक्रिया और मर्यादा की परवाह नहीं है.
- देश के तथाकथित आर्थिक विकास के लिए किसानों से ज़मीनें छीनकर उन्हें देशी-विदेशी कार्पोरेट्स को देना है.
साथियों, देश के तमाम जन आन्दोलन आजादी के बाद से ही भूमि के समान वितरण, ज़मींदारी उन्मूलन, काश्तकारों को ज़मीन देने और बड़े पैमाने पर भूमि-सुधार के लिए सरकार के साथ संघर्ष में रहे हैं. अंग्रेजों द्वारा बनाए गए 1894 के भूमि-अधिग्रहण कानून का विरोध समाज में इस मुद्दे पर रहा है कि यह किसानों और भूमि-मालिकों को यह हक नहीं देता कि वो अपनी ज़मीनें सरकार को देना चाहें या नहीं. इस कानून की मूल भावना में ‘राज्य की प्रभुसत्ता’ का सिद्धांत था जिसके अनुसार देश की समस्त प्राकृतिक संपदा अन्तत: राज्य के नियंत्रण में है. हालांकि यहाँ उल्लेखनीय है कि यह औपनिवेशिक कानून फिर भी भू-धारकों के भू-अधिकारों पर केन्द्रित था यानी राज्य ज़मीन तो आपसे लेगा पर इस तरह से कि आपके भूमि-अधिकारों को मान्यता भी मिले. इस कानून में समय समय पर संशोधन होते रहे और 1984 में इसे निजी कंपनियों के लिए भी लागू कर दिया गया. इसका ज़बरदस्त विरोध भी हुआ.
इसके बाद जब बड़े पैमाने पर परियोजनाओं से विस्थापित होने वाली आबादी को सरकार ने उनके हाल पर छोड़ दिया तब जनांदोलनों के दबाव में पुनर्वास और पुनर्स्थापन की तरफ ध्यान देना पड़ा. साथियो यह जनांदोलनों का दबाव ही था कि 2007 से भूमि अधिग्रहण के लिए नए कानून बनाने की कवायद शुरू हुई और तमाम मसौदे पेश किये गए. संप्रग सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में इस कानून में पुनर्वास और पुनर्स्थापन के प्रावधान भी जोड़े लेकिन इसे भी कानून की शक्ल नहीं दी जा सकी. इसके बाद संप्रग सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में इस नए भूमि-अधिग्रहण कानून को लाने की प्रक्रिया शुरू की. इस कानून के मूल मसौदे में जन आन्दोलनों के प्रभावी हस्तेक्षेपों के कारण सरकार की मंशा पूरी तरह से चल नहीं पाई. और अंतत:2013 में ‘भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता कानून’ आया उसमें नीयत ज़रूर पूंजीवादी वयवस्था की ज़रूरतों की पूर्ति की रही पर प्रक्रियाओं में यह कानून कुछ हद तक जनतांत्रिक था.
हम जानते हैं इस कानून बनने की प्रक्रिया में देश के समस्त जन आन्दोलनों ने संघर्ष की लंबी श्रृखला चलाई. ऐसा नहीं है कि यह कानून जन आकांक्षाओं और विशेष रूप से किसानों और मजदूरों के हक में था पर फिर भी इसमें तमाम ऐसे प्रावधान थे जिनसे किसानों और मजदूरों के हितों को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता था. विशेष रूप से ज़मीन धारकों की सहमति का प्रावधान, सामाजिक प्रभाव आंकलन, भूमि-अधिग्रहण के बाद परियोजना शुरू होने की निश्चित समयावधि, पुनर्वास और पुनर्स्थापन के स्पष्ट प्रावधान बगैरह. यह कानून जनवरी 2013 में लागू हुआ और इसी के साथ 1894 के औपनिवेशिक कानून को खारिज कर दिया गया. गौरतलब है कि इस कानून के माध्यम से किसी एक परियोजना के लिए ज़मीन लेने का एक भी प्रयोग नहीं हुआ और राजग सरकार ने अपने आठ महीनों के अल्प कार्यकाल के दौरान ही इसमें संशोधन करते हुए एक ऐसा अध्यादेश लागू कर दिया है जो इस कानून में संशोधन की तरह नही बल्कि इसे पूरी तरह रद्द करने जैसा है.
हम जानते हैं कि इस कानून के आने पर भी औद्योगिक जगत ने इसका विरोध किया था. इस सरकार ने केवल और केवल औद्योगिक जगत को ध्यान में रखकर यह संशोधन किये हैं. जिन महत्वपूर्ण और जनतांत्रिक प्रक्रियाओं का पालन करने के प्रावधान इस कानून में थे उन्हें पूरी तरह खारिज करते हुए इसे वापिस उसी औपनिवेशिक कानून से भी खतरनाक बना दिया गया है. हम जानते हैं कि यह किसके दबाव में हो रहा है. ‘मेक इन इण्डिया’ का नारा देने वाले हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री बाहरी निवेश को बढ़ावा देने और देशी पूंजीपतियों की तिजोरियां भरने के लिए यह कहते हुए नहीं थकते कि हमारे देश में आपको सस्ता श्रम, सस्ती ज़मीन तो मिलेगी ही, हम ऐसे कानून भी बनाएंगे जो किसी भी प्रकार से आपके निवेश और मुनाफे के रास्ते में रोड़ा नहीं बनेंगें. इस कानून में अध्यादेश के ज़रिये किये जा रहे रद्दोबदल प्रधानमंत्री की उसी घोषणा की परिणति है जो उन्होंने अमेरिका में बस गए हमारे देशी पूंजीपतियों के समक्ष अपने ‘शो’ में कहे थे कि उन्हें हर रोज देश के एक कानून को खत्म करने में आनंद की अनुभूति होगी.
इस अध्यादेश के जरिये वो लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के लिए बची-खुची गुंजाइश को भी पूरी तरह खत्म कर देना चाहते हैं. इस अध्यादेश के मार्फ़त वो तमाम बड़ी परियोजनाओं के लिए भूमि-अधिग्रहण को न केवल सरल बना देना चाहते हैं बल्कि बड़ी चालाकी से निजी कंपनियों को मनचाही ज़मीन देने के लिए रास्ता खोल देना चाहते हैं और इसलिए इस अधायादेश में औद्योगिक गलियारे, विशेष आर्थिक क्षेत्रों जैसी विनाशकारी परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण को आसान बनाया गया है. जन आंदोलन पहले भी इस तरह की बड़ी बड़ी परियोजनाओं का पुरजोर विरोध करते रहे हैं और बहुत मामलों में किसानों और मजदूरों ने अपनी आजीविका के साधन बचा पाए हैं. अगर इस अध्यादेश को संसद के अंदर हरी झंडी मिल जाती है तो फिर जन आन्दोलनों के लिए लड़ाई के अवसर भी नहीं बचेंगे और मजदूर- किसान अपनी आजीविका के साधनों से बेदखल कर दिए जायेंगे. हम कई लड़ाइयां जीते क्योंकि कानून हमारे पक्ष में थे पर इस अध्यादेश के लागू होने से कानून का सहारा हमें मिलने वाला नहीं है.
इस अध्यादेश में सामाजिक प्रभाव आंकलन, अधिग्रहीत ज़मीन का नियत सीमा में उपयोग, 70 प्रतिशत भू-धारकों की सहमति, ग्राम सभा की भूमिका जैसे प्रावधान खत्म करते हुए सरकार ने न केवल देश के भू-धारकों से उनकी ज़मीन छीनने का षडयंत्र रचा है बल्कि इसे एकतरफा फरमान की तरह बनाकर संविधान प्रदत्त हमारे न्यूनतम नागरिक अधिकारों का भी बलात हनन किया है.
साथियों, इस सरकार ने जिस तेज़ी से अध्यादेशों को पारित किया है, वह चाहे कोयले के निजीकरण का हो, बीमा व रक्षा क्षेत्र में एफडीआई हो उससे पूरे भारतीय समाज में हलचल मची है और लोगों का भ्रम जल्द ही इस सरकार से टूट गया है, इस तरह से अध्यादेश लाना बताता है कि पूरी सरकार किस कदर घबराहट में कदम उठा रही है, उसमें इतना सहस नहीं है कि लोगों का विश्वास जीत पाए, संसद का भरोसा जीत पाए. यह इन अध्यादेशों के ऊपर जागरूक जन आन्दोलनों का दबाव ही है कि भारत के राष्ट्रपति को एक बार नहीं बल्कि दो- दो बार सरकार से यह पूछना पड़ा कि इस तरह अध्यादेश लाने की हड़बड़ी क्यों है?
यह सरकार बहुत कम समय में अपनी वैधता खो चुकी है लेकिन संसदीय लोकतंत्र की सीमाओं को समझते हुए हम यह भी जानते हैं कि अगले पांच साल तक इसे शासन में रहना है और यह इसलिए भी खतरनाक है कि इसके मंसूबे हमें पूरी तरह पता हैं. अगले पांच साल काफी हैं देश में एक तानाशाही व्यवस्था कायम करने के लिए. इस सरकार का सपना है कि समूल प्राकृतिक संपदा जितने जल्दी हो सके पूंजीपतियों के हवाले कर दी जाए. इसके अलावा जिस तरह से यह सरकार लम्पट तत्वों को बढ़ावा दे रही है वो इनकी सिविल फ़ोर्स बनाने की तैयारी है जिसे ऐसे अवसरों पर समाज के अंदर बैमनस्य बढ़ाने, और शांतिमय, लोकतांत्रिक आन्दोलनों का दमन करने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा. इसलिए संघर्ष अब दो तरफ़ा है. जहां एक तरफ हमें सरकार के इन तानाशाही अध्यादेशों से लड़ना है वहीं दूसरी तरफ हमें समाज के उन लम्पट तत्वों से भी लड़ना होगा.
ऐसी परिस्थितयों में हम समझते हैं कि सरकार ने पुन: ज़मीन के मुद्दे को देश की राजनीति के केंद्र में ला दिया है और इतिहास के पन्नों को दुबारा खोला है. इसे हमें एक अवसर की तरह देखना चाहिए. अगर सरकार ज़मीन अधिग्रहण करने के लिए एक तरफ़ा कानून ला रही है तो हमें भी अपनी वर्षों पुरानी न्यायपूर्ण, तार्किक और जन पक्षीय मांगों को समाज में स्थापित करने के प्रयास करने चाहिए. ऐसे में 23-24 जनवरी को नई दिल्ली में विभिन्न जन आन्दोलनों ने संयुक्त रूप से दो दिवसीय राष्ट्रीय अधिवेशन किया था. इसमें यह प्रस्ताव आया था कि अब समय आ गया है जब सामाजिक जन आंदोलनों और मुख्य धारा के राजनैतिक दलों को एक साथ आकर इस अध्यादेश का कड़ा विरोध करना चाहिए. इसी क्रम में यह तय हुआ है कि देश के तमाम जन आंदोलन और वाम पंथी, समाजवादी किसान आंदोलन और मजदूर संघ संयुक्त रूप से 24 फरवरी को संसद का घेराव करेंगें. यह समय है जब संसद के अंदर बजट सत्र चल रहा होगा और इसी दौरान यह सरकार इस अध्यादेश को संसद में पारित करवाने की कोशिश करेगी.
इस समय सामाजिक आन्दोलनों और राजनैतिक दलों का एक साथ आकार दबाव बनाना एक कारगर रणनीति हो सकती है. इसके अलावा हमें लड़ाइयों के कई केंद्र बनाने होंगे. इस अध्यादेश का विरोध जिला स्तर भी हो और अपने निर्वाचन क्षेत्र के सांसद पर भी संसद के अंदर इस कानून का विरोध करने का दबाव बनाया जाए.
तो साथियों, हम आप सभी से अनुरोध करते हैं कि आगामी 24 तारीख को संसद भवन/जन्तर मंतर पर इस अधायादेश के विरोध में देश की तानान्शाही सरकार पर दबाव बनाने के लिए भारी संख्या में आयें और इस सरकार को यह सन्देश दें कि देश के किसान, मजदूर और तमाम मेहनतकाश वर्ग अभी गूंगा बहरा नहीं हुआ है, वह ज़्यादा जागरूक और अपने हको को लेकर, देश के समुचित विकास और एक न्यायपूर्ण व्यवस्था बनाने को लेकर सरकार से कहीं ज्यादा प्रतिबद्ध है.
इस अध्यादेश को हम पारित नहीं होने देंगे.
जन आन्दोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम), अखिल भारतीय वन श्रम जीवी मंच, जन संघर्ष समन्वय समिति, छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन, इन्साफ, दिली समर्थक समूह.