भोपाल गैस त्रासदी की 29वीं बरसी: जन प्रतिरोध बनाम कारपोरेट दमन
आज 3 दिसम्बर को भोपाल गैस त्रासदी को 29 साल हो रहे हैं. 3 दिसम्बर 1984 भारतीय इतिहास का बहुत ही दुखद दिन है – जब भोपाल दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिकीय त्रासदी का साक्षी बना जिसमें तक़रीबन 20,000 लोगों की मौत हुई और हजारों लोग घायल हुए. इस खतरनाक गैस के लीक होने से करीब पांच लाख से ज्यादा की आबादी प्रभावित हुई और इस घटना के कारण अट्ठाईस साल बाद भी भोपाल में हर दिन एक मौत हो रही है. इस हादसे के लिए दोषी यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन कम्पनी का 2001 में डाउ केमिकल द्वारा अधिग्रहण कर लिया गया, लेकिन डाउ केमिकल ने भोपाल गैस पीडितों को किसी भी तरह का मुआवजा देने की जिम्मेदारी से इंकार कर दिया है. जैसा कि स्टूडेंट फॉर भोपाल की बेबसाईट में दिया गया है : डाउ केमिकल लगातार भोपाल गैस त्रासदी के लिए जबावदेह बनने से इंकार करता रहा है. इसके अलावा, डाउ ने अमेरिका में ऐसे ही त्रासदी से ग्रसित लोगों के लिए तत्काल समुचित कार्यवाही की और भोपाल गैस पीडितों के लिए डाउ के जनसम्पर्क अधिकारी ने कहा कि “500 यूएस डॉलर भारतीयों के लिए पर्याप्त हैं”.
(काथी हंट, 2002)
भोपाल गैस पीडितों के लिए समुचित मुआवजे के लिए सालों से संघर्ष चल रहा है, साथ ही लंबे समय से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी डाउ केमिकल पर इस हादसे की पूरी जिम्मेदारी लेने के लिए दबाव बनाने के प्रयास चल रहे हैं, हम आज भी इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों (एमएनसी) के द्वारा ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाने के लिए लोगों के हितों की वृहद स्तर पर अनदेखी करने वाले अमानवीय दुष्कृत्यों के गवाह हैं. भोपाल में जो हादसा हुआ वह किसी एक कार्पोरेशन द्वारा अपने कुकृत्यों के लिए जिम्मेदारी लेने से इंकार करने का कोई एक मामला है. वैश्विक जगत में नवउदारवाद के नाम पर जन आंदोलनों को कुचलकर, प्राकृतिक संसाधनों जैसे भूमि, पानी, खनिज, जंगल, तेल आदि पर कब्जा करके कारपोरेट शक्तियों के उदय में यह सब दिखाई दे रहा है और दुनिया भर की सरकारों को इसमें शामिल कर कुछ अमीरों के हाथ में सत्ता केंद्रित करने का प्रयास किया जा रहा है.
बहुराष्ट्रीय कम्पनियां समय के साथ इतनी अधिक ताकतवर हो गयीं हैं कि उनकी वार्षिक आय कई देशों के उत्पाद से भी ज्यादा है और सरकार के साथ उनकी सांठगांठ अब उन्हें उस देश के नागरिकों के हितों की बजाय इन कारपोरेट के हितों के मुताबिक राज्य के मुद्दों और नीतियों को बनाने में अपनी दखल देने लगे हैं. हम दो मामलों में यह अच्छी तरह देख सकते हैं कि किस तरह भारतीय सरकार ने पिछले दो दशक में सार्वजनिक क्षेत्र के उपकरणों (पीएसयूस) से अपना निवेश निकाल कर मूलभूत सुविधाओं जैसे बिजली, पानी, स्वास्थ्य आदि का निजीकरण किया है. कार्पोरेशन यह भ्रान्ति फ़ैलाने में माहिर हैं कि वे जनहित में बेहतर काम करते है, लोगों की जरुरत के मुताबिक उन्हें चीजें और सुविधाएँ उपलब्ध कराते हैं, अधिक क्षमता के साथ उनका ऑपरेशन कर सकते है, रोजगार के अवसर पैदा करते हैं और अर्थव्यवस्था में जीडीपी को जोड़ते हैं और समाज को चलाने के लिए कार्पोरेशन के अलावा दूसरा कोई विकल्प मौजूद ही नहीं है. मुख्यधारा के मीडिया की मालकियत से यह बात और पुख्ता होती है और उनकी बड़ी बड़ी जेबें यह सुनिश्चित करती हैं कि सरकारें उन्हें हर तरह का सहयोग देंगीं जिसमे उस देश की सेना और पुलिस भी शामिल होगी जो कार्पोरेट्स के अबाधित व्यवसाय को बनाये रखने में सहयोग देंगे.
जो लोग अपनी जमीन और आजीविका बचाने के लिए इन कार्पोरेशन के विरोध में आवाज उठाने वाले देश भर के हजारों लोगों के जन-आंदोलनों को अकसर राज्य और मीडिया द्वारा नजरअंदाज कर दिया जाता है और उन्हें आधुनिक भारत के विकास के विरोधी के रूप में देखा जाता है. भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए ‘बिजिनेस- फ्रेंडली’ माहौल बनाने के नाम पर आदिवासियों, किसानों, फैक्टरी कर्मचारियों, शहरी बस्तियों में रहने वाले लोगों के संघर्षों के विरुद्ध कार्पोरेशन के द्वारा किये जा रहे कुकृत्यों को दबा दिया जाता है जबकि हरेक वर्ग के ऊपर और आने वाली पीढिओं पर भी पड़ता है.
कारपोरेट जबावदेही के दिखावे के बावजूद भोपाल गैस त्रासदी के मामले में डाउ केमिकल बुरी तरह पीड़ितों को मुआवजा देने से इंकार कर रहा है, ताकि अपने शेयरधारकों को अधिक से अधिक लाभ देना जारी रख सके. कार्पोरेशन के लिए ‘जवाबदेही’ शब्द एक गाली की तरह है, न वे उस समुदाय के प्रति खुद को जवाबदेह मानते हैं जहाँ वे काम कर रहे हैं और न ही राज्य के प्रति. कार्पोरेशन अपनी जवाबदेही को अपने शेयरधारकों को बेच देता है, जिन्हें कार्पोरेशन के चलाने से पैदा होने वाली बाहरी परेशानियों से कोई मतलब नहीं होता और ज्यादा से ज्यादा मुनाफ़ा पाने के लिए कार्पोरेशन में अपना निवेश ज्यादा करते हैं. लोगों, समुदायों और पर्यावरण के प्रति बड़ी जिम्मेदारी को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया जाता है, और कार्पोरेशन के हाथ ‘टिकाऊ विकास’ (sustainable development) शब्द के नाम पर जन सम्पर्क का एक ऐसा उपकरण हाथ लग गया है जिसके आधार पर यह दावा करते हैं कि वे लोगो और समुदाय के लिए लंबे समय के स्थायित्व के लिए बहुत अधिक चिंतित हैं.भारत के संदर्भ में,कार्पोरेशन द्वारा पर्यावरणीय नियमों की गम्भीर रूप से अनदेखी किये जाने के साथ ही मानव अधिकारों और श्रमिकों के अधिकारों के हनन के बहुत से उदाहरण हम सुनते हैं.
वर्तमान समय में, “कारपोरेट सामाजिक दायित्व” के नाम पर कार्पोरेट्स बहुत सारा पैसा निकाल रहे हैं. जिसकी बहुत से जन आंदोलनों द्वारा कड़ी आलोचना की जा रही है , क्योंकि इससे कार्पोरेशन को उनके कामों से उत्पन्न नकारात्मक प्रतिक्रियाओं से बच निकलने का आसान उपाय मिल जाता है. कार्पोरेट्स लोगों के बीच अपनी झूठी तस्वीर को बनाते हैं कि उन्हें ही गरीबों के सामाजिक कल्याण की बहुत फिक्र है. यदि कारपोरेशन सचमुच सामाजिक कल्याण के लिए फिक्रमंद हैं तो उन्हें अपनी शक्तियों का इस्तेमाल जन प्रतिरोधों के विरुद्ध नहीं , बल्कि उन मुद्दों के लिए करना चाहिए जो इंगित किये जाएँ और यह सुनिश्चित करना चाहिए पर्यावरण और लोगों की कीमत पर उनके काम नहीं होना चाहिए. हालाँकि कुछ लोगों का कहना है कि राज्य द्वारा बनाये नियमों के मुताबिक चलाए जाते हैं अतः सरकारों का यह दायित्व है कि वे कारपोरेटों को राज्य के प्रति जवावदेह बनाये ना कि कारपोरेटों के प्रति. हालाँकि, इस दिशा में राज्य और कार्पोरेशन के बीच गठजोड़ और बड़ी शक्तियों का इस्तेमाल करने वाली बहु-राष्ट्रीय कंपनियों द्वारा इस तरह के तर्कों पर बहुत कम विचार करते हैं, इससे राज्य के लिए यह उम्मीद करना बहुत मुश्किल है कि कार्पोरेशन लोगों के हितों के लिए चलाये जायेंगे.
भोपाल वासियों का यह संघर्ष डाउ केमिकल्स के विरुद्ध या दूसरे आंदोलन जैसे नियमगिरी के आदिवासियों का वेदांता के खिलाफ संघर्ष, प्लाचीमाडा गाँव के लोगों का कोका-कोला के खिलाफ, जगतसिंहपुर के गांववालों का पोस्को के खिलाफ संघर्ष, मारुती सुजुकी के खिलाफ फैक्ट्री कर्मचारियों का, मानसेंटो के खिलाफ किसानों का संघर्ष आदि एक कॉर्पोरटीकरण सोच एवं सरकार और समाज के कॉर्पोरटीकरण के खिलाफ है. इसलिए वृहत कार्पोरेटी संरचना की गैर जवाबदेह पूर्ण शक्ति से निपटने की हिम्मत की जरुरत है, क्योंकि उनपर निशाना साधने वाले किसी भीं तरह के प्रतिरोध को खत्म करने के लिए वे अपने दवाब और पैसे की ताकत का इस्तेमाल करते हैं. इसके साथ ही किसी एक कारपोरेट को लक्षित करने वाले स्थानीय संघर्ष भी उनकी आर्थिक वृद्धि को कमज़ोर कर पाने में सफल हुए हैं, जरुरत है हम सभी एक साथ इन लाभ के भूखे निगमों (कार्पोरेशंस) के खिलाफ खड़े हों ताकि लोगो की आवाज़ कई दफ़ा गूंजें और जिससे लोगों और पर्यावरण की कीमत पर सरकार इनका पक्ष लेने पर मजबूर हो. जरूरत इस बात की भी है कि हमारे आंदोलन और संघर्षों के आधार पर कॉर्पोरटीकरण का विकल्प ढूँढे ताकि ऐसे भविष्य का सपना साकार हो सके जो कॉर्पोरशंस के प्रभावो से मुक्त हो. इन शक्तिशाली कार्पोरेशंस के अन्याय से पीड़ित लोगों के साथ और भोपाल गैस पीड़ितों के न्याय के संघर्ष के लिए हम जन आंदोलन पूरे साथीभाव के साथ एक हैं.