बस्तर में जारी खूनी जंग और कार्पोरेट लूट के खिलाफ जन सम्मेलन : 3 सितम्बर 2016, गांधी पीस फाउंडेशन , नई दिल्ली
3 सितम्बर 2016
स्थान : गांधी पीस फाउंडेशन , नई दिल्ली
मानव अधिकारों का उल्लंघन भी कई गुना बढ़ चुका है। आदिवासियों के जल जंगल जमीन को ‘विकास’ के नाम पर बड़ी कंपनियों और खनन माफिया के हाथों बेचा जा रहा है और उनके प्रतिरोध की आवाज़ों को कुचलने की पूरी कोशिश में सरकार जुटी हुई है। पिछले एक साल में करीब नब्बे लोग फर्जी मुठभेड़ में मारे जा चुके हैं। इस युद्ध की वास्तविकता स्पष्ट करने के लिए सिर्फ तीन उदहारण काफी हैं-
अगस्त 16 वीं को अर्जुन कश्यप नामक एक 19 साल के युवक को एक फर्जी मुठभेड़ में सीआरपीएफ द्वारा बेरहमी से मार दिया गया। उसे एक खतरनाक ‘माओवादी नेता’ घोषित किया गया। पिछले साल अर्जुन को माओवादी होने के झूठे आरोप में फंसाया गया और गिरफ्तार किया गया था। जब उसके वकीलों ने यह स्थापित किया की में दर्ज किये जाने वाले नाम का युवक वह नहीं है तो उसे बेल मिल गयी थी। उसके केस की कार्यवाही चल रही थी और आखरी कोर्ट की तारीक 30 अगस्त थी। इससे पहले कि उसे रिहाई का मौका मिलता , उसे मार दिया गया।
13 जून को मड़कम हिड़मे नामक एक युवती को सुरक्षा कर्मियों ने दंतेवाड़ा में उसके घर से जंगल तक घसीटा, उसका सामूहिक बलात्कार किया और अंत में मार दिया। बाद में उसे वर्दी पहना कर माओवादी करार दिया गया जब की उनकी कहानी झूठी घटनाओं में उलझी हुई थी।
सीतु हेमला नामक बस्तर के एक आदिवासी ग्रामीण युवक पर सुरक्षा बलों ने घोर अत्याचार कर उसकी गोली मारकर हत्या की। उसका अपराध? उसका नाम एक माओवादी कमांडर के साथ मिलता था। सीतु पालनार के गाँव में खेती करने वाला एक साधारण युवक था। क्या एक तथाकथित लोकतंत्र का कानून ऐसे अत्याचार से लागू किया जा सकता है, जहाँ एक साधारण मनुष्य को कोर्ट से पहले ही माओवादी करार कर उसके मृत शरीर के साथ निशानेबाज़ी का खिलवाड़ किया जाय?
ऑपरेशन ग्रीन हंट का जाल फैला जा रहा है। बस कुछ ही दिन पहले, 8 जुलाई को फिर से, कांधमाल, ओडिशा में, पांच दलित आदिवासी ग्रामीणों पर अंधाधुंध गोली चलाई गयी और उन्हें मारा गया। वे बैंक से अपना वेतन लेकर वापस अपने गांव जा रहे थे। इन लोगों के बीच एक दो साल का बच्चा भी था- उसे भी शायद यह सुरक्षा कर्मी इस देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरा मानते हैं। निश्चित रूप से पुलिस ने फिर इस घटना को एक वास्तविक मुठभेड़ के रंग में रंगने की कोशिश की। लेकिन यह असंभव है कि यात्रियों से भरी एक गाड़ी ऐसे एक मुठभेड़ के बीचों-बीच जाकर अटक जाय। गोलियां सिर्फ एक ही तरफ से चलीं और लोग भी एक ही तरफ के मारे गए। इससे पता चलता है की पुलिस झूठों का बाँध तोड़कर अपने हाथ उसी गंदे पानी से धो लेना चाहती है।
इस युद्ध का कोई साक्षी नहीं । सभी लोकतान्त्रिक आवाज़ों को यहाँ दबा दिया जा रहा है। सोनी सोरी पर लगातार हो रहे हमले इस बात के प्रमाण हैं की प्रतिरोध करने वालों को यहाँ चैन से जीने नहीं दिया जायेगा।
कई स्थानीय पत्रकारों को फ़र्ज़ी मामलों में जेल भेजकर उनकी कस्टडी में पिटाई की जा रही है ताकि सच्ची पत्रकारिता करने का उन्हें दंड मिले। उन्हें लगातार डराया और धमकाया जा रहा है। जगदलपुर कानूनी कार्यवाही समूह नामक वकीलों का एक छोटा सा समूह, माओवादी होने के आरोप में विचाराधीन कैदी होने के दुष्चक्र में फंसे स्थानीय लोगों की कानूनी तौर पे मदद करता था। उन्हें भी राज्य सरकार ने प्रताड़ित कर बस्तर से डरा-धमका कर बाहर निकाल दिया है । अन्य शिक्षकों और मानवाधिकार संगठनों के सदस्यों को भी डराया गया है और इस क्षेत्र में उनकी गतिविधियों को जारी रखने के खिलाफ चेतावनी दी गई है। सत्ता के खिलाफ सच बोलने की कीमत वास्तव में इन युद्धग्रस्त स्थानों में अधिक है।
यह याद किया जाना चाहिए कि यह हिंसा और दमन राज्य के नव-उदारवादी हवस से प्रेरित है। इन सभी क्षेत्रों में जो खनिज संसाधन हैं उन्हें टाटा, मित्तल, रिलायंस, अदानी, एस्सार, रियो-टिंटो जैसी बड़ी कंपनियां हड़पना चाहती हैं । वहां की राज्य सरकार इन आदिवासियों, जिन्होंने अपने खून पसीने से सींच कर इन जंगलों की सदियों से हिफाज़त की है,के साथ बलात्कार कर, उनकी हत्या कर, इन कंपनीयों की सहायता कर रही है।
यही मौका है हम जैसे विशेषाधिकृत लोगों के पास इस देश को दिखाने के लिए कि अनधिमान और चुप्पी के अलावा भी हम इन आदिवासियों की लड़ाई में अपना सहयोग दे सकते हैं। आगामी सम्मेलन में, पत्रकार, वकील, मानव अधिकार कार्यकर्ता और अन्य लोकतांत्रिक अधिकार कार्यकर्ता बस्तर में चल रहे इस राज्य दमन के विरुद्ध और छत्तीसगढ़ के लोगों की लड़ाई में सहयोग देते हुए अपनी बात प्रस्तुत करेंगे। हम इस सम्मेलन में शामिल होने और इस युद्ध के खिलाफ अपने विरोध दर्ज करने के लिए हर संपृक्त नागरिक को आमंत्रित करते हैं।