आदिवासियों का विकास सिर्फ छलावा
देश की आजादी के उपरांत आदिवासियों के साथ पहले कॉंग्रेस ने सौतेला व्यवहार किया अब आदिवासियों के वोट द्वारा बीजेपी सत्ता में आई है लेकिन बीजेपी भी सौतेला व्यवहार कर रहा है । बीजेपी शासित राज्यों में आदिवासियों की दुर्दशा हो रही है । जबरन विस्थापन और जमीन पर कब्जा कर उध्योगपतियो को दिया जा रहा है आदिवासी महिलाओं के साथ अमानवीय व्यवहार किया जा रहा है , बेकसूर आदिवासियों को नक्सल कह कर जेलों में ठूंसा जा रहा है और कहते है की विकास हो रहा है ! बात बिल्कुल आईने की तरफ साफ है की कॉंग्रेस हो या बीजेपी या अन्य राजनीतिक दल उनका आदिवासियों के विकास से कोई लेना देना नहीं है ।
जब केंद्र सरकार भारत के जनजातियों के समूचित विकास के लिये संचित निधि कोष से जनजातियों के लिये Tribal Sub Plan के तहत संचित कोष को खर्च करने की बात कहती है तो जिस जल जंगल और जमीन से आने वाला Revenue प्राप्त होता है उसका मुख्य हकदार तो इस देश आदिवासी ही है ! फिर उनके हक का पैसा उनके विकास में खर्च नहीं करना क्या अन्याय और अपराध नहीं माना जायेगा क्या?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 266 के तहत स्थापित है यह ऐसी निधि है जिस में समस्त राजस्व जमा (जल जंगल और जमीन से प्राप्त आय ), लिये गये ऋण जमा किये जाते है यह भारत की सर्वाधिक बडी निधि है जो कि संसद के अधीन रखी गयी है कोई भी धन इसमे बिना संसद की पूर्व स्वीकृति के निकाला/जमा या भारित नहीं किया जा सकता है अनुच्छेद 266 प्रत्येक राज्य की समेकित निधि का वर्णन भी करता है ।
राष्ट्रपति से लेकर राज्यपाल , प्रधानमंत्री , मुख्यमंत्री , सांसद , विधायक , पार्षद , न्यायपालिका से जुड़े न्यायाधीश , लोक कल्याण से जुड़े विभागो के कर्मचारियों के वेतन की व्यवस्था भी जल जंगल और जमीन से प्राप्त राजस्व (Revenue) से ही पूरा किया जाता है और प्रतेक वर्ष उनके वेतन में वृद्धि भी होती है लेकिन नये भारत में आदिवासियों को क्या मिला ? एक चिंतनीय विषय है ।
राजस्व से प्राप्त धन को खर्च करने का अधिकार संसद को है और संसद को चलाने की जिम्मेवारी राजनीतिक दलों को है । सवाल यह उठता है की जिस धन का खजांची देश को चलाने वाले राजनीतिक पार्टियों को बनाया गया क्या उन्होंने कभी आदिवासियों को केंद्र में रखते हुये बजट बनाये ? शायद नहीं ! देश में बड़े बड़े नेताओं की मूर्तियों को बनाने के लिये अरबो खरबों रुपयों का बजट होता है लेकिन जो जिंदा रहना चाहते है चैन और सुकून से रहना चाहते है उन आदिवासियों के झोली में चंद वायदे ही होते है ।
जंगल आदिवासियों का जमीन आदिवासियों का लेकिन उनके ही जमीन से निकलने वाला सम्पदा (राजस्व) Revenue का हिस्सा उनको नहीं देना क्या यह सौतेलापन नही है ? व्यापारी वर्ग के पास पैसा है और आदिवासियों के पास उनका पैतृक सम्पदा यानी जल जंगल और जमीन लेकिन उनसे प्राप्त राजस्व Revenue का हकदार कोई और ही है । यह तो जबरन लूट नहीं तो और क्या है ? जमीन का मालकियत आदिवासी है तो उनको किराया देना ही होगा यही देश का कानून भी कहता है ।
अब और गंदी राजनीति नहीं चलेगी । अब आदिवासी समुदाय जागृत हो रहा है भारत के विभिन्न राज्य के आदिवासी इन सत्ता के ठेकेदारो से अपने आदिवासी भाई बहनों के साथ हो रहे अन्याय को लेकर राज्य सरकार और केंद्र सरकार से चंद सवालात करेंगे । जवाब नहीं मिला तो आंदोलन होना निश्चित है। कोई भी राज्य भारत के संघीय राज्य का हिस्सा होता है । क्या उन राज्यों में रहने वाले शांत सरल आदिवासियों का संहार के प्रति राज्य सरकार की कोई जिम्मेवार नहीं बनती ? क्या उनके सुरक्षा और संरक्षण की जिम्मेदारी राज्य सरकार की नहीं होती है । देश के हर नागरिक को सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है तो आदिवासियों को सुरक्षा क्यों नहीं ? विकास के नाम पर आदिवासियों का संहार बंद करो ।
साभार : यूथ की आवाज़