हल सत्याग्रह : राजनीति या विवशता
स्वराज अभियान ने किसानों को एकजुट करने का बीड़ा उठाकर अत्यन्त महत्वपूर्ण पहल की है। दिल्ली में एक ही हफ्ते के भीतर किसानों और भूतपूर्व सैनिको पर पुलिस के लाठीचार्ज ने ‘‘जय जवान जय किसान‘‘ के नारे की वास्तविकता (प्रशासन की नजर में) पूरे देश के सामने उधेड़ कर रख दी है। यह देखना होगा कि ‘‘हल सत्याग्रह‘‘ किस तरह किसानों की समस्याओं के ‘हल’ में मददगार सिद्ध होगा। सप्रेस से साभार बाबा मायाराम की रिपोर्ट;
हाल ही में राजधानी दिल्ली में किसानों का अनूठा ‘‘हल सत्याग्रह‘‘ हुआ। इसमें देश भर के छोटे-बड़े सभी वर्ग के किसान साथ आए और अपनी जिंदगी, खेत और गांव को बचाने की लड़ाई का आगाज किया। किसानों ने अपनी मांग, चिंता और पीड़ा को अनूठे अंदाज में व्यक्त किया और वे गीतों, ढोल-मंजीरों और नृत्य के माध्यम से इंद्रधनुषी छटा बिखेरते रहे।
इस दौरान मैं उस छोटे बच्चे को देखता रहा, जो बिहार के रोहतास जिले के सुदूर गांव से अपनी मां के साथ लंबी ट्रेन यात्रा करके आया था। धूप में बैठी मां ने उसकी अंगुली पकड़ रखी थी और वह कौतूहल से भीड़ को देख रहा था। बुजुर्ग चिलचिलाती धूप में मंच की ओर टकटकी लगाए बैठे थे। महिलाएं सिर पर कलश रखकर गीत गाते हुए, गाजे-बाजे के साथ मंच की ओर जा रही थीं। बीच-बीच में जय किसान के नारों से माहौल गरमा रहा था।
बहुत दिनों बाद किसानों का ऐसा अभूतपूर्व समागम दिखाई पड़ा। इसे देखकर मुझे टिकैत के आंदोलन की याद आ गई, जो दिल्ली के बोट क्लब पर हुआ था। हालांकि इस बार भीड़ उतनी नहीं थी लेकिन गुणात्मक रुप से फर्क यह था कि इसमें देश के कोने-कोने से किसान आए थे और सभी तबके के किसान इसमें शामिल थे। खास बात यह रही कि इसमें दलित, आदिवासी, हिन्दू, मुस्लिम और सिख सभी वर्गों के किसान शामिल थे। यह स्वराज अभियान के तहत जय किसान आंदोलन का हिस्सा था।
दिल्ली के जंतर-मंतर पर देश के कोने-कोने से आए किसान अपने खेत की मिट्टी को दस हजार कलशों में भरकर लाए थे जिसमें महात्मा गांधी, जयप्रकाश नारायण, विनोबा भावे, अन्ना हजारे के गांव की मिट्टी भी शामिल थी। कलशों को लाने के पहले खेत से मिट्टी लेने के लिए पूजा-अर्चना भी की गई थी। यह सभी इसी पवित्र मिट्टी से उन किसानों का स्मारक बनाना चाहते हैं जो असमय खुदकुशी कर हमारे बीच से चले गए। सत्याग्रह में महाराष्ट्र के किसानों की विधवाएं भी आई थीं जिनके पति खेती से परेशान होकर जान दे चुके हैं।
सम्मेलन के दौरान किसानों के मान और सम्मान के प्रतीक रूप में एक विशाल हल को अपने कंधों पर 15 अगस्त तक उठाए रखने का संकल्प लिया गया। इस हल को देश के प्रसिद्ध कलाकारों ने डिजाइन किया था। यह भी संकल्प लिया गया कि यह हल या तो रेसकोर्स में रखा जाएगा या फिर आंदोलन करने वाले किसानों के कंधों पर ही रहेगा। किसानों की मांग थी कि दिल्ली रेसकोर्स वाली जमीन, जो कभी किसानों से ली गई थी और जहां अभी घुड़दौड़ पर सट्टा लगाया जाता है, वहां पर किसानों का स्मारक बने।
करीब डेढ़़ क्विंटल वजन के हल को कंधों पर उठाए रखने के लिए बारी- बारी से करीब 10 लोगों की जरुरत होती थी, किसानों ने इसके लिए टोलियां बनाई थीं। जिन किसानों को वापस लौटना था, वे भी वहीं रुक गए। लेकिन कुछ ही समय बाद पुलिस का अमला दल-बल के साथ आया और हल समेत वहां उपस्थित किसानों को गिरफ्तार कर लिया गया। इनमें इस आंदोलन के प्रमुख योगेन्द्र यादव भी शामिल थे। दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के बाद सबको रिहा कर दिया गया।
इसके पहले, योगेन्द्र यादव के नेतृत्व में टेक्टर मार्च का जत्था भी आया जो पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश होता हुआ जंतर-मंतर पहुंचा था। दिल्ली में पुलिस द्वारा इसे रोका गया और देश की राजधानी में कार्यकर्ताओं और किसानों का लाठी चार्ज से स्वागत किया गया। सवाल उठता है कि किसान आत्महत्या क्यों कर रहा है? कई अध्ययनों से उभरकर आया है कि खेती की लागत बढ़ती जा रही है पर उपज नहीं बढ़ रही है। फसल के दाम नहीं बढ़ रहे हैं। कर्ज बढ़ता जा रहा है। ऊपर से कभी बाढ़, कभी सूखा, कभी अनियमित बारिश से फसल बरबाद हो जाती है। फसल का मुआवजा नहीं मिलता। फसल बीमा से भी किसान को बहुत मदद नहीं मिलती। कुल मिलाकर किसान के कंधे पर सरकार का हाथ नहीं है और उसे पूरी तरह बाजार के भरोसे छोड़ दिया है, जो उसका शोषण करता है।
नई भाजपा सरकार से किसानों को बहुत उम्मीदें थीं। भाजपा ने अपने चुनावी घोषणापत्र में वादा किया था कि हर फसल पर किसान की लागत का डेढ़ गुना दाम देंगे, लेकिन सत्ता में आने के बाद वह अपने वादे से मुकर गई है। इसके उलट उसने समर्थन मूल्य भी नहीं बढ़ाया और अनेक राज्य सरकारें जो बोनस दे रही थीं, उस पर रोक लगा दी। यूरिया का आयात घटाकर देश में खाद का संकट पैदा कर दिया गया। अब सरकार भूमि अधिग्रहण बिल के माध्यम से किसानों से जमीन छीनने की कोशिश कर रही है। किसान चाहते हैं कि जमीन हड़पने वाला भूमि अधिग्रहण बिल वापिस लिया जाए। फसल बर्बाद होने पर मुआवजा दिया जाए। किसान परिवार को 15 हजार रुपए प्रतिमाह की आय की गारंटी कानून बने व भूमिहीनों परिवारों को दो एकड़ जमीन दी जाए।
सवाल है कि खेती और गांव को बचाना क्यों जरुरी है? एक तर्क दिया जाता है कि अगर खेती घाटे का धंधा है तो किसान खेती छोड़ क्यों नहीं देते? गांव में रोजगार नहीं है तो शहरों में क्यों नहीं बस जाते। परंतु खेती के पक्ष में दो-तीन बातें महत्वपूर्ण हैं। एक, मनुष्य का पेट अनाज से ही भर सकता है, किसी और चीज से नहीं तथा अनाज खेत में पैदा होता है। अब तक आधुनिक तकनीक इसका कोई अन्य विकल्प नहीं ढूंढ पाई है और आगे भी इसकी संभावना नहीं है।
दूसरा, खेती ही वास्तव में उत्पादन होती है, वहां एक दाना बोओ, पच्चीस दाने पाओ। ऐसा किसी और माध्यम से संभव नहीं है। उद्योगों में कच्चा माल डालने से उसमें रूप परिवर्तन होता है। इसलिए खेती का महत्व हमेशा बना रहने वाला है। फिर बड़ी तादाद में किसान खेती को छोड़कर क्या करेंगे? हमारी देश की जलवायु व जैवविविधता खेती के अनुकूल है। पश्चिम में छह माह बर्फ गिरती है। वहां ठंडी जलवायु है। हमारी गर्म जलवायु है। हमारे यहां फसलों में बहुत विविधता है। ऐसे मेें हम खेती को ही प्रथम दर्जा क्यों नहीं देते। हमारा देश कृषि प्रधान है, जिसे पढ़ सुनकर बड़े हुए हैं। यदि वह खत्म हुई तो देशकैसे बचेगा?
इस आंदोलन में उड़ीसा से प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक देवल देव भी आए थे, जो नियामगिरि के पास गांव में देशी धान की एक हजार प्रजातियों को संरक्षित व संवर्धित कर रहे हैं। सुभाष पालेकर की जीरो बजट प्राकृतिक खेती भी किसानों की पसंद बनती जा रही है। किसानों को खेती को बचाने के लिए संघर्ष भी करना होगा। इस राह पर वे चल पड़े हैं और कम खर्चे, कम कर्जे और श्रम आधारित स्वावलंबी खेती की ओर बढ़ना होगा तभी खेती, किसान और गांव बचेंगे।