अंग्रेजों से भी बेरहम साबित हुई भारत की न्यायपालिका
कुछ लोग इस भ्रम में रहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट या हमारी न्याय व्यवस्था भगवान शंकर के त्रिशूल पर बसी काशी नगरी जैसी न्यारी और भिन्न व्यवस्था है, जबकि यह बारहा सिद्ध हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट शोषण और विषमता पर टिकी हमारी इस लोकतांत्रिक प्रणाली का ही हिस्सा है. झारखंड के नगड़ी में चले आंदोलन के प्रति उसके रवैये से इसका अंदाजा तो लगा था, 16 राज्यों के करीबन ग्यारह लाख आदिवासियों को जंगल से बेदखल करने के सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले से इसी बात की एक बार और पुष्टी होती है. भारतीय सभ्यता और संस्कृति के जानकार इस बात को जानते हैं कि आदिवासियों का सदियों से जंगल पर एकाधिकार रहा है. उनकी पूरी अर्थ व्यवस्था ही खेती और जंगल पर मिल कर बनी और चलती रही है और अंग्रेजों के आने के पूर्व कभी किसी ने उनके इस अधिकार को चुनौती भी नहीं दी.
1765 में नवाब मीर कासिम की पराजय के बाद हुए समझौते में बंगाल, बिहार और ओड़िशा की दिवानी अंग्रेजों को प्राप्त हुई. छोटानागपुर उस वक्त बिहार का हिस्सा था. प्रारंभ के तीन चार वर्षों में अंग्रेजों ने इस क्षेत्र में कोई दखलंदाजी शुरु नहीं की, लेकिन कैप्टन कैमक ने इस क्षेत्र में प्रशासनिक अधिकार प्राप्त करने के बाद 1769 में प्रशासनिक व्यवस्था कायम करने का प्रयास शुरु किया. इस पूरे इलाके में जमींदारी प्रथा शुरु की. औद्योगिक क्रांति और रेल पटरियां बनाने और बिछाने के क्रम में उन्होंने जंगल के महत्व को समझा और जंगल पर भी जमीन की तरह अपना एकाधिकार माना. आदिवासी बहुल इलाकों में जमींदारों, ठेकेदारों का प्रवेश हुआ और आदिवासियों का अधिकार जंगल पर से छिनता गया. लकड़ी का व्यावसायिक उपयोग शुरु हुआ तो उसकी अंधाधुंध कटाई भी शुरु हो गई और फिर जंगल बचाने के नाम पर अंग्रेज सरकार को जंगल पर अधिकार कायम करने का अवसर मिल गया. आरक्षित वनों के नाम पर जंगल का बड़ा हिस्सा उनके कब्जे में चला गया.
बावजूद इसके 1902-8 के सर्वे सेटलमेंट के वक्त जंगल पर आदिवासियों के परंपरागत अधिकार निम्न रूप में चिन्हित किये गये- अपना घर बनाने के लिए या उसकी मरम्मत के लिए लकड़ी काटने का अधिकार, कृषि औजार, हल आदि बनाने के लिए लकड़ी काटने का अधिकार, जंगल में मवेशी चराने या घास काटने का अधिकार, महुआ और अन्य फलदार वृक्षों से गिरने वाले फलफूल को चुनने का अधिकार. जंगल में बसे आदिवासी गांवों को उजाड़ने का और आदिवासियों को जंगल से बेदखल करने का क्रूर विचार तो विदेशी हुक्मरानों को भी नहीं आया था. यह विचार तो कारपोरेट पोषित इस व्यवस्था की न्यायपालिका को ही आया है.
यहां यह जिक्र करना प्रासांगिक होगा कि अंग्रेजों के जाने के बाद भी उनके बनाये जंगल संबंधित कानून लगभग जारी रहे. एक बड़ा बदलाव 2006 में केंद्र सरकार द्वारा पारित वन अधिकार कानून से आया, जिसके तहत आदिवासियों या पारंपरिक रूप से जंगलों में निवास करने वालों के प्रति किये गये ऐतिहासिक अन्याय देखते हुए जंगल में रहने वाले प्रत्येक परिवार को 4 एकड़ भूमि देने का प्रावधान किया गया. इसके बाद ही सिर्फ झारखंड में ग्रामसभा के अनुमोदन पर 107187 आदिवासी परिवार एवं 3569 अन्य पारंपरिक वन्य निवासी के जमीन के पट्टे के लिए सरकार के समक्ष दावा पेश किया गया था. पूरे देश में अनुमानता 1127446 आदिवासी एवं अन्य वन निवासियों ने वनभूमि पर नये अधिनियम के तहत दावे पेश किये थे जो अब सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से खारिज हो गये और उन लाखों आदिवासियों पर अपने निवास से उजड़ने का खतरा मंडरा रहा है.
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का वनों की हिफाजत या पर्यावरण की सुरक्षा से कोई वास्ता नहीं. यह तो स्वयंसिद्ध है कि जंगल आज देश में उन्हीें जगहों पर बचे हैं, जहां आदिवासी बसे हुए हैं. क्योंकि आदिवासी ही इस बात को समझते हैं कि प्राकृतिक जंगल उगाये नहीं जा सकते, खुद बनते हैं. आदिवासियों ने अपनी सामाजिक व्यवस्था के तहत कुछ बंदिशें स्वं पर लगा रखी हैं. इन बंदिशों के तहत महुआ, आम, करंज, जामुन, केंद, आदि के वृक्ष वे नहीं काटते हैं. सखुआ के पेड़ की बंदिश यह कि तीन फीट छोड़ कर ही उसे काटना है. वे जलावन के लिए हमेशा सूखे पेड़ ही काटते हैं. इसलिए जहां वे हैं, वहां जंगल बचे हुए हैं. लेकिन जहां वे नहीं, वहां जंगल का नामोनिशान मिट चुका है.
सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा फैसला वनो से आदिवासियों को उजाड़ वन क्षेत्र को कारपोरेट को देने का रास्ता प्रशस्त करने वाला है. दरअसल, बाॅक्साईट के तमाम खदान विशाखापटनम से रायगढ़ा तक फैले नियमगिरि पर्वतमाला क्षेत्र में हैं. झारखंड में यूरेनियम और सोने के नये खदान वन क्षेत्र में हैं. इन सभी इलाके आदिवासियों के प्राकृतिक निवास क्षेत्र हैं और इस पूरे इलाके में खनन के खिलाफ आदिवासी आंदोलनरत हैं. राजनीतिक कारणों से सरकारें इन आंदोलनों के सामने झुकती रही है. सुप्रीम कोर्ट ने परोक्ष रूप से कारपोरेट जगत को मदद करने की दृष्टि से यह ऐतिहासिक फैसला सुनाया है.
इस फैसले का भयानक असर आदिवासी जन जीवन पर पड़ने वाला है, क्योंकि जंगल से खदेड़े जाने पर वे न सिर्फ अपने परंपरागत निवास स्थल से वंचित हो जायेंगे, बल्कि उनके जीवन का आधार ही छिन जायेगा. आदिवासी अर्थ व्यवस्था पूरी तरह कृषि आधारित नहीं. कुछ महीनें यदि वे खेती पर निर्भर रहते हैं तो कई महीनें जंगलोत्पदों पर. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से लाखों आदिवासियों का जीवन संकट मे पड़ गया है.
क्या आदिवासी सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले को आसानी से स्वीकार कर लेंगे? कहना मुश्किल है. मान कर चलिये कि इसका सर्वत्र विरोध होगा. और इस बार सरकारें न सिर्फ कारपोरेट के लठैत के रूप ‘देशप्रेम’ से लबरेज सुरक्षाकर्मियों के साथ अपनी ही जनता के मुकाबिल मौजूद रहेंगी, बल्कि उनके हाथ में सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा फैसला भी होगा.
sabhar : pathaar.wordpress.com