केदारनाथ त्रासदी : एक दशक बाद भी तबाही के निशान बाकी है
एक दशक पहले केदारनाथ मंदिर के ऊपर से उठे बवंडर ने मंदिर समेत पूरी केदार-घाटी को तहस-नहस कर दिया था। जैसा कि होता है, दुर्घटना के प्रभाव में तरह-तरह के सुझाव-सलाहें भी आईं जिनका मूल स्वर तीर्थ-यात्राओं को पर्यटन बनाए जाने और उसके लिए सरंजाम जुटाने के विरोध में था। अब, दस साल गुजर जाने के बाद उत्तराखंड और केदार-घाटी के क्या हाल हैं? प्रस्तुत है, इसी की पड़ताल करता वीरेन्द्र कुमार पैन्यूली का यह लेख;
बहुत कुछ सीखने को मजबूर कर गई थी, 15-16 जून 2013 की उत्तराखंड आपदा, पर अब तो उसका भूलना ही चल रहा है। उत्तराखंड में जून 2013 की आपदा को हर समय याद किया जायेगा। खासकर तब, जब इस आपदा को एक दशक पूरा हो गया है और सरकारों के पुननिर्माण व पुनर्वास कार्यों का लेखा-जोखा भी लगातार जारी है। नैनीताल हाईकोर्ट में भी यह मसला जाता रहा है। 2014 में मंदिर के कपाट बन्द होने के बाद जीवट वाले लोग केदारनाथ में ही रहकर बर्फीले तूफानों में काम करते रहे थे।
एक तरफ, आपदाओं का सामना करने की रणनीति बन रही है, तो दूसरी तरफ, 2023 में क्षेत्र में हिमस्खलन भी हुये हैं। मनोवैज्ञानिक रूप से ही सही, सहमे हुए लोग आगे फिर कुछ ऐसा ही न घट जाये, की आशंका में जी रहे हैं। बहस इस पर भी हो रही है कि क्या 2013 की भयावह आपदा से हमने कुछ सीखा भी या नहीं या केवल यंत्रवत केदारनाथ को सर्वसुविधायुक्त भव्यता वाला कस्बा बनाने में ही लगे रहे। हममें जनता और सरकार दोनों शामिल हैं।
2013 की आपदा के बाद चमोली, रूद्रप्रयाग जिलों में मुझे आपदा क्षेत्र में काम करने वालों व आपदा झेले लोगों के बीच विभिन्न भूमिकाओं में रहने, अध्ययन व सर्वेक्षणों में शामिल रहने के अवसर मिले थे। इन्हीं परिप्रेक्ष्योंा में मैं ये तथ्य रेखांकित करना चाहता हूं कि कुछ मामलों में, कोई चाहे या न चाहे, आपदा ने सरकार व लोगों को सीखने के लिए मजबूर किया था, परन्तु नीतियों, कार्यशैलियों व सोच में वे ज्यादा दिन न बनी रह पाईं। यह ‘श्मशान वैराग्य’ जैसा था। ये वो बातें हैं, जिन्हें सामाजिक कार्यकर्ता या विशेषज्ञ जब पहले कहते थे, तो कोई ध्यान नहीं देता था। मैं उनमें से कुछ बातों का उल्लेख कर रहा हूं जिन्हे मैंने स्वयं इलाके में पाया है।
छिन्न-भिन्न आजीविका को पटरी पर लौटाने के लिए क्या कार्यक्रम किये जायें ये जानने के लिए आज भी यदि आप आपदा प्रभावित क्षेत्रों में जायें तो एक स्वर से सुनेंगे कि हम ऐसी आजीविका अपनाना चाहते हैं, जो केवल तीर्थयात्रियों के भरोसे न हो। मौसम की मार या कोरोना जैसी महामारियां स्थानीयों के नियंत्रण में तो नहीं ही हैं। यहां यात्रा काल में मौसम क्या गुल खिलायेगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। बे-मौसम बर्फबारी होती रही है।
पहले स्थानीय लोग यात्रियों से यात्रा सीजन में ही इतना कमाने पर भरोसा करते थे, जो उन्हें बाकी के माहों के लिए पर्याप्त रहे, किन्तु 2013 की आपदा में खच्चरों को गंवा चुका खच्चर वाला फिर से खच्चर लेने के पहले इसका भी हिसाब-किताब कर रहा था कि उसके खच्चरों के लिए आसपास के इलाकों में कितना काम मिल जायेगा। अन्यथा यात्रियों के भरोसे न रहकर वह अपने लिए कोई दूसरा काम करने की सोचे।
दुखद स्थितियों में केदार क्षेत्र के कई परिवारों को चलाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर आ गई थी और इसलिए उन्होंने आजीविका के उन्हीं कार्यो को अपनाना पसन्द किया था, जिनमें उन्हें बाहर न जाना पड़े। पशु-पालन, टेलरिंग, बागवानी, दुकान चलाने जैसे काम उन्होंने अपनाये थे। इनको दक्षता देने व इनके समूह बनाने के जो काम होने चाहिए थे, वे नहीं हुये क्योंकि वे परियोजनाओं पर निर्भर थे।
पहले जब उत्तराखंड के आन्दोलनकारी भोग-विलास वाले, पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले पर्यटन व तीर्थाटन को बढ़ावा न देने के लिए चेताते थे तो कोई नहीं सुनता था, परन्तु जून 2013 की आपदा के बाद स्थानीय लोग ही, जिनमें व्यवसायी भी थे, कहते हुए मिल रहे थे कि यह तो होना ही था क्योंकि जो कुछ तीर्थ-स्थल में नहीं होना चाहिए था, उसको भी करने में यहां परहेज नहीं होता था। आज खुद ही वे अपने व्यवसायिक आचरण को भी सवालों के घेरे में रखने से नहीं हिचकिचा रहे हैं। अवैध शराब की खेपें आज भी क्षेत्र में पकड़ी जाती हैं। तीर्थयात्रा में पर्यटन का मजा आज और ज्यादा गिरफ्त में ले रहा है।
पिछली आपदा ने मजबूरन लोगों को इस तथ्य को भी देखने को मजबूर किया है कि जहां-जहां नदियों के तटों पर अतिक्रमण हुआ और जहां-जहां सड़कों व परियोजनाओं का मलबा पड़ा, वहां-वहां नदियों ने विनाश भी किया व अपनी राह भी बदली। नतीजे में एक तरफ तो नदियों को उनकी जमीन लौटाने व उनके अविरल बहने के पक्ष में और दूसरी तरफ, मशीनों से मनमाने, पहाड़ों को अस्थिर करने वाले कटानों के विरूध्द जनमत बना है। कई जगहों पर लोग जेसीबी मशीनों व्दारा पहाड़ों के बेतरतीब कटान के विरूध्द खड़े हुए हैं। खास बात यह रही कि ऊपर बसे गांव वालों ने भी नीचे की सड़क कटानों का कई जगह विरोध किया क्योंकि इससे वे अपने खेतों व मकानों की नीवों के कमजोर होने व ढहने का खतरा देख रहे थे।
वैकल्पिक जंगल के रास्तों, पैदल मार्गों को ढूंढने, उनको मजबूत करने, जलस्रोतों को पुनः संरक्षित करने, पलायन रोकने, यात्रियों की संख्या सीमित करने, उनको पंजीकृत करने, मौसम की चेतावनी पर यात्रा को सीमित करने के सरकार के आज होते काम भी आपदा से मजबूरी में ली गई सीख ही मानी जा सकती है, किन्तु खेद है कि इस संवेदनशील क्षेत्र में कम-से-कम हवाई पटिटयों की बाढ़ लाने में सरकार परहेज नहीं कर रही है। भारी सीमेंट-कांक्रीट, इस्पात के निर्माण से सरकार परहेज नहीं कर रही है। इनसे स्थानीय स्तर पर कुछ लाभ नहीं होने वाला, उल्टे जमीन व पर्यावरण को खतरे बढ़ेंगे ही।
जरूरत है कि आधुनिक तीर्थधामों को पर्यटन स्थल बनाने के सपने जमीन पर उतारने की बजाए 2013 की केदार त्रासदी के बाद जो सततता के विकास की चाह आम प्रभावितों, स्थानीयों लोगों में उपजी थी, उसे जमीन पर उतारें और हिमालयी क्रंदन को अरण्य-रुदन होने से बचायें।
साभार : सप्रेस