मौजूदा समय में पोस्को प्रतिरोध संग्राम समिति के नेतृत्व में विगत दस सालों से ओडिशा के जगतसिंहपुर जिले में ढिंकिया चारादेस इलाके में जारी जनसंघर्ष कारपोरेट लूट के खिलाफ लड़ाई का एक ज्वलंत प्रतीक है. उसी धिनकिया की संग्रामी भूमि पर 29-30 नवम्बर 2014 तक आयोजित जल, जंगल, जमीन और जीविका के हक़ के लिए लोकतंत्र की रक्षा में जनसंघर्षों का राष्ट्रीय सम्मलेन इस संघर्ष की जुझारू जनता को पोस्को प्रायोजित सरकारी दमन तथा साम दाम दंड भेद के हथकंडों के बावजूद लड़ाई को जारी रखने के लिए सलाम करता है. अब यह लड़ाई न सिर्फ प्लांट क्षेत्र की है, बल्कि पोस्को के लिए सुन्दरगढ़ जिले के खंडाधार पर्वत से लौह अयस्क खुदाई के लिए अनुमति देने के बाद उस क्षेत्र में खंडाधार सुरक्षा समिति के नेतृत्व में स्थानीय आदिवासियों ने आंदोलन का बिगुल बजा दिया है….
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‘ढिंकिया संकल्प-पत्र’ का मसौदा जिसे संघर्ष संवाद पर साझा किया जा रहा है-
मौजूदा दौर देश के मजदूरों, किसानों और समस्त मेहनतकश जनता के लिए एक बहुत ही चुनौतीपूर्ण दौर है। भारतीय राजसत्ता बहुत ही मुखर रूप से तमाम पूंजीवादी कॉर्पोरेट घरानों के साथ मिलकर मेहनतकश जनता का शोषण-उत्पीड़न कर रही है। चाहे श्रम कानूनों में सुधार लाकर मजदूरों के हकों को छीनकर उन्हें मालिकों की झोली में डाल देना हो चाहे देशी-विदेशी उद्योगपतियों को नई-नई परियोजनाएं ;प्रोजेक्टद्ध लगाने के लिए सस्ते दामों पर आम जनता की जमीनों को बेचना हो। भारतीय सरकारें किसी भी क्षेत्र में कम नहीं दिख रही हैं। सरकार आम जनता के सभी अधिकार जो उन्होंने विभिन्न जनसंघर्षों के जरिए हासिल किए थे एक-एक कर निरस्त करके तमाम मानवीय एवं प्राकृतिक संसाधनों को देश के प्रभुत्वशाली वर्ग को सौंपती जा रही है। आज वैश्वीकरण, उदारीकरण निजीकरण के जरिए पूंजीवाद और पूंजीवादी ताकतों को ही लूट की छूट देने वाली नीतियां सबसे अधिक छाई हुई हैं।
देश के विभिन्न भागों में प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनिया बहुत ही तेजी से अपने पैर फैला रही हैं। वह देश के कोने-कोने में जाकर वहां निहित प्राकृतिक संसाधनों, कोयला, यूरेनियम इत्यादि, पर अपना कब्जा जमा रही हैं। ज्यादातर खनन के क्षेत्र आदिवासी बहुल इलाकों में पड़ते हैं। फिर वह चाहे झारखण्ड हो, छत्तीसगढ़ हो, मध्य प्रदेश हो या ओडिशा। इन आदिवासियों का अपने जंगल और जमीन पर सार्वभौमिक अधिकार है। यह जंगल और जमीन ही इनकी पहचान हैं, इनका वजूद हैं। एक तरह से कहा जाए तो यह जंगल ही इनकी जीवन रेखा हैं। लेकिन उन्हें अपनी विरासत से वंचित कर अब बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए जल, जंगल, ज़मीन पर अपना कब्जा जमाना चाहते हैं और केंद्र तथा राज्य सरकारें इन मामलों में कंपनियों का ही साथ दे रही हैं।
विकास परियोजनाओं, यातायात, बाजार, होटल-मॉल, हवाई अड्डों तथा इनके लिए कच्चा माल, ऊर्जा, पानी उपलब्ध कराने के लिए पहाड़ों, नदियों खनिजों, वनों तथा जमीनों की आवश्यकता होती है। अतः जमीनों की बढ़ती जरूरत को ध्यान में रखते हुए उसके अधिग्रहण को सरल-सुगम बनाने हेतु विभिन्न सरकारों ने समय-समय पर भू अधिग्रहण कानूनों में विभिन्न छूटें दी हैं। वर्ष 2005 से केन्द्रिय सरकार भूमि अधिग्रहण संशोधन करने की कवायद में लगी है।
सिर्फ भूमि ही नहीं बल्कि नदियों पर भी अब आम जनता का हक खत्म किया जा रहा है। देश की बड़ी-बड़ी नदियों पर बांध परियोजनाएं चल रही हैं या पूरी हो चुकी हैं। इन बांधों के बनने से नदी के आस-पास का बहुत बड़ा भू-भाग पानी में डूब जाता है और उस भू-भाग पर रहने वाले लोग बेघर हो जाते हैं। ऐसी परियोजनाओं के चलते पिछले 60 बरस में करीब 7 करोड़ लोग बेघर हो गए हैं। लेकिन सरकार की तरफ से कभी भी न तो इन परिवारों के लिए उचित पुनर्वास का बंदोबस्त किया जाता है और न ही मुआवजा सम्मानजनक मिलता है। अपनी जड़ों से उज़ाड़े जाने का दंश जो इन क्षेत्रों की जनता झेलती है वह तो कभी भी सरकार के एजेंडे पर होेता ही नहीं है। इसके अलावा इन बांधों से उत्पन्न होने वाली ऊर्जा कभी भी स्थानीय जनता की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करती। उसका उत्पादन तो बड़े-बड़े शहरों में रह रहे उच्च मध्यम तथा उच्च वर्ग व बड़े-बड़े कॉर्पोरेट्स की आवश्यकताओं के मद्देनजर किया जाता है। और जब भी जनता इन बांधों के विरोध अपनी आवाज उठाती है तो उसे बहुत बुरी तरह से दबा दिया जाता है।
भूमि अधिग्रहण की ही भांति आज भारत की विभिन्न सरकारें परमाणु ऊर्जा संबंधित परियोजनाओं को भी तमाम कानूनों और प्रावधानों को ताक पर रख कर मंजूरी दे रही है। भारत की ऊर्जा जरूरतों के लिए परमाणु ऊर्जा की अनिवार्यता का दावा एक छलावा भर है। बड़े पैमाने पर परमाणु परियोजनाओं को लागू किए जाने के पीछे असल में भारत सरकार द्वारा अमेरिका और अन्य देशों को किये गए उन वायदों को पूरा करना है जो कि भारत-अमेरिका परमाणु करार के दौरान अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी और परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के नियमों से छूट के बदले किए गए थे. इस विस्तार से उन घरेलू और अंतरराष्ट्रीय औद्योगिक लॉबियों को मुनाफा होगा जो इन परियोजनाओं में उपकरण और अन्य ठेके मुहैय्या कराएंगी। इससे घोर अलोकतांत्रिक और अपारदर्शी ढंग से काम कर रहे परमाणु ऊर्जा विभाग की ताकत तथा प्रतिष्ठा और बढ़ेगी एवं केंद्रीकृत विकास की उस अवधारणा को बल मिलेगा जिसके तहत नवउदारवादी भूमंडलीकरण का एजेंडा आगे बढ़ रहा है।
इस सबसे हमारी असल प्राथमिकताएं पिछड़ जाएँगी जिनमें विकेन्द्रीकृत, पर्यावरण की दृष्टि से टिकाऊ और बंटवारे के लिहाज से न्यायसंगत ऊर्जा-व्यवस्था का निर्माण करना शामिल है. परमाणु परियोजनाएं अत्यधिक महंगी हैं तथा स्थानीय खतरों, नियमन की कमियों एवं परमाणु तकनीक में निहित खतरों की वजह से विनाश का कारण बन सकती हैं। इस भूमि-अधिग्रहण की वजह से देश के विभिन्न भागों में हजारों आदिवासी अपने मूल स्थानों से उखाड़ कर देश के विभिन्न अन्य स्थानों पर फंेके जा रहे हैं। मुख्य धारा में सहजतापूर्वक समाहित न हो पाने की वजह से यह आदिवासी कहीं के भी नहीं रह जाते हैं।
इस सब के बीच जब आम जनता अपने हकों, अपने जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए आवाज उठाती है तो उसकी आवाज को शासक वर्ग के हल्कों द्वारा दबा दिया जाता है। शांतिपूर्ण प्रतिरोध को हिंसात्मक प्रतिरोध का नाम देकर फर्जी गिरफ्तारियां की जाती हैं। लोगों को झूठे केसों मंे फंसाया जाता हैं। पुलिस थानों में उन्हें प्रताड़ित कर उनसे झूठे गुनाह कबूलवाए जाते हैं। यहां तक की प्रतिरोध कर रही महिलाओं के साथ भी अमानवीय सुलूक किया जाता है। दरअसल इन सबके पीछे शासक वर्ग की एक स्पष्ट मंशा होती है और वह होती है लोगों के दिलों में दहशत बिठाना। उन तक यह संदेश पहुंचाना कि किसी भी विरोध को कुचल दिया जाएगा जिससे की जनता चुप-चाप बैठ जाए और उनके लिए अपने मंसूबों को अंजाम तक पहुंचाना आसान हो जाए। किंतु इतिहास गवाह है कि जनता ने तमाम दमन उत्पीड़न के बावजूद अपने प्रति होने वाले अन्याय का पुरजोर विरोध किया है। ब्रिटिश काल से लेकर आजाद भारत के इतिहास में बार-बार जनता ने शोषण व अन्याय के खिलाफ संगठित होकर संघर्ष किया है, और वही आज भारत के कोने-कोने में बस रहे मजदूर किसान भी कर रहे हैं।
केंद्र में नई सरकारे आने के बाद से ही स्थिति बद से बदतर ही हुई है। अभी तक जो भी हक अधिकार जनता को मिले हुए थे वह सभी एक-एक कर छीने जा रहे हैं। जनता के पक्ष में बने सभी कानूनों में व्यापक परिवर्तन हो रहे हैं और उन्हें कॉर्पोरेट्स के मुताबिक बदला जा रहा है।
भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1984 को औपनिवेशक करार करते हुए तथा जबरदस्ती भूमि अधिग्रहण को रोकने के लिए भूमि अधिग्रहण अधिनियम,2013 पारित किया गया था। यद्यपि इस कानून में बहुत खामियां रही हैं फिर भी प्रभावीढ़ग से लागू नहीं किया। तथापि मोदी सरकार के मंत्रिमंडल के कई मंत्री इसमें खतरनाक संशोधन का प्रस्ताव कर रहे हैं। प्रस्तावित संशोधनों में दो सबसे बड़े संशोधन हैं सहमति तथा सामाजिक प्रभाव का आंकलन। यह दोनों ही प्रावधान भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 2013 में उचित मुआवजे, पुनर्वास तथा पुनर्स्थापन तथा पारदर्शिता के हक के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। इन दोनों ही संशोधनों के बाद एक बार फिर से बलपूर्वक भूमि अधिग्रहण लागू हो जाएगा और उसके परिणामस्वरूप लोगों की, किसानों की तबाही और बदहाली और बढ़ेगी।
मोदी सरकार ने हाल ही में मजदूरों को तोहफे के नाम पर श्रम कानूनों में कुछ ऐसे परिवर्तन किए हैं जो कि पूंजीपतियों को तोहफा और मजदूरों की पीठ में छुरा ोंका है। परिवर्तित होने वाले कानूनों में न्यूनतम वेतन 8 घन्टे की ड्यूटी, ओवर टाइम, मजदूर महिलाओं से रात की पाली में काम करवाना, छुट्टियों में कटौती, ओवर टाइम के घंटे बढ़वाना और उसको कार्य काल में जोड़ना इत्यादि हैं। श्रमेव जयते के नाम पर हो रहे इन संशोधनों का सीधा फायदा सिर्फ उद्योगपतियों को ही होगा। उन्हें इंस्पेक्टर राज से मुक्ति के नाम पर रजिस्टर बनाने से मुक्ति दे दी गई है। अब उद्योगों पर किसी भी प्रकार की कोई निगरानी नहीं रखी जाएगी। इसके अलावा अप्रैटिंस पर काम करने की अवधि बढ़ाकर तीन साल कर दी गई है। जिसमें तनख्वाह नहीं बल्कि वजीफा मिलेगा और उसे भी आधा सरकार वहन करेगी।
ठीक इसी प्रकार मोदी सरकार ने वनाधिकार अधिनियम तथा पर्यावरणीय कानूनों में ऐसे महत्वपूर्ण संशोधन के लिए प्रस्तावित कर रहे हैं। जो सीधे-सीधे आदिवासी तथा स्थानीय समुदायों के हितों के विरुद्ध है। अपने जल-जंगल-जमीन के लिए पहले से ही लड़ रहे इन आदिवासियों के लिए इन संशोधनों के बाद खुद को बचाए रखना संकटग्रस्त हो जाएगा। वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावेड़कर ने खनन की सभी कार्रवाईयों के लिए कंपनियों के लिए पर्यावरणीय मंजूरी को ज्यादा तेज तथा सुगम बनाने के प्रावधान बनाए हैं। इसको वास्तविकता में लागू करते हुए जावेड़कर ने तीन महीने के समयकाल में करीब 240 परियोजनाओं को मंजूरी भी दे दी है। इसके अलावा कोयला खनन के मामले में 16 मिलियन टन प्रतिवर्ष से कम क्षमता के खदानों के लिए पहले से मौजूद जनसुनवाई के प्रावधान को समाप्त करने की बात चल रही है जिससे जनता की अपनी जमीनों पर हकदारी सीधे-सीधे समाप्त हो जाएगी। इसके अलावा सिंचाई परियोजनाओं में पहले से मौजूद प्रावधान जिसके अनुसार 2,000 हेक्टेयर से कम जमीन के लिए पर्यावरणीय मंजूरी की आवश्यकता नहीं थी उसकी सीमा को बढ़ाकर अब 10,000 हेक्टेयर कर दिया गया है। केवल यही नहीं मोदी सरकार ने पर्यावरणीय कानूनों को पूरी तरह से कमजोर करने के लिए एक ऐसे राष्ट्रीय वन्य जीवन बोर्ड (एनबीडब्लूएल) का गठन किया जिसमें सामाजिक संस्थाएं पूरी तरह से गायब हैं। यह वन्यजीवन (सुरक्षा) अधिनियम का इतना साफ उल्लंघन है कि सर्वोच्च न्यायालय ने पहली याचिका पर ही इस गठन पर स्टे लगा दिया। जिसके जवाब में पर्यावरण मंत्रालय ने ऐसे वन्य जीवन बोर्ड का गठन किया जो पूर्व वन अधिकारियों तथा शासक दल के सर्मथक और नाकाबिल लोगों से भरा पड़ा है। जाहिर है यह बोर्ड केवल एक रबर स्टैम्प की तरह काम करेगा।
ऐसी परिस्थितियों में जब शासक वर्ग आम जनता और उसके संघर्षों पर एक सुनियोजित तथा सुगठित ढंग से आक्रामक हमले कर रहा है, हमारे लिए भी यह बहुत जरूरी हो जाता है कि हम उसके हमलों का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए खुद को तैयार करें। आज के समय की यह मांग है अलग-अलग क्षेत्रों में चल रहे जनाआंदोलन एक व्यापक मोर्चे के तहत संगठित हों। अलग-अलग लड़कर अपनी ऊर्जा को बर्बाद करने के बजाए हमें एक दूसरे के संघर्षों में सहभागिता करनी होगी। इससे न केवल हमारा अपना संघर्ष मजबूत होगा अपितु एक दूसरे के संघर्षों से जुड़कर हम एक व्यापक दायरे में पूरे देश में आम जनता के उपर हो रहे अन्याय का प्रतिकार कर सकेंगे। सही लड़ाई तभी आगे बढ़ पाएगी जब मजदूर-किसान-आदिवासी एक ही परचम के नीचे एकत्रित हो अपने खुद के संघर्ष को तीखा करने के साथ-साथ एक दूसरे के संघर्षों को मजबूत करने का प्रयास करेंगे। ऐसा करके जनादोलन खुद एक नई राजनैतिक प्रक्रिया शुरू कर सकेगें।
आज के दौर में जब शासक वर्ग की हमलावर नीतियां अपने चरम पर हैं ऐसे में उनसे मुकाबला करने का एक ही रास्ता है और वह है जमीनी स्तर पर अपने संघर्षों को मजबूत करना। हम जितनी मजबूती के साथ जमीनी स्तर पर अपने संघर्ष को तीखा करेंगे उतनी ही सश्क्ततता के साथ हम इन नीतियों का मुकाबला कर सकेंगे।
इन संघर्षों को हमको आगे बढ़ाते हुए अपनी रणनीतियों और रणकौशलों दोनों का ही ध्यान रखना होगा और बदलते वक्त के साथ-साथ हमें अपने रणकौशलों में भी परिवर्तन करते रहना होगा। जिस तरह से सरकारें और पूंजीपति अपनी सुविधा के लिए कानूनों को तोड़-मरोड़ रहे हैं ऐसे में हमें इस बात पर एक राय बनानी होगी कि हम अपने आंदोलनों को किस सीमा तक लेकर जाएंगे। ऐसे समय में जब हम पर होने वाले हमले कानूनों के दायरे से बाहर जा रहे हैं या फिर कानूनों में उनके अनुसार परिवर्तन लाए जा रहे हैं, ऐसे में हम केवल संसदीय रास्ते से किसी भी इंसाफ की उम्मीद नहीं कर सकते हैं। हमें अपने संघर्षों को सफल मुकाम तक ले जाने के लिए ऐसे तरीके अपनाने होंगे जो हो सकता है कि प्रशासन की नजरों में गैर-कानूनी तथा गैर-संसदीय हो किंतु हमारे आंदोलनों के लिए महत्वपूर्ण हों सकते हैं, लेकिन इस बात को याद रखते हुए कि हमें हिंसक तरीका नहीं अपनाना है। हमें अपने संवैधानिक अधिकारों की बहाली के लिए जनवादी तरीके से संघर्ष करना हैं।
हमारी सबसे बड़ी ताकत हमारी एकता है और इतिहास गवाह है कि जनता की एकता के आगे बड़ी-बड़ी राजशाहियां ध्वस्त हुई हैं अतः हमें भी अपनी एकता को बनाए रखते हुए अंहिसात्मक किंतु गैर-संसदीय तरीके अपनाने होंगे। दुनिया भर में अन्तर्राष्ट्रीय पूंजीवाद के खिलाफ लगभग सभी देशों में ऐसी जनोंदोलन चल रहें हैं, जो कि मौजूदा व्यवस्था के खिलाफ एक सशक्त प्रतिपक्ष के रूप में अपने आप को स्थापित कर रहे हैं।
हम यहां एकत्रित विभिन्न जनांदोलनों के लोग यदि यहां से उठने के बाद यदि सुनियोजित एकबद्ध तरीके से एक व्यापक मोर्चे के साथ जुड़कर अपने आंदोलन को और तीखा रूप देने के साथ-साथ एक दूसरे के आंदोलनों में पूरी शिरकत तथा सहयोग कर सके तो यह सम्मेलन निश्चित ही अपने सही अर्थों में सफल माना जाएगा।