अपनी जमीन पर बिता रहे विस्थापित जिन्दगी, कहानी पिढ़रवा गांव की
नये साल के पहले हफ्ते में जब भोपाल में शिवराज सिंह चौहान के मंत्री और विधायक विधानसभा में शपथ ले रहे थे, राज्य से गरीबी दूर करने का एलान किया जा रहा था और देश की राजधानी दिल्ली के राजनीतिक गलियारों में आम आदमी की परिभाषाएँ तय हो रही थी, ठीक उसी समय भोपाल-दिल्ली से सैकड़ों-हजारों किलोमीटर दूर पिढरवा गांव के लोग अपने जमीन पर मकान न बनाने की बेबसी और सारी सरकारी सुविधाओं के खत्म किए जाने से परेशान हो संघर्ष का रास्ता तय करने में लगे हैं। दुश्कारी के घने जंगलों के बीच बसे आदिवासियों के हालातों पर अविनाश कुमार चंचल का महत्वपूर्ण आलेख;
“आम आदमी’’ की परिधि से दूर इन गरीब आदमी की समस्याओं को सुनने वाले हुक्मरान अपनी सरकार की जीत का जश्न मनाने में मशगूल हैं। मध्यप्रदेश का सिंगरौली जिला, जिसे शिवराज सिंह चौहान स्वीजरलैंड बनाने का ख्वाब देख रहे है के मुख्यालय से करीब सत्तर किलोमीटर दूर जंगलों के बीच बसा पिढरवा गांव तक न तो कोई सरकारी अमला पहुंचता है और न ही सरकारी सुविधाएँ।
दुश्कारी के घने जंगलों के बीच बसे 2000 की आबादी वाले गांव पिढ़रवा में लगभग 1800 आदिवासी हैं, जिनमें खैरवार, गोंड, खगरिया, पनिका जैसे समुदाय के लोग हैं। साल 2007 में एमपी सैनिक कोल माइन्स नाम की कंपनी के लोग जब सर्वे और दूसरी कागजी कार्रवायी के लिए गांव में आने लगे तो गांव के लोगों को पता चला कि दुश्कारी जंगल को अमिलिया नॉर्थ कोल ब्लॉक के लिये आवंटित किया गया है। उसी साल भूमि अधिग्रहण की सुगबुगाहट भी तेज हुई और भुमिअधिग्रहण के लिए गांव में धारा चार लगाया गया।
अपनी जमीन पर ही घर नहीं बना सकते
गांव के कुछ पढ़े लिखे लोगों में से एक हैं- छोटे सिंह गोंड। अपनी जमीन और जंगल बचाने के लिए सक्रिय छोटे सिंह बताते हैं कि “जब से धारा 4 लगाया गया है तभी से लोगों को नये घर का निर्माण नहीं करने दिया जा रहा है। आबादी बढ़ रही है, बारिश-आंधी में मिट्टी के घर गिर जाते हैं लेकिन लोग छोटे-छोटे घरों में ही रहने को विवश हैं।”
छोटे आगे बताते हैं कि 2009 में भूमि अधिग्रहण के लिए जनसुनवाई की खानापूर्ती भी की गई लेकिन लोगों को मुआवजा अभी तक नहीं दिया गया है। गांव के लोग चोरी-छिपे भी इस डर से घर नहीं बना पाते कि कहीं भूमि अधिग्रहण के बाद उनको घर खाली न करना पड़े। यहां तक कि इंदिरा आवास जैसी सुविधाओं का लाभ भी उन्हें नहीं मिल पाता। सबसे ज्यादा मुश्किल पीने के पानी को लेकर है। गांव में चापाकल की बहुत जरुरत है लेकिन ज्यादातर आबादी नदी के पानी पर ही निर्भर है। वजह वही डर कि अधिग्रहण के बाद चापाकल में लगाये गए पैसे बर्बाद हो जाएंगे।
जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया में भी काफी गड़बड़ियां हुई हैं। छोटे गोंड आरोप लगाते हैं कि मृतकों के नाम भी मुआवजा पारित करवाया गया और उनके वारिसों को हक नहीं मिला। पिता-पुत्र के बंटवारे को राजस्व कर्मचारी द्वारा निरस्त कर दिया गया। मुआवजा कम देना पड़े इसके लिए कंपनी और प्रशासन ने मिलकर इस तरह की कई गड़बड़ियां की है।
कोई सरकारी सुविधा नहीं- न इंदिरा आवास, न प्रसुति सहायता राशि
कहने को तो पहले भी पिढरवाह में सरकारी सुविधाओं के नाम पर सिर्फ दो कमरे का एक प्राइमरी स्कूल ही था। हां, कुछ लोगों को इंदिरा आवास जैसी योजनाओं का लाभ मिल जाया करता था। मगर प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण के बाद न तो उन्हें इंदिरा आवास मिला और न ही प्रसुति सहायता राशि जैसी अन्य योजनाओं का लाभ।
गांव में पांचवी से ज्यादा की पढ़ाई नहीं होने की वजह से बच्चे पांचवी तक ही पढ़ाई कर पाते हैं। खासकर लड़कियां पांचवी तक ही पढ़ी हुई हैं। वे दूर के गांवों में हाईस्कूल के लिए नहीं पहुंच पाती।
हालांकि यहां भी विकास के मापदंड की पहली शर्त बिजली-सड़क ही है। गांव में कैसा विकास चाहते हैं- पूछने पर गुलाब सिंह खैरवार कहते हैं कि, “गांव तक बिजली-रोड का होना बहुत जरुरी है।” आगे गुलाब जोड़ना नहीं भूलते, “अस्पताल 70 किलोमीटर दूर है, गांव में हाईस्कूल नहीं है जिससे गांव के बच्चे पांचवी तक ही पढ़ाई कर पाते हैं।”
एस्सार समेत तमाम कंपनियों के खिलाफ बढ़ता जा रहा प्रतिरोध
दरअसल पूरे इलाके में कई कोयला खदान प्रस्तावित हैं। इन कोयले के खदानों से करीब लाखों लोगों की आबादी विस्थापित होने को मजबूर हो जाएगी। अकेले महान जंगल में प्रस्तावित महान कोल ब्लॉक (एस्सार व हिंडाल्को का संयुक्त उपक्रम) से ही 54 गांवों के 85 हजार लोग विस्थापित होंगे। अपने जंगल को बचाने के लिए आसपास के गांव वाले संगठित होकर संघर्ष भी कर रहे हैं।
भूमि अधिग्रहण और कोयला खदान की खबर मिलने के बाद अब चार-पांच सालों में पिढ़रवा गांव की फिजा भी बदल रही है। लोग अपने जंगल-जमीन को बचाने के लिए संगठित भी हो रहे हैं। लल्ला सिंह खैरवार थोड़ी ऊंची आवाज में कहते हैं, ‘’अपना जमीन-जंगल ऐसे कैसे दे देंगे। महुआ, तेंदू, पत्ता से लेकर जमीन तक सबकुछ इसी जंगल से आता है। न डॉक्टर के पास जाने की जरुरत होती है , न ही कभी रोजी-रोटी के लिए गांव से बाहर पलायन करने की जरुरत हुई’’। लल्ला के हां में हां मिलाते हुए उम्मीद से भरे रामप्रसाद खैरवार स्थानीय भाषा में बोलते हैं, “पूरा पिढरवा को एकता लाना होगा। अगर खदान रोकल चाहत हई तो रुक जाई। खेती-किसानी करवा, महतारी (जमीन-जंगल) के बेचे के न चाही, जंगल बेच दी तो कै दी खरची-हमार हरेक चीज बा जंगल से-जंगल हमार जीवन बा” (पूरे पिढरवा को एक होना पड़ेगा। अगर हम खदान रोकना चाहेंगे तो रुक जायेगी। हम लोग खेती-किसानी करेंगे, अपनी मातृभूमि को नहीं बेचेंगे। जंगल बेच देंगे तो कौन हमारे घर का खर्चा देगा। हमारा सबकुछ जंगल से ही है-जंगल हमारा जीवन है।)
पास खड़े दूसरे लोग भी एक होकर जंगल-जमीन बचाने के लिए संघर्ष करने की बात कहते हैं। खेलावन खैरवार के शब्दों में, “जंगल में घुसे नहीं देंगे। जिन्दगी हमारा, नाना-पुरखा का सबका यहीं कटा। कमावत हैं, खात हैं। सरकार तो कुछ देती नहीं है उल्टे जगह-जमीन छिन कर विस्थापित करने पर आमदा है।”
दरअसल पूरे क्षेत्र में
गांव के युवाओं ने खोली विकास की पोल
कंपनियों द्वारा गांव वालों को विकास के सब्जबाग दिखाने पर 22 साल के राजेश सिंह गोंड सही सवाल उठाते हैं। “विकास कहां होगा, कंपनी आएग तो जंगल कटने से वायू प्रदुषण होगा, बम ब्लास्टिंग से जीना मुहाल होगा और आत्यचार बढ़ जाएगा।” दसवीं तक की पढ़ाई कर चुके राजेश संघर्ष करने और जंगल-जमीन नहीं देने की बात करते हैं। 20 वर्ष के दहलीज पर खड़े गुलाब सिंह खैरवार आजतक शहर के नाम पर सिर्फ एक बार जबलपुर गए हैं-डॉक्टरी के काम से। “शहर में बहुत परेशानी है। यहां अपनी स्वतंत्रता है जीने की अपनी आजादी। जंगल से महुआ,तेंदु और जमीन से गेंहू-मकई और जब कभी जरुरत पड़ने पर जंगली लकड़ी बेच कुछ नकद भी कमा लेते हैं”। गुलाब बड़े ही आसानी से अपनी जिन्दगी की अर्थव्यवस्था को समझा देते हैं।
सारी समस्याओं को जानने के बाद भी मैं सवाल कर देता हूं, “आपकी मांग क्या है”? छोटे सिंह गोंड थोड़ा रुकते हैं, फिर बेहद संजीदे आवाज में कहते हैं- सबसे पहले घर बनाने का प्रतिबंध हटे, इंदिरा आवास जैसी सरकारी सुविधाओं का लाभ मिले। जंगल पर वन अधिकार दिया जाय। विकास करना ही है तो सरकार करे न कि कंपनी। नहीं तो आंदोलन करेंगे। कोर्ट से लेकर सरकार तक हर दरवाजे पर दस्तक देंगे”।
फिलहाल पिढरवा गांव के आदिवासियों की आवाज लोकतंत्र के खंभों के नीचे कराह रही है।