भूमि अधिग्रहण कानून: समीक्षा या स्वार्थसिद्धी
चित मैं जीता पट तू हारा ! इस चतुराई को अपनाते हुए केंद्रीय सड़क, राजमार्ग और जहाजरानी मंत्री नितिन गडकरी तुरंत अधिग्रहण के लिए अपनी अनुशंसाएं ग्रामीण विकास मंत्रालय को भेजते हैं और उस मंत्रालय की कुर्सी पर बैठे नितिन गडकरी हमशक्ल फिल्मी नायक की तरह दोहरी भूमिका निभाते अपनी अनुशंसाएं केबिनेट के लिए तैयार कर देते हैं। ऐसी स्थिति में क्या किसी न्यायपूर्ण समीक्षा की उम्मीद हो सकती है? पेश है भूपेन्द्र सिंह रावत का आलेख; जिसे हम सप्रेस से साभार आपसे साझा कर रहे है.
संसद में पूर्ण बहुमत प्राप्त भाजपानीत नरेंद्र मोदी सरकार सन् 2013 में भूमि अधिग्रहण के लिए बने उचित मुआवजे का अधिकार, पुनर्स्थापन, पुनर्वास एवं भूमि पारदर्शिता अधिग्रहण अधिनियम 2013 में शामिल कई प्रावधानों को बदलने के लिए जोरशोर से मंथन में जुट चुकी है। ग्रामीण विकास मंत्री की भूमिका निभाते हुए नितिन गडकरी स्वयं पहले उक्त अधिनियम में बदलाव के सुझाव तैयार कर चुके हैं और बाद में सड़क, राजमार्ग एवं जहाजरानी मंत्री की भूमिका निभाते हुए संसद में उक्त कानून में बदलाव करने के लिए सहयोग की अपील करते दिखाई देते हैं।
अंग्रेजों के शासनकाल में 120 वर्ष पूर्व बने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के बदले आजादी के 66 वर्ष बाद जनवरी 2014 से लागू उक्त कानून में चार महत्वपूर्ण प्रावधान हैं- जबरन भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाना, (2) पीपीपी योजनाओं के लिए सरकार की अनुमति और प्रभावित होने वाले तबके पर पड़ने वाले प्रभावों का आंकलन कर प्रभावित तबके को पुनर्वास का लाभ देने की अनिवार्यता, (3), खाद्यान्न संकट से देश को बचाए रखने के लिए बहुफसली और सिंचित भूमि के अधिग्रहण पर रोक लगाना और (4), किसानों की जमीन का जरूरत से पहले अधिग्रहण पर रोक लगाने के लिए अवार्ड हो जाने वाली जमीन का अनिवार्य रूप से पांच वर्ष की अवधि में मुआवजा वितरण करना और भौतिक कब्जा लेना जरूरी है अन्यथा जमीन का अधिग्रहण स्वतः ही रद्द हो जाएगा।
यही नहीं इस अवधि में अधिग्रहित जमीन को तीसरे पक्ष को बेचने पर होने वाले लाभ का बंटवारा कर चालीस फीसदी हिस्सा प्रभावित तबके को देने वाले कुछ अच्छे प्रावधान शामिल हैं। इस तरह का लाभ विश्ोष तौर पर अंग्रेजों के शासन में बने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के तहत उन प्रभावितों को भी मिलेगा जिनकी जमीन का अधिग्रहण पांच वर्ष या इससे अधिक अवधि पूर्व किया जा चुका है और प्रभावित जमीन पर भौतिक रूप से कब्जा किसानों के पास है या अधिग्रहित जमीन का मुआवजा किसानों को नहीं दिया गया है। मोदी सरकार के द्वारा उक्त विधेयक में शामिल इसी तरह के प्रावधानों को भूमि के अधिग्रहण करने की प्रक्रिया को जटिल बनाने का दोषी मानते हुए उन्हें बदले जाने की बात कही जा रही है।
ग्रामीण विकास मंत्री के द्वारा उक्त विधेयक में शामिल प्रावधानों के तहत जहां जमीन अधिग्रहण के लिए लोगों की मंजूरी हेतु सहमति 80 फीसदी से कम करके 50 फीसदी करने की बात कही जा रही है वहीं पीपीपी के लिए सरकारी प्रावधानों को हटाने की बात भी हो रही है। इसके अलावा कानून में बहुफसली जमीन के अधिग्रहण पर रोक लगाने वाले प्रावधानों में भी बदलाव होने की उम्मीद है। उक्त विधेयक में इस तरह के बदलाव के बाद निजी योजनाओं के कारण समाज पर पड़ने वाले प्रभावों का आकंलन करने और प्रभावित तबके का पुनर्वास करने की अनिवार्यता स्वतः ही समाप्त हो जाएगी।
मोदी सरकार में मौजूदा केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री की मंशा भाजपा के वरिष्ठ नेता और मोदी सरकार के प्रथम ग्रामीण विकास मंत्री गोपीनाथ मुंडे के द्वारा निधन से पहले उक्त विधेयक का क्रियान्वयन सुनिश्चित करने की जो बात कही थी उसके विपरीत है। यही नहीं कार्यवाहक मंत्री की मंशा न केवल यूपीए दो के कार्यकाल में अस्तित्व में आए उक्त विधेयक के औचित्य को मिटाने की है बल्कि वह उक्त विधेयक से संबधित तत्कालीन संसदीय समिति की अध्यक्ष रहीं और मौजूदा लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन की सिफारिशों तथा पिछली सरकार में नेता विपक्ष रहीं सुषमा स्वराज द्वारा संसद में भूमि अधिग्रहण विधेयक पर चर्चा के दौरान दिए गए सुझावों को हटाने की भी है। ऐसा किसलिए हो रहा है यह किसी से छुपा नहीं है।
किसान और आदिवासियों की भूमि बचाने की खातिर न जाने कितने ही आन्दोलन, धरने प्रदर्शन और भूखहड़ताल होते रहे हैं। समय-समय पर प्रशासन द्वारा इनके आन्दोलनों को कुचलने के लिए लाठी चार्ज और पुलिस फायरिंग तक की गई हैं। इसमें जान दे चुके किसानों, आदिवासियों की लंबी सूची है। वहीं इस दौरान गिरफ्तार हुए लोगों की बड़ी संख्या भी है जिन्हे आज भी अपराधियों की तरह अदालतों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं। लेकिन इनकी कुर्बानियां बेकार नहीं गई। काफी जद्दोजहद के बाद पिछली सरकार के कान खड़े हुए और आखिरकार सितंबर 2013 में यूपीए-दो सरकार के कार्यकाल में 119 वर्ष पुराने भूमि अधिग्रहण अधिनियम 1894 के बदले उचित मुआवजे का अधिकार, पुनर्स्थापन, पुनर्वास एवं भूमि पारदर्शिता अधिग्रहण
अधिनियम 2013 नामक नया कानून बना।
मोदी सरकार द्वारा नए भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में की जा रही संशोधन की बात इंगित करती है कि सरकार लंबित और बंद पड़ी विकास योजनाओं को चालू करने के नाम पर बहुफसली भूमि के अधिग्रहण पर लगी रोक, भूमि अधिग्रहण से प्रभावित 80 फीसदी तबके की लिखित सहमति लेने की अनिवार्यता, सहित सार्वजनिक निजी साझेदारी यानी पीपीपी विचार के लिए इस कानून को सबसे बड़ी रुकावट मानते हुए इसे दूर करने के लिए इसमें बदलाव जरूरी मानती है। सरकारी स्तर पर इस तरह के बदलाव के बाद देश में जमीन के कारोबारियों से लेकर खदान और बांध बनाने वालों के ‘‘अच्छे दिनों’’ के लिए न केवल देश के लाखों-करोड़ों किसान, आदिवासियों और खेतिहर मजदूरों को अब बेदखल होना पड़ेगा बल्कि देश की कृषि भूमि न केवल मंडी में बिकने वाले सामान की तर्ज पर बिकेगी, बल्कि विदेशी ताकतें एफडीआई के नाम पर निजी डेवलपरों के सहयोग से कृषि भूमि को रौंदते हुए कांक्रीट के जंगल में तब्दील कर देश को खाद्यान्न संकट में धकेलने का काम करेगी।
इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को नितिन गडकरी के सुझावों को उक्त अधिनियम में शामिल करने की अपेक्षा देशवासियों के साथ लोकतांत्रिक तरीके से चर्चा करनी चाहिए तथा देश के लिए अन्न पैदा करने के लिए खेती की जमीन, पीने के पानी के लिए नदियों और भूजल के स्त्र्ाोतों को बचाने और पर्यावरण की हिफाजत के लिए वनों को बचाने वाले प्रावधानों को उक्त अधिनियम में शामिल करना चाहिए।
उद्योगों के पक्ष में होने वाला संभाव्य बदलाव किसान, आदिवासियों और खेतिहर मजदूरों सहित आने वाली पीढ़ियों के हितों को किनारे कर जमीन के कारोबारियों के लिए सहूलियत देना मात्र है। हालांकि कानून में बदलाव के पीछे सरकार की तरफ से यह दलील दी जा रही है मौजूदा कानून में शामिल प्रावधान भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया को खासा जटिल बनाने वाले हैं दूसरी ओर यह भी ध्यान देने की बात है कि भाजपा शासित राज्यों से आ रही मांग को देखते हुए केन्द्र ने इसमें बदलाव की योजना बनाई है। कुल मिलाकर यह सब एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है जिससे केवल सरकार के अपने ही हित सधेंगे।
केंद्र सरकार को भी चाहिए कि वह अपने अच्छे दिनों के सपनों के साथ न्याय करते हुए बेघर लोगों को घर, भूखों को रोटी और बेरोजगारों को रोजगार देने की प्रक्रिया आगे बढाए और भाजपा के वरिष्ठ नेता और मोदी सरकार में शामिल प्रथम ग्रामीण विकास मंत्री रहे गोपीनाथ मुंडे के द्वारा निधन से पहले उक्त अधिनियम को क्रियान्वयन सुनिश्चित करने की जो बात कही थी उसको सच्ची श्रद्धांजलि के रूप में उन्हें अर्पित करें। (सप्रेस)