देश से विदा लेते प्रधानमंत्री का फतेहाबाद में परमाणु विनाश को न्यौता
जनहित से जुड़े हर मोर्चे पर असफल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अपने कार्यकाल के आख़िरी दिनों में फतेहाबाद के गोरखपुर में परमाणु संयंत्र की आधारशिला रखने 13 जनवरी 2014 को जा रहे हैं. महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी के साथ परमाणु संयंत्र उनकी सबसे बड़ी उपलब्धियां हैं ये उन्होंने हाल में खुद कहा है. फतेहाबाद के किसान, ग्रामीण और आम लोग पिछले चार बरसों से इस प्रस्तावित प्लांट का विरोध कर रहे हैं. इस लंबे संघर्ष में तीन किसान साथियों ने अपनी जान भी गंवाई है. परमाणु संयंत्र विरोधी मोर्चा के नेतृत्व में 11 जनवरी 2014 को फतेहाबाद में प्रधानमंत्री की यात्रा के विरोध में प्रदर्शन किया जा रहा है. पेश है परमाणु संयंत्र विरोधी मोर्चा का वक्तव्य;
2012 में जिस हफ्ते हज़ारों लोगों ने प्लांट को पर्यावरणीय मंजूरी देने के लिए आयोजित फर्जी सरकारी जनसुनवाई का मुखर विरोध किया और अफसरों को गाँव छोडने पर मजबूर किया, उसी समय मुट्ठी-भर भूस्वामियों को डरा-धमका और फुसला कर सरकार जमीन अधिग्रहीत करने में सफल रही और इस बात को ऐसे प्रचारित किया कि इस परियोजना को इलाके के लोगों का समर्थन हासिल है. सरकारी दमन और कानूनी दांवपेंच का सहारा लेकर खड़े किए गए इस जनसमर्थन के दावे की पोल इस बात से खुल जाती है कि पिछले एक साल में इलाके में आंदोलन का और विस्तार हुआ है – गोरखपुर के आस-पास के तीस ग्राम-पंचायतों ने परियोजना के खिलाफ प्रस्ताव पारित किए हैं, पिछले साल गर्मी में नहर सूखने से लोगों का ध्यान इस खतरे की और आकृष्ट हुआ और हज़ारों की संख्या में लोग फिर से गोलबंद हुए. इन आन्दोलनों में जनरल वी के सिंह, एम जी देवासहायम, जस्टिस बी जी कोलसे-पाटिल, संदीप पाण्डेय, के एन रामचंद्रन, अचिन वनायक और मेनका गांधी जैसे कई राष्ट्रीय स्तर के समाजकर्मियों ने भी शिरकत की और अपना समर्थन दिया है.
- गोरखपुर परियोजना में सबसे बड़ा खतरा इस प्लांट के लिए पानी का नाकाफी होना है. परमाणु संयंत्रों के साधारण संचालन के समय भी बहुत अधिक पानी की ज़रूरत होती है और फुकुशिमा दुर्घटना की स्थिति में हमने देखा है कि समुद्र के किनारे स्थित होने के कारण उनको पानी मिल पाया और उसमें वहाँ भी नमकीन पानी मिलने के कारण तीन संयंत्रों में विस्फोट हुए. गोरखपुर परियोजना के लिए पानी का प्रावधान भाखड़ा नहर से किया गया है जो इस इलाके के किसानों की प्राणधारा है. इस नहर से 320 क्यूसेक पानी संयंत्र को दे दिया जाएगा जिससे उसके बाद पडनेवाले एक लाख एकड़ से अधिक की कृषिभूमि की सिंचाई बाधित होगी. गंभीर दुर्घटना की स्थिति में यह पानी बिलकुल नाकाफी होगा और पूरे जिले के साथ-साथ दिल्ली तक खतरनाक रेडियेशन फैलेगा.
- भाखड़ा नहर का निर्माण केवल कृषि कार्य के लिए किया गया है और इस पानी का औद्योगिक इस्तेमाल तीन राज्यों के बीच इस पानी को लेकर हुए समझौते का उल्लंघन होगा.
- एक निर्धारित अवधि के बाद इस नहर को साफ़-सफाई के लिए बंद किया जाता है. ऐसे समय में इस प्लांट में पानी काम होगा और छोटी सी दुर्घटना भी महाविनाश में तब्दील हो सकती है.
- इस प्लांट में खुद सरकार के उन नियमों का खुला उल्लंघन किया जा रहा है जो परमाणु संयंत्रों के निर्माण हेतु बनाए गए है. उदाहरण के लिए संयंत्र के 1.6 किमी की परिधि में कोई आबादी नहीं होनी चाहिए, अगले 5 किमी के दायरे में बीस हज़ार से ज़्यादा लोगों नहीं होने चाहिए, 15 किमी के दायरे में एक लाख से अधिक की आबादी नहीं होनी चाहिए और उसको आपातकाल में आबादी को तत्काल हटा सकने का प्रबंध होना चाहिए. लेकिन गहन आबादी वाले हमारे इलाके में इन सभी शर्तों का उल्लंघन कर हम सबको भयंकर खतरे में झोंका जा रहा है.
- यह इलाका वानस्पतिक और वन्य बहुलता का क्षेत्र है, खास तौर पर काले हिरन के लिए प्रसिद्ध है जो बिश्नोई समाज के लिए पूज्य है. इस संयंत्र के लिए काजलहेड़ी अभयारण्य को हटाकर प्लांट के अधिकारियों के निवास बनाए जाएंगे.
- इस प्लांट को हाल ही में वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने सशर्त मंजूरी दे दी है, लेकिन इससे संबंधित गंभीर सवालों की अनदेखी हुई है. सरकारी पर्यावरण-प्रभाव रिपोर्टें ऐसे संयंत्रों के मामले में मजाक बन चुकी हैं जिनके आधार पर इनको मंजूरी मिलती है. संयंत्र के लिए पानी, प्लांट के विकिरण-प्रभाव, वन्य-जीवों पर असर और परमाणु कचरे के सवाल पर यह रिपोर्ट पूरी तरह खामोश है.
- रिपोर्ट में विकिरण से बचने के इंतजाम की जिम्मेवारी परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड पर डाल दी गयी है. यह बोर्ड अपनी फंडिंग और तकनीकी विशेषज्ञता के लिये उसी परमाणु ऊर्जा विभाग पर निर्भर है जिसका इसे नियमन करना होता है. इस तथ्य के गंभीर खतरे की तरफ हाल ही में कैग(CAG) ने अपनी रिपोर्ट में जिक्र किया है, जिसकी सरकार अनदेखी कर रही है. भारत में पारदर्शी और जवाबदेह नियमन का पूर्ण अभाव है और इस हफ्ते की एक अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्ट के अनुसार परमाणु सुरक्षा के मामले में 25 देशों में से भारत 23वें स्थान पर है, पाकिस्तान भी हमसे आगे है.
- गोरखपुर में लगने वाले 700 मेगावाट के चार प्लांट देश में अब तक बने सबसे बड़े संयंत्र हैं. इस डिजाइन का अनुभव परमाणु ऊर्जा विभाग को बिलकुल नहीं है और वह भी एक छोटी सी नहर के किनारे.
- इस प्लांट से लोगों को रोजगार मिलाने के बड़े दावे किये जा रहे हैं जबकि हकीकत यह है कि सीमित संख्या में उच्च तकनीकी कौशल वाले लोगों को ही रोजगार मिलेगा जबकि लाखों की संख्या में किसान और कृषि-संबंधित कारोबार करने वाले इलाके की जनता सीधे प्रभावित होगी. सिर्फ प्लांट बनने की अवधि में छोटे-मोटे ठेके मिलेंगे जिसके लिए एक दलाल सीमित तबका इसका समर्थन कर रहा है. रावतभाटा, तारापुर, कलपक्कम और अन्य जगहों पर जहां ऐसे संयंत्र बने हैं, स्थानीय आबादी ठगा हुआ महसूस करती है और ऐसे प्लांटों के इर्द गिर्द दूसरे उद्योगों और नौकरियों का इजाफा भी देखने को नहीं मिलता.
- प्रधानमंत्री की परमाणु-प्रेम को लेकर स्वतंत्र विशेषज्ञों और जैतापुर, कूडनकुलम, मीठी विरदी, कोवाडा सरीखी जगहों पर चल रहे आन्दोलनों ने गंभीर सवाल खड़े किए हैं. ऐसे समय में जब पूरी दुनिया इस खतरनाक तकनीक से पीछा छुडा रही है और हरित एवं टिकाऊ तकनीकों को अपना रही है, हमारे देश की सरकार अमेरिका, फ्रांस और रूस को किए गए वादे निभाने के लिए परमाणु संयंत्र लगा रही है. गोरखपुर में लग रहा प्लांट वैसे तो स्वदेशी तकनीक का है, लेकिन इन कुछ स्वदेशी प्लांटों पर भी सरकार का जोर इसीलिए है कि पूरी ऊर्जा नीति को परमाणु-केंद्रित बनाया जाए जिससे नए रिएक्टर आयातित हों और विदेशी कारपोरेटों का फ़ायदा हो. इस चक्कर में विकेन्द्रीकृत और जन-केंद्रित ऊर्जा एवं विकासनीति का मौक़ा और संसाधन हम खो रहे हैं जो हमारे देश के लिए अधिक ज़रूरी है.
- परमाणु तकनीक के अपने अन्तर्निहित खतरे हैं जिनको कभी खत्म नहीं किया जा सकता. परमाणु दुर्घटनाओं के अलावा इसमें सामान्य संचालन के दौरान होने वाले विकिरण, मजदूरों को होने वाली बीमारियाँ, खतरनाक परमाणु कचरे का मसला और पचास-साठ साल बाद संयंत्र की उम्र पूरी हो जाने के बाद भी इसके अनवरत सुरक्षा के प्रश्न शामिल हैं, जिनका उत्तर सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में परमाणु उद्योग के पास नहीं है, इसीलिए हर जगह इन संयंत्रों का विरोध हो रहा है और जापान, जर्मनी, स्वीडन, स्वित्ज़रलैंड, इटली और ताइवान जैसे देशों में जनविरोध के कारण सरकारों को परमाणु कार्यक्रम बंद करने पर मजबूर होना पड़ा है.