विस्थापन की त्रासदी : आदिवासी औरतों और बच्चों के जीवन में अंधेरा
विस्थापन आज वैश्विक पटल पर एक बड़ी परिघटना का रूप अखित्यार कर चुका है। कई हजारों परिवार या पूरा का पूरा समुदाय विभिन्न वजहों से विस्थापित कर दिया जाता है। कभी विकास के नाम पर तो कभी युद्ध या ऐसे कई कारणों से बड़ी मात्रा में आबादी एक जगह से दूसरी जगह विस्थापित कर दी जाती है। वजह चाहे जो भी हो किंतु वह आबादी जो विस्थापित हो रही होती है उसके लिए विस्थापन मात्र एक परिघटना नहीं होती है। सदियों से जिन जड़ों से वह जुड़े होते हैं उन्हें जब एक झटके से अलग कर दिया जाता है तो यह आबादी एक संकटपूर्ण जीवन व्यतीत करने को मजबूर हो जाती है। विस्थापन के ऐसे ही कुछ दंश को एसी संदीप वसावा ने अपनी इस टिप्पणी में चित्रित करने का प्रयास किया है जिसे हम आपके साथ साझा कर रहे है;
आप विकास की बात करते हो और कहते हो विकास चाहिए तो किसी न किसी को तो क़ुरबानी देनी होगी
पढ़े क्या होती है विकास के साथ आदिवासी महिलाये लड़कियों की क़ुरबानी या फिर तकलीफे और ज़रा सोचिये आपके ही आदिवासी भाई बहन किस तरह से जीने को मजबूर है इस सभ्य समाज के कथा कथित विकास की वजह से विस्थापन एक ऐसी त्रासदी है जो औरतों और बच्चों के जीवन में अंधेरा बना देती है। वे घरविहीन हो जाती हैं। इतना ही नहीं विस्थापन का प्रभाव महिलाओं के जीवन में और भी कई स्तर पर पड़ता है। जिसमें एक जमीन से बेदखली और कानूनी अधिकार से वंचित होना भी शामिल है। आश्चर्य तो यह है कि भूमि अधिग्रहण के समय उन्हें पता नहीं होता है कि परियोजना के लिए उनकी जमीन ली जायेगी अथवा नहीं। गांव वालों को इसकी खबर तक नहीं दी जाती है। जहाँ उन्हें बसाया जता हैं उस स्थान में रहने के लिए अस्थायी बैरक और एक-एक कमरे का मकान ही दिया जाता है। यहां से भी उनके उजड़ा जाना तय है लेकिन वह कहाँ जायेंगे खुद उन्हें नहीं मालूम होता है। विस्थापित होते ही वह अपने बुनियादी हक से भी वंचित हो जाते हैं। उनकी कितनी जमीन परियोजना में ली गयी है और बदले में कितनी जमीन दी गई है। क्योंकि जमीन पर दखल का कोई कागज पुनर्वास के समय उन्हें दिया नहीं जाता | कहीं दो एकड़ सिंचित जमीन तो कहीं 3 एकड़ असिंचित जमीन। नौकरी के लिए भी कई शर्तें लगाई जाती हैं जिन्हें पूरा करना इनके लिए कठिन होता है।
विस्थापितों को कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पेयजल की गंभीर समस्या भी इन्हीं में से है। सदियों से रह रहे गांवों में पानी के कई स्रोत होते हैं। कुंआ, तालाब, दाडी, झरना, नदी, हैंडपंप, पाइप या अन्य स्रोंतों से पानी उन्हें मिलता है। लेकिन विस्थापित या प्रभावित होने के बाद ये सारी चीजें खत्म हो जाती हैं। पीने का पानी लाने के लिए महिलाओं को पांच से दस किलो मीटर दूर जाना पड़ता है। गर्मी के दिनों में उससे भी ज्यादा दूर जाकर पानी लाना पड़ता है। पीने के स्वच्छ पानी के अभाव में वे कई तरह की छोटी-बड़ी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। टीबी, मलेरिया, डारिया, उनका पीछा नहीं छोड़ती है। शौच के लिए स्थान की कमी उनकी बीमारी को बढ़ाती है। कुल मिलाकर देखा जाए तो विस्थापन से महिलाएं न सिर्फ समाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बल्कि शारीरिक व मानसिक रूप से भी इस तरह प्रभावित होती हैं कि लाख कोशिशों के बावजूद वह सामान्य जीवन नहीं जी पाती हैं और धीरे-धीरे एक ऐसी अंधेरी सुरंग में खोती जाती है जहां दूर-दूर तक रोशनी की कोई किरण दिखाई नहीं देती है।