कागज़ तुम्हारा पर ज़मीन हमारी
दक्षिण राजस्थान के डूंगरपुर जिला कलेक्ट्रेट पर पिछले दस दिनों से 2000 से ज्यादा आदिवासियों ने अपनी जमीन बचाने के लिए अनिश्चित कालीन महापड़ाव डाल रखा है. डूंगरपुर जिले के 21 राजधानी चक गाँवों के यह आदिवासी अपने घर-बार-बच्चे -पशु छोड़ कर तपती धूप में अपने ज़मीनों के अधिकार के लिए बैठे हैं । 21 लोगों की क्रमिक भूख हड़ताल भी जारी है। तीन पीढ़ियों से सरकार से हर तरह की गुहार लगा चुके इन आदिवासी परिवारों के लिए अब ये आर-पार का संघर्ष है। पेश है प्रज्ञा जोशी की रिपोर्ट;
6 अप्रैल, 2015 से दो हज़ार से अधिक किसानों-आदिवासियों ने डूंगरपुर में वागड़ मज़दूर किसान संगठन के नेतृत्व में महापडाव डाला हुआ है और 20-30 कार्यकर्ता प्रतिदिन कलेक्ट्रेट के सामने क्रमिक भूख हड़ताल कर रहे हैं. भारी बारिश,आँधियाँ उनका हौसला नहीं डिगा पायी हैं और अपना घर-परिवार-खेत-पशु छोड़कर आये ये लोग अपनी मांगों के माने जाने तक यहाँ से हटने को तैयार नहीं हैं. यह नोट इस मसले को संक्षिप्त में पेश करने हेतु लिखा गया है इस उम्मीद के साथ कि इस मसले को दोस्त लोग राज्य तथा राष्ट्रीय स्तर पर उठाएँ।
महापडाव क्यों ?
इनकी एक ही मांग है : वह जमीन, जिस पर पिछली तीन से भी ज्यादा पीढ़ियों से ये लोग खेती और गुजर-बसर कर रहे हैं, उसके खातेदारी अधिकार इन्हें दिए जाएँ. डूंगरपुर की तीन तहसीलों ( डूंगरपुर,बिछीवाड़ा और सीमलवाड़ा) के 21 गाँवों के 17402 एकड़ में फ़ैली यह जमीन सरकारी रिकॉर्ड में ‘चक बिलानाम’ के नाम से दर्ज है. इसे ‘राजधानी भूमि’ भी कहा जाता है. यह जमीन राजस्थान सरकार द्वारा ‘राजस्थान भूमि सुधार एवं भूस्वामी संपदा अवाप्ति अधिनियम, 1963’ के तहत 1964 ई. में भूतपूर्व महारावल श्री लक्ष्मण सिंह से ली गयी थी. इस अधिनियम का घोषित मुख्य उद्देश्य यही था कि तत्कालीन भूस्वामियों से ली गयी जमीन को भूमिहीन किसानों में बांटकर उनके सामाजिक आर्थिक विकास और कृषि की पैदावार को बढ़ावा दिया जाए पर इन आंदोलनरत आदिवासियों की पीड़ा देखकर कहा जा सकता है कि आने वाली सभी सरकारें इन उद्देश्यों की प्राप्ति में पूरी तरह असफल रहीं.
प्रशासन का मुख्य तर्क यह है कि इस भूमि के पूर्व स्वामी के साथ सरकार का मुकदमा चल रहा है अतः यह भूमि ‘विवादित’ है. यह कोरा झूठ है. तत्कालीन महारावल के साथ चला रहा मुकदमा सिर्फ और सिर्फ मुआवज़े की राशि को लेकर है. न तो पूर्व महारावल के वंशजों ने कभी भी इस जमीन पर रह रहे लोगों के अधिकार को चुनौती दी है और न ही जमीन के आवंटन/नियमितीकरण का इस मुक़दमे से कोई अंतर्विरोध है. यहाँ तक कि सरकार द्वारा समय समय पर स्कूल, छात्रावास,आंगनवाडी,ट्रस्ट और तो और निजी कम्पनियों को खदानों के ठेके के लिए इसी भूमि से आवंटन में कभी भी यह ‘विवाद’ आड़े नहीं आया है. जी हाँ, इसी क्षेत्र में सत्रह खदानों को भी इसी दौरान सरकार द्वारा अनुमति दी गयी है ! बस, उन किसानों को बार बार गुहार लगाने पर भी पट्टे नहीं दिए गए, जिन्होंने एक समय बंजर एवं उबड़-खाबड़ रही इस धरती को समतल किया, अपने खून पसीने से सींचा, कुएँ-बावड़ियां बनाईं, हज़ारों पेड़ लगाए और इसे हरा भरा बनाया. सबसे क्रूरता तो यह है कि ये सभी किसान अपनी ही जमीन पर रहने का जुर्माना भी तीस से ज्यादा सालों से लगातार भर रहे हैं ( जो 500 रु. से 5000 रु. तक है) जो राशि अब तक जमीन के कुल मूल्य से भी कई गुना ज्यादा हो चुकी है.
विडम्बना यह है कि ये अधिकाँश परिवार भील जनजाति तथा मुस्लिम और दलित जातियों के हैं और यह सम्पूर्ण क्षेत्र संविधान की पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आता है अर्थात इन लोगों की सुरक्षा, विकास एवं संवर्धन की सरकार की विशेष जिम्मेदारी है.
अब आरपार की लड़ाई
अब यह लड़ाई अपने अंतिम दौर में आ गयी है क्योंकि शहर के विस्तार के साथ कई गाँव डूंगरपुर नगर परिषद् की परिसीमा में आ रहे हैं. पेसा क़ानून के तहत ग्रामसभा की अनुमति से ही इन क्षेत्रों की भूमि अधिग्रहीत की जा सकती है लेकिन यह क़ानून इन काश्तकारों की कोई मदद नहीं कर पायेगा क्योंकि सरकारी दस्तावेजों में तो ये सब ‘अतिक्रमी’ हैं. नई कॉलोनियां इन किसानों की जमीनें लील जायेंगी और इन्हें यहाँ से खदेड़ दिया जाएगा क्योंकि आज़ादी के पहले से भी रहते आ रहे ये लोग सरकार की नज़र में ‘अवैध’ हैं!
“जमीन हमेशा से हमारी है ! अतिक्रमी सरकार है !!”
यह लगभग 3200 परिवारों के अस्तित्व का सवाल है. हर परिवार से कम से कम एक एक व्यक्ति आया है. ये लोग आटा,चावल,लकड़ी,बर्तन और चादर अपने साथ लेकर आये हैं. भूतपूर्व सांसद श्री ताराचंद भगोरा, दो प्रधानों एवं चार सरपंचों ने इन मांगों का समर्थन किया है. यह लड़ाई हर जागरूक नागरिक की लड़ाई है. इन किसानों को आपका साथ चाहिए. आइये,सभी मिलकर इनके हक के लिए आवाज़ उठाएं !