जमीन की लूट का अंतहीन इतिहास
भारत में सार्वजनिक जमीन की सरकारी लूट का संस्थानीकरण प्रांरभ हुए 500 वर्षों से ज्यादा हो गए हैं। यह सिलसिला आज भी न केवल बदस्तूर जारी है बल्कि अब तो इसमें लाभार्थी के रूप में निजी क्षेत्र भी जुड़ गया है। जमीन के लूट की परंपरा का ब्रिटिश काल से वर्तमान तक के सफर की छानबीन करता अनुराग मोदी का सप्रेस से साभार महत्वपूर्ण आलेख;
नरेन्द्र मोदी सरकार के भूमि-अधिग्रहण संशोधन अधिनियम को लेकर बवाल मचा हुआ है। आरोप हैं कि यह संशोधन किसानों की निजी जमीन को कार्पोरेट हित में अधिग्रहण करने के लिए लाया जा रहा है। हम इस कानून के दायरे से बाहर निकलकर राज्य द्वारा सामुदायिक जमीन के अधिग्रहण और उसे उद्योगों को देने के मसले को देखने से समझ आएगा कि कंपनियों के लिए जमीन की सरकारी लूट का यह गोरखधंधा 400 साल से भी ज्यादा पुराना है। इतिहास बताता है कि किस तरह राज्य पहले बाकायदा नियम,कानूनों और नीति के नाम पर सामुदायिक जमीन को अपने हक में लेता है और फिर इस जमीन को व्यापारिक हित में लुटाता है। इसे दो उदाहरणों से समझते हैं। पहला इतिहास में अंग्रेजों के उदाहरण से और दूसरा वर्तमान में म.प्र. सरकार द्वारा ‘लैंड बैंक‘ के जरिए सामुदायिक जमीन को सार्वजनिक हित में अधिग्रहण कर उद्योेगों के नाम पर कंपनियों को देने से।
ब्रिटेन में 31 दिसंबर,1600 को एक चार्टर के जरिए रानी एलिजाबेथ प्रथम भारत और कुछ अन्य देशों से व्यापार करने के लिए ईस्ट कंपनी को प्रभाव में लाई थीं। इसके चार्टर में कुछ अन्य अधिकारों के साथ कंपनी को उन देशों में जमीन खरीदने का अधिकार देना महत्वपूर्ण था। सूरत में कारखाना डालने के बाद, भारत में अपने पाँव जमाने के लिए अंग्रेज जमीन के एक ऐसे टुकड़े के लिए छटपटा रहे थे जो उनके अपने स्वामित्व का हो और जहाँ वो अपना किला बना सके। लेकिन मुगल राजा उन्हेें कहीं भी पैर नहीं जमाने दे रहे थे। आखिर अंग्रेज सफल हुए। उन्होंने दक्षिण भारत में जहाँ मुगल प्रभाव नहीं था वहां चंद्रागेरी के राजा से 6 मील लम्बा और एक मील चौड़ा समुद्र किनारे का टुकड़ा, 600 पौंड स्टर्लिंग सालाना किराए पर लिया। सन् 1639 में उस जमीन पर भारत में अपनी पहली किलेदार बस्ती बसाई। इस रहवासी हिस्से पर अपनी प्रभुसत्ता प्रदर्शित करने के लिए अंग्रेजों ने इस किले के अन्दर के अपने हिस्से को ‘सफेद नगर‘ (व्हाइट टाउन) और स्थानीय लोेगों की बसाहट को ‘काला नगर‘ (ब्लैक टाउन) का नाम दिया जो बाद में मद्रास कहलाया। यह भारत के इतिहास में किसी भी व्यापारिक हित रखने वाली कंपनी का राज्य के स्वामित्व की जमीन खरीद कर अपना स्वामित्व स्थापित करने का पहला मामला था।
सन 1857 के विद्रोह के बाद जब ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों से छीन कर ब्रिटेन की रानी और सरकार ने सत्ता सीधे अपने हाथ में ली, तब दुनिया और देश के इतिहास का सबसे बडा भूमि-अधिग्रहण हुआ। इसमें विशेष था आदिवासी के हक के जंगल और जमीन को राज्य के आधीन लाना। इसका सबसे पहला शिकार थे म.प्र. के होशंगाबाद जिले के पंचमढ़ी के जंगल में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह करने वाले आदिवासी सरदार भभूत सिंग कोरकू। उन्हें सन1862 में जबलपुर जेल में फांसी दे दी गई और उसकी सारी जमीन (लगभग 15 हजार एकड़) पर देश का पहला आरक्षित जंगल ‘बोरी‘ बना। बाद में भारत में अंग्रेजों की वन नीति और कानून बनाने वाले बोडेन पॉवेल ने वर्ष 1875 ने ‘वन कानून‘ बनाने के कारण देते हुए लिखा है, राजा महाराजा के जमाने में कोई कानून नहीं होता था। उनकी मनमर्जी चलती थी इसलिए हम एक कानून बनाकर इस जमीन का प्रबंधन करेंगे। लेकिन सन्1878 में अंग्रेजों द्वारा कानून बनने के समय म.प्र. का मंडला जिला जहां उस समय सिर्फ 2..3 प्रतिशत जमीन ‘आरक्षित वन‘ थी वहीं इस कानून बनने के बाद 15 साल में 1893 तक, जिले का आधा भू भाग आरक्षित वन में बदला जा चुका था। (इस आरक्षित वन से होकर गुजरना या उसमें से पेड़ के गिरे पत्ते भी उठाना-उस समय भी अपराध था और आज भी अपराध है) आजादी के समय देश में 14 करोड़ 7 लाख एकड़ जमीन वन विभाग के पास की थी।
इस कानून के बनने के पहले राजा महाराजा के समय में जिस जमीन को राजा के शिकारगाह और महल आदि के निर्माण के लिए आरक्षित किया गया था उसके अलावा बाकी जमीन और जंगल लोगों के उपयोग के लिए खुले थे लेकिन, अंग्रेजों के कानून से यह सरकारी बन गए। इन जंगलों में आज भी स्थानीय समुदाय चोर करार देकर प्रताड़ित किए जाते हैं। अंग्रेजों द्वारा इनका व्यापारिक हित के लिए उपयोग इतिहास के पन्नों में दर्ज है। सरकार ने जहां आजादी के बाद लाखों एकड़ जंगल औद्योगिककरण के नाम पर कंपनियों के हवाले किए वहीं सन् 1990 के रियो सम्मलेन में जंगल के ‘ग्लोबन पब्लिक गुड‘ बनने के बाद से इन जंगलों को कंपनियों के लिए खुला करने के लिए लगातार योजना बनाई जा रही हैं। आखिरकर अब जंगलों को वनीकरण के नाम पर कंपनियों के लिए पूरी तरह खोलने के रास्ते खुल गए हैं।
म.प्र. के उदाहरण पर नजर डालें, तो समझ आएगा कि केंद्र सरकार की सोच में परिवर्तन के साथ किस तरह से प्रदेश सरकारों की सोच बदलती है। वर्ष 2007 से म. प्र. सरकार सिर्फ बड़े शहरोें के आसपास के गाँवों की इस जमीन को मद परिवर्तन कर इसे नजूल या कहें सरकारी जमीन में बदलकर उद्योगों को दे रही थी। उदाहरण के लिएः भोपाल जिले की हुजूर तहसील के ग्राम अचारपुरा, मनियाखेडी खोत और इस्माइल नगर के 592.37 एकड़ जमीन जो अक्टूबर 2007 के तहसीलदार की रिपोर्ट में चरोखर (चराई) के लिए आरक्षित दिखाई गई हैं। इस जमीन को 30 अक्टूबर को उप सचिव पर्यावरण और गृह निर्माण ने एक आदेश के जरिए ‘बाहय नजूल‘ मद में परिवर्तित कर शिक्षा जोन के लिए आरक्षित कर दिया। इसके बाद 5/11/07 को ‘धीरू भाई अंबानी ट्रस्ट‘ ने इस जमीन में से कुल 125 एकड़ जमीन,110 एकड़ ‘धीरू भाई अंबानी इंस्टिट्यूट ऑफ इनफार्मेशन टेक्लोलॉजी एंड कम्युनिकेशन‘ और 15 एकड़ बी. पी. ओ के आवंटन के लिए आवेदन दिया और 21.11.07 को इस आवेदन को म.प्र. के राजस्व मंत्री ने एक नोट-शीट के जरिए अपनी सैद्धांतिक मंजूरी भी दे दी।
केंद्र में सत्ता परिवर्तन और नए ‘भूमि-अधिग्रहण‘ अधिनियम आने के बाद, म.प्र. सरकार ने अब बाकायदा नीति बनाकर प्रदेश के सभी छोटे-बडे़ शहरों उद्योेगों को जमीन देने के लिए 1 अप्रैल 2015 को एक नीति जारी की। पूरे प्रदेश में लगभग 300 ऐसे क्षेत्र चिन्हित भी कर लिए जिसमें राज्य मार्ग और स्मार्ट सिटी भी शामिल हैं। इसके लिए बाकायदा इस नीति के तहत, उद्योग विभाग को या उनके निगमों के आधिपत्य की
अविकसित,विकसित,विकास की जा सकने वाले भूमि व्यावसायिक प्रयोजन के लिए देने का अधिकार दिया। गौर करिए यह जमीन कहां से आएगी? म.प्र. सरकार के ‘लैंड बैंक 2014‘ दस्तावेज पर नजर डालें तो समझ आएगा कि म.प्र. सरकार ने इसमें लगभग 65 हजार हेक्टेयर (1.5 लाख एकड़) सरकारी जमीन उद्योग को देने के लिए चिन्हित की है। 186 औद्यागिक क्षेत्रों में 6222 हेक्टर 45 आधुनिक औद्योगिक विकास केन्द्रों में 8774 हेक्टेयर, के अलावा विभिन्न राजमार्गो के नजदीक इन्वेस्टर कारिडोर के लिए 16. 334 हेक्टेयर भूमि सुरक्षित था।
यह सरकारी जमीन है कौन सी? अगर हम म.प्र. सरकार के ‘कमिश्नर लैंड रिकाडर््स‘ की वेब साइट पर प्रदेश के सभी जिलों के नगरीय क्षेत्रों ‘लैंड बैंक‘ की जमीनों की विवरण तालिका में इन में से कुछ जमीनों की नोइयत देखें तो समझ आएगा कि यह जमीन असल में सार्वजनिक जमीन है जैसे, चरनोई, खलिहान, श्मशान, तालाब, कदीम, पारतल, आबादी, पहाड़ और ना जाने क्या-क्या नाम से दर्ज हैैं। यह सब मुगलों से लेकर अंग्रेजों के समय तक जो जमीन समुदाय के अनेक तरह के उपयोेेेग के लिए नियत थी। जिस काम के लिए जमीन नियत होती थे उन्हें गांव के ‘बाजुल उर्ज‘ (राजस्व रिकार्ड) में दर्ज कर दिया जाता था। म.प्र. राजस्व संहिता के खंड 4 के अनुसार चरोखर, निस्तार और कास्त, पहाड़ आदि निस्तार मद की इस जमीन को ‘बाह्य नजूल जमीन‘ में नहीं बदला जा सकता।
केंद्र का अध्यादेश आने के बाद अकेले म.प्र. सरकार 1.5 लाख एकड़ से भी ज्यादा सामुदायिक हक की जमीन को सरकारी जमीन बताकर उद्योगों को देने की योजना ‘लैंड-बैंक,2014‘ में बना चुकी हैं तो फिर पूरे देश के स्तर पर क्या हो रहा होगा? आज जरूरत है सार्वजनिक जमीन की इस लूट के खिलाफ किसान, आदिवासी, दलित और जनसंगठन आवाज उठाएं।