अपनी भूमि पर बेघर आदिवासी
मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले का सहरिया आदिवासी समुदाय देश का सर्वाधिक कुपोषित आदिवासी समुदाय है। लेकिन उसकी खेती की जमीनों पर गैर आदिवासियों ने अपना कब्जा जमा लिया। ऐसा तब हो रहा है जबकि उनका क्षेत्र संविधान की पांचवीं अनुसूची में आता है, जहां पर गैर आदिवासी उनकी जमीन की खरीद फरोख्त ही नहीं कर सकते। वैसे सरकारें भी गरीबों के हित में पहल करने से बचती रही हैं। पेश है प्रशांत कुमार दुबे का आलेख;
मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले के कराहल ब्लॉक के मायापुर गांव की सामंधे आदिवासी (सहरिया) महिला पिछले दो दशक से अपनी 19 बीघा सिंचित जमीन पर कब्जा लेने की लड़ाई लड़ रही हैं। इस प्रक्रिया में वह कई बार पटवारी, तहसीलदा, कलेक्टर कार्यालय जा चुकी हैं। अनेक जनसुनवाईयों में उनका आवेदन लगा है। सरकारी तंत्र से आस टूटी तो एकता परिषद जैसे जनसंगठन के साथ मिलकर लड़ाई शुरु की। उन्होंने जनादेश 2007 में भी भाग ले लिया है। दिल्ली के जंतर-मंतर, आगरा और ग्वालियर आदि तक स्थानों पर जा चुकी हैं। भू-अधिकारों के लिए ऐतिहासिक जन सत्याग्रह 2012 में भी गईं। परंतु उनकी अपनी लड़ाई अभी जारी है।
सामंधे के पति बद्री यह लड़ाई लड़ते-लड़ते चल बसे। उनके तीन बेटे हैं। एक विकलांग है और दो बच्चे काम और मजदूरी के अभाव में गांव छोड़कर जयपुर पलायन पर गए हैं। गरीबी की इस चरम स्थिति में भी उनके पास राशन कार्ड नहीं है। पहले था, लेकिन बाद में वह भी छीन लिया गया। गांव में काम नहीं मिलता, जॉब कार्ड कोरे पड़े हैं। अतः उन्हें कभी जंगल से लकड़ी लाकर बेचना पड़ती है तो कभी नदी के पत्थर तोड़ना पड़ते हैं। एक ट्राली पत्थर तोड़ने पर 300 रु. मिलते हैं और इतना काम 7 दिनों में हो पाता है।
यह कहानी अकेली सामंधे की नहीं है बल्कि इस गांव के 45 आदिवासी परिवारों के पास उनकी अपनी ही जमीन के कब्जे नहीं है। आज उनकी जमीनों या तो पंजाब से आए सरदारों ने कब्जा कर लिया या फिर श्योपुर के रसूखदारों ने। ज्ञात हो कि आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी की जमीन किसी दूसरे के नाम पर स्थानांतरित नहीं हो सकती है पर यह सब कैसे हो गया और होता जा रहा है, यह समझ से परे है?
सहरिया एक आदिम जनजाति समुदाय है जो कि देश की 75 संकटग्रस्त प्रजातियों में से एक है। इंटरनेशनल फूड पालिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (इफ्प्री) की मानें तो इस समुदाय में खाद्यसुरक्षा की गंभीर स्थितियां हैं और इनके बच्चों में पाया जाने वाला कुपोषण इथोपिया और चाड जैसे अफ्रीकी देशों से भी ज्यादा खतरनाक है। यदि इस समुदाय के साथ भू सुधारों की पहल होती है तो निश्चित रूप से यह इन्हें भूख की स्थिति से भी निजात मिल्ोगी। पर पिछले लंबे समय से चल रही इस राजनीतिक लड़ाई को अभी तक वास्तविक धरातल नहीं मिल पाया है। वैसे भी राजनीति संसाधनों के समान बंटवारे पर या तो मौन रहती है या फिर अपनी मुखर प्रतिक्रिया नहीं देती, क्योंकि उसके तार भी सामंतवाद से गहरे से जुड़े रहते हैं। सरकारें भी गरीब गुरबा समुदायों के सिर्फ वोट चाहती हैं।
महात्मा गांधी के अनुयायी विनोबा भावे के नेतृत्व में सन् 1951 में जन्मे भूदान आंदोलन ने पहले अमीरों को अपनी भूमि भूस्वामियों को स्वमेव प्रेरित किया बाद में यह भूदान अधिनियम बना गया। इस अधिनियम के अंतर्गत सरकार को भूमि बैंक से भूमि का वितरण करना था। त्रेसठ बरस पूरे कर चुके आंदोलन के अंतर्गत पिछले छः दशकों में सरकार ने 9,71,000 हेक्टेयर जमीन भूमिहीनों में बांटी है। मध्यप्रदेश में 4.10 लाख एकड़ जमीन दान में आई थी और उसमें से 2.37 लाख एकड़ जमीन का ही वितरण हुआ, बाकी की 1.7 लाख एकड़ जमीन नहीं बटी पर चम्बल घाटी, सामंधे और मायापुर जैसे प्रकरण बताते हैं कि जो जमीन भी बंटी वह जमीन दरअसल में उन्हें मिली ही नहीं जो इसके हकदार थे बल्कि जमीन तो दबंगों ने हथिया ली। सरकार के पास वर्तमान में इस भूमि से संबंधित कोई लिखित जानकारी नहीं है। ऐसी स्थिति में यह इतनी आसान प्रक्रिया नहीं है और इसके लिए संघर्ष जारी रखना होगा।
भूमिसुधारों पर दोनों ही सरकारों केंद्र एवं राज्य, ने अपने-अपने तरीके से लोगों को बरगलाया है। जब लगभग दो वर्ष पहले मध्यप्रदेश से निकलकर 50,000 पदयात्री जनसत्याग्रह अभियान के तहत दिल्ली की ओर कूच कर रहे थे तब शिवराज सरकार ने उनकी मंशा भांपी और स्वयं मुख्यमंत्र्ाी ने यात्रा में पहुंचकर कहा कि मध्यप्रदेश जो कर सकता है और उसके दायरे में जो अधिकार हैं, वह किया जाएगा। उस समय खूब तालियां बजी लेकिन वायदे यकीन में नहीं बदल पाए और नतीजा फिर वही ढाक के तीन पात …। सामंधे भी उस यात्रा में थीं और आज भी भटक रही हैं। इसी प्रकार केन्द्र ने कहा था कि वह भूमि सुधार नीति घोषित करेगी। यह नीति तो बन कर तैयार है पर सरकारी लेतलाली और व्यापक सुधारों की अनदेखी इस पर भी हावी रही। देखते-देखते 15 वीं लोकसभा का अंतिम सत्र भी समाप्त हो गया पर वह भी व्यापक भूमिसुधारों की दिशा में कुछ नहीं कर पाया।
मध्यप्रदेश सरकार भी अपने तईं यह कर सकती थी कि केंद्र के राष्ट्रीय भूमिसुधार नीति के मसौदे की तरह राज्य भूमिसुधार नीति बनाती और उसे लागू करती तथा अपनी ओर से पहल करते हुए वंचित वर्गों की जमीनों पर हुए अवैध कब्जों की पहचान करतीं और उन्हें कब्जे से छुड़ाती। पर ऐसा नहीं हुआ। श्योपुर जिले के श्योपुर, कराहल और विजयपुर ब्लाक के 239 गांवों में 1024 हेक्टेयर जमीन दबंगों के कब्जे में है। इससे पूरे प्रदेश में की भयावह स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। एक अनुमान के मुताबिक केवल ग्वालियर चम्बल संभाग में ही आदिवासियों और दलितों की 20,000 बीघा जमीन दबंगों के कब्जे में है।
आदिवासियों ने एकता परिषद के ही आनुशंगिक संगठन महात्मा गांधी सेवा आश्रम के साथ मिलकर 2007 से लड़ाई लड़नी शुरू की और बाद में 35 लोगों को नोटिस हो पाया लेकिन उनमें से अधिकांश के मौके कब्जे शेष हैं। सामंधे और बाकी अन्य गांव वालों के सामने तो करो या मरो की स्थिति ही निर्मित हो गई है। शासन व्यवस्था की नाकामी पर सामंधे कहती हैं कि सरकार से तो कोई आस नहीं है अब तो आस बस आंदोलन से ही बची है। (सप्रेस)