संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

महेश्वर परियोजना : पूरा घूमा मिथ्याचक्र

एस कुमार्स द्वारा महेश्वर जलविद्युत परियोजना के क्रियान्वयन में अनियमितताएं, हजारों करोड़ रु. व प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी के साथ ही साथ हजारों हजार निवासियों को अपने घरों से बेदखल कर दिया गया है। अब उससे यह परियोजना छीन ली गई है। गौरतलब है यह देश की निजी क्षेत्र की पहली जलविद्युत परियोजना थी। विषय विशेषज्ञ एवं नर्मदा बचाओ आंदोलन पहले दिन से इस परियोजना की अव्यावहारिकता को लेकर चेतावनी दे रहे थे। लेकिन राज्य व केंद्र सरकारों ने आँख-कान बंद करे हुए थे। अब इस सार्वजनिक हानि को कौन भुगतेगा ? पेश है सप्रेस से साभार श्रीपाद धर्माधिकारी का आलेख;

महेश्वर जलविद्युत परियोजना महत्वाकांक्षी नर्मदा घाटी विकास परियोजना के अन्तर्गत नर्मदा नदी पर बनने वाले 30 विशाल बांधों में से एक है। सन् 1990 के दशक के अंत से ही नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेतृत्व में प्रभावित परिवारों द्वारा इस परियोजना को गंभीर चुनौती दी जा रही है। राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण (एन जी टी) ने 28 अक्टूबर 2015 के अपने आदेश में पूर्ववर्ती दिशानिर्देशों को यथावत रखते हुए निर्देश दिया कि जब तक पुनर्वास का कार्य पूर्ण नहीं हो जाता तब तक 400 मेगावाट क्षमता वाली महेश्वर परियोजना बांध के दरवाजों को न तो नीचे किया जा सकता है और न ही बंद किया जा सकता है। परंतु एन जी टी का यह निर्णय हाल में आया एकमात्र महत्वपूर्ण कदम नहीं है। सितंबर 2015 की शुरुआत में इस परियोजना के ऋणदाताओं ने मुलाकात कर वस्तुतः यह तय कर लिया कि इस परियोजना को इसके प्रवर्तक एम डब्लू कार्प (पूर्व में एस. कुमार्स) से वापस ले लिया जाए। इस निर्णय से प्रतीत हो रहा है कि इससे इस परियोजना जो कि सन् 1991 में प्रारंभ हुए उदारीकरण के बाद की पहली निजी जलविद्युत परियोजना थी, ने अपना (जीवन) चक्र पूरा कर लिया है। इस परियोजना को सन् 1990 के दशक के आरंभ में एस कुमार्स जो कि टेक्सटाइल (कपड़ा) और सूटिग बनाने वाली कंपनी थी और जिसका विद्युत परियोजनाओं को लेकर कोई अनुभव नहीं था, को इसके निर्माण की जिम्मेदारी सौंप दी गई। यह था भारतीय अर्थव्यवस्था के खुलने का शुरुआती उदाहरण।

ऊर्जा क्षेत्र के माध्यम से निजी और विदेशी कंपनियों को विद्युत उत्पादन की छूट देना इन ‘‘सुधारों‘‘ का प्राथमिक तत्व था। जिन्हें एल.पी.जी. अर्थात लिब्रलाईजेनशन (उदारीकरण), प्रायवेटाइजेशन (निजीकरण), ग्लोबलाईजेशन (वैश्वीकरण) पुकारा गया। हालिया निर्णय इस परियोजना के अन्तर्गत पुनर्वास के मोर्च पर की गई आलोचना की पुष्टि करने के साथ  ही साथ परियोजना के निजीकरण से संबंधित बुद्धिमता पर भी प्रश्न उठाते हैं।

निजीकरण के दावे: सन् 1990 के शुरुआती दशक में जब विद्युत क्षेत्र को निजीकरण के लिए खोला गया तब इस निर्णय को लेकर दो महत्वपूर्ण कारण गिनाए गए थे। पहला यह कि सरकार के पास धन की कमी है और निजी क्षेत्र से उम्मीद की गई थी कि वह धन लगाएगा। दूसरी यह कि निजी क्षेत्र के आगमन से कार्यक्षमता में वृद्धि होगी। महेश्वर परियोजना हमारे सामने उधेड़ कर रख देती है कि जलविद्युत  क्षेत्र के निजीकरण में क्या क्या कमियां हैं। इस दौरान परियोजना की लागत लगातार बढ़ती गई। इतना ही नहीं परियोजना में वित्त की लगातार कमी बनी रही है जिसके कारण महत्वपूर्ण गतिविधियां थम सी गई और परियोजना की रफ्तार भी धीमी बनी रही। यह परियोजना सन् 1994 में एस कुमार्स को सौंपी गई थी जो आज तक अधूरी ही है। सरकार और निजी निवेशक के बीच का व्यवहार हमेशा अपारदर्शी बना रहा तथा बिजली खरीदी संबंधी समझौता पूरी तरह से निजी कंपनी के हित में था। इस सबके बीच लंपट पंूजीवाद एवं सरकार द्वारा अनावश्यक वित्तीय सहयोग के आरोप भी लगते रहे। सबसे बुरी बात यह रही कि परियोजना पुनर्वास प्रबंधन नहीं कर सकी। जो कि परियोजना से विस्थापित होने वालों के व्यापक संघर्ष का मूल कारण था। वहीं दूसरी ओर सरकार और कंपनी ने कमियों और अनियमितताओं संबंधी आरोपांे का प्रचंड खंडन किया। हालिया घटनाक्रम हमें स्पष्ट बता रहा है कि परियोजना में गंभीर समस्याएं थीं।

वित्तीय कारगुजारियां: महेश्वर परियोजना को ऋण देने वालों की 8 सितंबर 2015 को एक बैठक हुई। बैठक के रिकार्ड के अनुसार उस दिनांक तक निवेशक जिसमें कि प्रवर्तक भी शामिल हैं इक्विटी के तौर पर मात्र 499 करोड़ रु. ला पाए थे। इसके विपरीत ऋणदाताओं ने कुल 1815 करोड़ रु. का यानि करीब 78 प्रतिशत निवेश किया था। ज्ञातव्य है मुख्य ऋणदाता कमोवेश सरकारी स्वामित्व की वित्तीय इकाईयां थीं। इनमें शामिल हैं, पावर फाइनंेस कारपोरेशन (700 करोड़ रु.), हुडको (259 करोड़ रु.), ग्रामीण विद्युत निगम (आर ई सी) (250 करोड़ रु.) एवं भारतीय स्टेट बैंक (200 करोड़ रु.)। इससे यह दावा झूठा पड़ जाता है कि निजीकरण के माध्यम से इस क्षेत्र में बड़ी मात्रा में धन आया। केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) ने सितंबर 2015 में बताया था कि परियोजना की लागत अपने मूल अनुमान 1569 करोड़ रु. से बढ़कर 4635 करोड़ रु. तक पहुंच गई है। सी ई ए ने यह भी बताया कि वित्तीय प्रवाह न होने से परियोजना का कार्य नवंबर 2011 से बंद है। वास्तविकता यह है कि इसके पूर्व भी कार्य बहुत रुक-रुककर ही चल रहा था। इससे यह दावा भी प्रश्नों के घेरे में आ गया है कि निजी परिचालक सार्वजनिक क्षेत्र से ज्यादा कार्यकुशल होते हैं।

वित्तीय कुप्रबंधन: हालांकि परियोजना द्वारा यह दावा किया जाता रहा है कि प्राप्त वित्त पूरी तरह से सुरक्षित है और यह परियोजना वित्तीय समापन की ओर पहुंच चुकी है। दूसरी ओर इसके पास वित्त की अत्यंत कमी है। जिसकी वजह से पुनर्वास कार्य सीधे-सीधे प्रभावित हो रहा है। कम से कम पुनर्वास में पिछड़ने का यही कारण बताया जा रहा है। वैसे इसके और भी कारण हैं जैसे कि लोगों के पुनर्वास हेतु भूमि की अनुपलब्धता, आदि। इसका गंभीर परिणाम मध्यप्रदेश विद्युत प्रबंधन कंपनी के माध्यम से राज्य सरकार को भी भुगतना पड़ा। उसे एक लेनदार को 102 करोड़ रु.  इसलिए वापस करना पड़े क्योंकि वह भी इस परियोजना में उधारी चुकाने को लेकर एक ग्यारंटर है और निजी कंपनी ने ऋण वापस नहीं लौटाया। अब सवाल उठता है कि मध्यप्रदेश सरकार को ऐसी ग्यारंटी क्यों देना पड़ी ?

परियोजना के वस्तुतः बंद हो जाने के बावजूद परियोजना के जीर्णोद्वार हेतु 16 अक्टूबर 2014 को मध्यप्रदेश सरकार के अतिरिक्त मुख्य सचिव (वित्त) की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। समिति ने 2 मई 2015 को अपनी रिपोर्ट दे दी। अपनी रिपोर्ट में समिति ने तीन संभाव्य हल सुझाए। पहला सुझाव था कि परियोजना प्रवर्तक को अतिरिक्त इक्विटी एवं ऋण लाकर इस परियोजना को पूर्ण करना होगा। यह कुल रकम करीब 1800 करोड़ रु. होगी। जिसमें से 600 करोड़ रु. इक्विटी एवं बकाया ऋण के रूप में होगा। वास्तव में रकम तो और ज्यादा होना चाहिए थी क्योंकि सी ई  ए के अनुमान के अनुसार परियोजना लागत में खाई और अधिक थी और अब तक परियोजना पर 2300 करोड़ रु. खर्च किए जा चुके है। दूसरी ओर जानकार तो परियोजना की लागत 6000 करोड़ रु. बता रहे हैं। इसका अर्थ हुआ कि कंपनी को अभी 3685 करोड़ रु. और लाने होंगे। प्रवर्तकों को इस हेतु तीन महीने दिए गए थे। अन्यथा दूसरा विकल्प स्वमेव प्रभावशाली हो जाने की बात कही गई थी। इसके अनुसार परियोजना में सम्मिलित लेनदार परियोजना का अधिग्रहण कर लेंगे एवं कोई सार्वजनिक उद्यम इसका परिचालन करेगा। अंतिम विकल्प है कि यदि कोई सार्वजनिक कंपनी इस परियोजना को खरीदने को तैयार नहीं होती है तो इस परियोजना का परित्याग कर दिया जाएगा।

क्रेता की तलाश: लेनदारों की 8 सितंबर 2015 की बैठक में यह पाया गया कि प्रवर्तक दिए गए 90 दिनों में इच्छित रकम ला पाने में असमर्थ रहे हैं अतएव दूसरा विकल्प लागू हो गया है। इसके तुरंत बाद ऋणदाताओं ने कंपनी के प्रबंधन पर नियंत्रण हेतु बहुमत शेयर की जुगाड़ के साथ ही साथ ऐसी किसी सार्वजनिक कंपनी की खोज भी प्रारंभ कर दी जो कि इस परियोजना को संभाल ले। लेकिन परिदृश्य बहुत सकारात्मक नहीं है। जो भी सरकारी कंपनी इसे संभालेगी उसे न्यूनतम 1800 करोड़ या इससे भी अधिक की व्यवस्था करनी होगी। उधर राज्य सरकार ने घोषणा कर दी है कि वह परियोजना से प्राप्त बिजली हेतु अधिकतम 5.32 पैसे प्रति यूनिट ही देगी। इससे लागत की वापसी जिसमें पूंजी और ब्याज भी शामिल हैं, की संभावना अत्यन्त क्षीण हो गई है। गौरतलब है दिसंबर 2011 में ही परियोजना द्वारा 8.53 पैसे प्रति यूनिट शुल्क दर का अनुमान लगाया गया था।
इसके उलट हम देखें कि हाल ही में सौर ऊर्जा से विद्युत उत्पादन हेतु 5-6 रु. प्रति यूनिट की दर से संविदा भरी गई है। इसके अलावा नए क्रेता को पूर्व में निर्मित बांध एवं अन्य सुविधाओं के घटिया रखरखाव की समस्या से भी दो-चार होना पड़ेगा। संभवतया उसे इन्हें ठीक ठाक करने के लिए अतिरिक्त धन की आवश्यकता पड़ेगी।
उधर एन जी टी के आदेश ने यह सिद्ध कर दिया है कि परियोजना का निर्माण कार्य तो आगे बढ़ा है और इससे तमाम क्षेत्र प्रभावित भी हुए हैं। परंतु पुनर्वास का काम पिछड़ गया है। यह परियोजना को दी गई पर्यावरणीय स्वीकृति की शर्तों एवं विस्थापित होने वाले समुदाय के मानवाधिकारों, दोनों का घोर उल्लंघन है। इस बीच निजी प्रवर्तक एस कुमार्स ने अपना नया नामकरण एम डब्लू कार्प कर लिया है और वह अपने पीछे व्यापक अराजकता छोड़ गया है। साथ ही इस बात की कोई संभावना नहीं है कि वह इसे दूर करने के लिए आगे आएगा। इस परियोजना के परिचालन हेतु अब कोई सरकारी कंपनी ही आगे आ सकती है, जिसका अर्थ है कि निजी कंपनी को संकट से बाहर निकालने और उसके द्वारा निर्मित समस्याओं को दूर करने के लिए सार्वजनिक धन का प्रयोग किया जाएगा।

जवाबदेही का मुद्दा: नर्मदा बचाओ आंदोलन, जो कि महेश्वर से विस्थापित होने वालों के संघर्ष की अगुवाई कर रहा है, ने 31 अक्टूबर 2015 को जारी एक प्रेस विज्ञप्ति में एस कुमार्स की बेदखली और सरकार द्वारा परियोजना के अधिग्रहण का स्वागत किया। साथ ही इसने यह मांग भी रखी है कि सरकार यह सुनिश्चित करे कि विद्युत शुल्क 3.50 पैसे प्रति यूनिट से ज्यादा नहीं होगा। क्या सरकार के लिए ऐसा कर पाना संभव है ? विज्ञप्ति में बताया गया है कि, ‘‘पिछले 20 वर्षाें से नर्मदा बचाओ आंदोलन सतत् संघर्ष के द्वारा परियोजना की वैधता और पुनर्वास से संबंधित गंभीर प्रश्न उठा रहा है। हजारों विस्थापित पिछले 20 वर्षों से इस परियोजना से प्राप्त होने वाली ऊर्जा की अत्यन्त ऊँची लागत, सी ए जी रिपोर्ट में दर्शाई परियोजना के अंतर्गत हुई गंभीर वित्तीय अनियमितताओं और हजारों विस्थापितों के पुनर्वास में मिली पूर्ण असफलता के मुद्दों पर सघन एवं सतत् संघर्ष करते रहे हैं।

दूसरे शब्दों में कहें तो सरकार को परियोजना की खामियों को लेकर पिछले 20 वर्षाें में कई बार चेताया जा चुका है। इसके बावजूद परियोजना आज जिस स्तर पर पहुंच गई है उससे लगता है कि तीसरा विकल्प अर्थात परित्याग ही एकमात्र समाधान है। ऐसे में कई बड़े प्रश्न खड़े होते हैं। महेश्वर बांध की दीवार  खड़ी हो चुकी है। इसकी वजह से नदी के प्रवाह में जबरदस्त रुकावट आई है। इकोसिस्टम भी प्रभावित हुआ है और तमाम लोग विस्थापित भी हो चुके हैं। इस सबके चलते यदि परियोजना पर ताला पड़ जाता है तो इन सबके साथ हुए अन्याय तथा अनावश्यक रूप से खर्च हो चुके हजारों करोड़ रु. के लिए किसे जिम्मेदार ठहराया जाएगा? ऐसे में महेश्वर  देश को रास्ता दिखला सकता है कि ऐसे गड़बड़ घोटाला करने वालों को कैसे जवाबदेह एवं उत्तरदायी बनाया जाए। हम केवल उम्मीद ही कर सकते हैं कि (सरकार द्वारा) इस अवसर को शुद्ध अंतःकरण और पूरी ईमानदारी से भुनाया जाएगा।

(श्रीपाद धर्माधिकारी मंथन अध्ययन केंद्र जिसकी स्थापना जल एवं ऊर्जा संबंधित विषयों के शोध, 
   विश्लेषण एवं निगरानी के लिए की गई है, के समन्वयक हैं।)

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