कारपोरेट दलाल मोदी सरकार के ‘अध्यादेशराज’ के खिलाफ दिल्ली में गूंजी किसानों की आवाज़
24 फ़रवरी 2015 को देश के कोने-कोने से जबरिया भू-अधिग्रहण के खिलाफ 350 से भी ज्यादा जनांदोलनों के मोर्चे पर संघर्ष करते किसानों और समाजकर्मियों के कारवां ने राजधानी दिल्ली में मजबूत दस्तक दी. उड़ीसा के पोस्को से लेकर हरियाणा तक के किसानों का हुजूम जब दिल्ली के जंतर-मंतर पहुंचा तो राजधानी में सियासी सरगर्मियां तेज हो गईं और मोदी सरकार अपना बचाव करती नज़र आई. वहीं आन्दोलनों में आपसी तालमेल और नामी चेहरों के मौजूदगी के बावजूद अपना सामूहिक नेतृत्व बनाए रखने की परिपक्वता भी दिखाई दी.
जंतर मंतर पर कल दो स्टेज बने हुए थे और अन्ना को अपना स्टेज छोड़कर देशभर से आए भू-अधिग्रहण विरोधी आन्दोलनों के साझा मंच पर आना पड़ा। इस तरफ लोग ज़्यादा थे और लगाम वाम/जनांदोलनों के हाथ में थी. भू-अधिग्रहण बिल को पूरी तरह खारिज करने की मांग पर आम सहमति थी, झंडों और संगठनों की विविधता के पार. देश के किसान और मजदूरों की एकताबद्ध कतारें साफ़ इशारा कर रहीं थीं कि ज़मीन के मुद्दे पर अब भारत के गाँवों का धीरज टूट चूका है और वे आर-पार की लड़ाई की मुद्रा में हैं.
देश का संविधान सभी देशवासियों के लिए समता, न्याय, भाईचारा और समाजवाद के मूल्यों पर आधारित है, फिर भी इस देश के किसान, खेत मजदूर, व अन्य श्रमिक तबके पिछले कई दशकों से विस्थापन, बेकारी व बदहाली से त्रस्त हैं. प्रकृत पर निर्भर रहते हुए अपनी मेहनत पर जीने वाले देश के ये समुदाय अपने हकों के लिए संघर्ष करते हुए समय-समय पर चुने हुए जन प्रतिनिधियों व देश की सरकारों को जनपक्षधर कानून बनाने के लिए मजबूर करते रहे हैं.
ब्रिटिशों द्वारा बनाए गए भू-अधिग्रहण कानून-1894 के खिलाफ इस देश की जनता द्वारा देश भर में चलाये गए जनांदोलनों के बाद पिछली संप्रग सरकार उस कानून को बदल कर भू-अधिग्रहण कानून-2013 को लाने के लिए बाध्य हुई थी. जनांदोलनों की मांग थी कि भू-अधिग्रहण की कार्यवाही शुरू होने से पहले जनतांत्रिक प्रक्रिया के तहत ग्राम सभा, शहरों की बस्ती सभा तथा प्रभावित होने वाले किसान, मजदूर, मछुआरों की सहमती लेना जरुरी होना चाहिए, प्रत्येक परियोजना में न्यूनतम विस्थापन तथा विस्थापितों की आजीविका सुनिश्चित होनी चाहिए, खेती योग्य ज़मीनें गैर कृषि कार्यों के लिए न दी जाए, उद्योग बंजर ज़मीनों पर ही लगाए जाएँ और अर्जेंसी धारा का उपयोग आपदा की स्थिति में ही किया जाय, किसानों व आदिवासियों से भूमि जबरन छीनकर पूंजीपतियों और उद्योगपतियों को औद्योगीकरण के नाम पर अय्याशी और ज़मींदारी को बढ़ावा देने के लिए आवंटित करना बंद हो, भूमि व चारागाहों पर भूमिहीनों, समुन्द्र तट पर मछुआरों के हकों को मान्यता देते हुए किसानों के साथ उन्हें भी विकास नियोजन की प्रक्रिया में सहभागी बनाया जाए.
क्या हैं भू-अधिग्रहण कानून-2013 के प्रावधान?
जनांदोलनों की मांगों में से कुछ को वर्ष 2013 में बने भू-अधिग्रहण कानून में समाहित किया गया, जबकि अधिकांश मांगों को इस क़ानून के दायरे से बाहर रखा गया. इस कानून में निजी और पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) की परियोंजनाओं में प्रभावित होने वाले 70 प्रतिशत किसानों से भूमि अधिग्रहण के सम्बन्ध में सहमती लेने, अन्न सुरक्षा की दृष्टि से बहुफसली ज़मीनों का अधिग्रहण न करने व ग्रामसभाओं की सहभागिता से परियोजनाओं के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव आंकलन का अध्ययन करने तथा केवल प्राकृतिक आपदा की स्थिति में ही अर्जेसी धारा का उपयोग करने के प्रावधान नए कानून में शामिल किये गए.
2013 के कानून में पुनर्वास को भू-अर्जन से तो ज़रूर जोड़ा गया, लेकिन प्रभावितों के वैकल्पिक आजीविका के प्रश्न को हल नही किया गया. किसी तरह से सिंचाई परियोजनाओं से विस्थापित हुए एस.सी/एस.टी. परिवारों को ढाई एकड़ व अन्य परिवारों को मात्र 1 एकड़़ ज़मीनें और संभव हुआ तो प्रभावित परिवारों के नौजवानों को नौकरी अन्यथा नौकरी देने के बदले पांच लाख रुपये देने, अधिग्रहित ज़मीनों का मुआवजा ‘मार्किट या सरकारी रेट’ से दो से चार गुना तक बढाकर देने का प्रावधान रखा गया. इस कानून में मौजूद उन जमीन मालिकों को ‘जमीन वापसी’ का प्रावधान महत्वपूर्ण है जहां पांच या अधिक साल पहले भू-अर्जन होने के बाद भी ज़मीन मूल मालिक के कब्जे में ही रही हो और उन्होंने मुआवजा नही स्वीकार किया
अध्यादेश ने मूल जनतांत्रिक नियोजन को खतम किया
नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा सत्ता में आते ही शुरू किये गए अध्यादेश राज ने इस क़ानून की जन पक्षधर प्रावधानों को खतम किया है. भूमि अधिग्रहण अध्यादेश में निजी परियोजनाओं के लिए भी भूमि अधिग्रहण के सम्बन्ध में भूमिधर किसानों की सहमती को ज़रूरी नही माना गया है, तथा अध्यादेश खेती की बहुफसली ज़मीन को भी उद्योगों के लिए देने का प्रावधान रखता है. इसमें कंपनियों के लिए हर प्रकार की शासकीय व पीपीपी परियोजनाओं, निजी अस्पताल व स्कूल जैसी संस्थाओं इत्यादि के लिए ज़मीनें अधिग्रहित करने की छूट दी है.
यद्यपि अध्यादेश में पुनर्वास हेतु मुआवजा देने का प्रावधान बरकरार रखा गया है, लेकिन यह कड़वी सच्चाई है कि बढ़ा हुआ मुआवजा भी वैकल्पिक आजीविका नही दे सकता है. केंद्र की भाजपा सरकार द्वारा ये अध्यादेश लाये गए हैं ताकि उद्योगपतियों व देशी विदेशी कम्पनियों व बिल्डरों को औद्योगिक कॉरिडोरों को बनाने, खदान खोलने, गरीबों के लिए सस्ते आवास निर्माण के नाम पर रियल स्टेट बनाने व इससे मुनाफा कमाने के लिए जमीनें किसानों से छीन कर उन्हें दी जा सकें. अकेले दिल्ली-मुम्बई कॉरीडोर के लिए ही 390,000 वर्ग हेक्टयर क्षेत्रफल की कृषि योग्य ज़मीनें किसानों के हाथों से निकल कर कंपनियों के हाथों में चली जायेंगीं.
आज चेन्नई, मुम्बई, हैदराबाद व रांची जैसे शहरों की बस्तियों पर बुलडोजरों के हमले तेज हो चले हैं. राज्यों की राजधानियों के विस्तार और चकाचौंध बढ़ाने के नाम पर आम जनता की हजारों हेक्टयर जमीनों की लूट जारी है. हैदराबाद व रायपुर जैसे शहरों में अम्बानी, अदानी, टाटा, मित्तल जैसे नए जमींदारों की ज़मींदारी को समृद्ध और सुरक्षित करने के लिए प्रकृति पर जीने वाले समाजों को ध्वस्त किया जा रहा है, और साथ ही पर्यावरणीय कानून, कानूनी मंजूरियों के प्रावधान, श्रम कानून, वनाधिकार कानून, रोजगार गारंटी व खाद्य सुरक्षा जैसे कानूनों को भी बदलने की प्रक्रिया शुरू कर दी गयी है.
साथियों, देश की वर्तमान केंद्र सरकार जाति व मजहब के नाम पर समाज को बांटते हुए और साथ ही सेक्युलर, समाजवादी और न्यायपूर्ण संविधान को नकारते हुए देश की सम्पदा देशी-विदेशी-कंपनियों के हांथों में हस्तानांतरित कर रही है, जो कि जनता, जनतंत्र और देश के संविधान की घोर अवमानना है. इसलिए आज समय की मांग है कि सरकार द्वारा लाये गए जनविरोधी अध्यादेशों के खिलाफ निर्णायक संघर्ष में उतरा जाए.
हम इसे बर्दाश्त नही करेंगें-
- जनविरोधी अध्यादेश को रद्द किया जाए.
- इन अध्यादेशों को संसद द्वारा कानून में न बदला जाए.
- किसानों और मछुआरों से भूमि छीनना बंद किया जाए, और जबरन भूमि अधिग्रहण पर प्रभावी रोक लगाई जाए.
- शासन और विकास के कारपोरेटीकरण पर लगाम लगाकर गावों और बस्तियों को उजाड़ने पर रोक लगाई जाए.
खत्म करो अध्यादेश राज !!
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