पन्ना टाइगर रिजर्व पार्क : शेरों के संरक्षण के लिए आदिवासियों की बलि
मध्य प्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित पन्ना टाइगर रिजर्व पर्यटन के लिए पूरी दुनिया में मशहूर है। औसतन हर साल इस टाईगर रिजर्व में 40000 देशी-विदेशी पर्यटक आते हैं। किंतु इन पर्यटकों के मनोरंजन के लिए बने इस पार्क की असली कीमत कौन चुका रहा है यह जानने के लिए इस पार्क से जुड़ी दो पंचायतों पल्कोहं और खर्यानी के स्थानीय निवासियों तथा आदिवासियों से पता चलता है। जब सरकार ने केन-बेतवा रिवर लिंकिग परियोजना प्रस्तावित की तो यहां के स्थानीय निवासियों ने उसे अच्छा मुआवजा मिलने की शर्त पर सहर्ष स्वीकार कर लिया। अपनी पुरखों की जमीन, अपना घर-बार सब कुछ छोड़कर जाने के लिए यह लोग इतनी आसानी से सिर्फ इसलिए तैयार हो गए क्योंकि पहले इस टाइगर रिजर्व की वजह से उनकी आजिविका छीनी जा चुकी है। वन विभाग ने जंगल के उत्पाद इक्कठा करने, उन्हें बेचने, मछली पकड़ने तथा जंगल में पशु चराई जैसे पारम्परिक कार्यों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है। मनरेगा का काम भी नहीं चलता है। ऐसे में इन गांववालों के पास कहीं और जाकर बसने के सिवा कोई रास्ता नहीं बचा है। इसमें सबसे रोचक बात यह है कि वन विभाग गांव वालों को वनों में किसी भी तरह घुसने नहीं देता है किंतु केन-बेतवा रिवर लिंकिंग परियोजना के लिए वन विभाग ने टाइगर रिजर्व 4100 हेक्टेयर भूमि अधिग्रहित की जाने पर सहमति दे दी है। इन गांवों और वहां की स्थानीय आबादी की हालत को और करीब से जानने के लिए हिमालय नीति अभियान के संयोजक गुमान सिंह ने अपने साथियों के साथ इस इलाके का दौरा किया। हम यहां आपके साथ इस दौरे की एक विस्तृत रिपोर्ट साझा कर रहे हैं;
पन्ना टाइगर रिज़र्व, मध्यप्रदेश के गंगऊ प्रवेश द्वार भतौर से 20-25 किलोमीटर भीतर बिचों-बिच कोर जोन में बसी हैं ग्राम पंचायत पल्कोहं और खर्यानी, जिन की जन संख्या पांच हजार के करीव है. यहाँ कभी गोंड राजा का वानव गढ़ का किला भी होता था. 13 दिसम्बर, 2016 की सुबह हम इन गावों के लिए पन्ना से रवाना हुए. प्रवेश द्वार भतौर से अंदर जाने के लिए वन विभाग की अनुमति लेना जरुरी है, जबकि स्थानीय निवासियों को भी गेट पर नाम दर्ज करवाना होता है. खर्यानी के सरपंच पंडित जी, जिन के कथनानुसार उन के पुरखे कभी गोंड राजा के गुरु थे, हमारे साथ थे. इसलिए अनुमति के झंझट से बच गए. प्रवेश द्वार से पल्कोहं तक कची सडक है. जिस में गढ़े ही गढ़े हैं, परन्तु फिर भी छोटी गाड़ी से लोग आना जाना करते हैं.
सड़क की मुरामत और पक्का करने का कार्य टाइगर रिज़र्व के अधिकारी नहीं करने देते. रास्ते में सरपंच जी ने गंगऊ बांध के दर्शन करवाए. यह बांध अग्रेजों ने 1909 से 1915 के दौरान केन नदी पर बनवाया था. जो अभी तक भी जिला बाँदा को पानी पिला रहा है और बांध आज तक उतर प्रदेश सरकार के नियंत्रण में ही है. सरपंच पपू मिश्रा के मुताविक पल्कोहं, डोडन और खर्यानी तथा कुछ दुसरे गांवों की कृषि भूमि इस बांध में 1915 में जलमग्न हो गई थी. तब से स्थानीय लोग डूब क्षेत्र से पीछे केन नदी के किनारे खेती करने लगे हैं. खेती बरसात में पानी में डूब जाती है परन्तु रवि की फसल में खास कर सरसों और गेहूं बहुत अच्छी आती है. हमें खेती में कभी खाद डालने की जरूरत नहीं पड़ती. पल्कोहं गावों में पहुंचने पर देखने में आया कि यहाँ आठवीं तक की सरकारी पाठशाला व आंगनबाड़ी केंद्र है. परन्तु आगे की पढाई, इलाज व बाजार के लिए 35 किलोमीटर दूर जाना पड़ता है.
डोडन गांव के वासियों से बातचीत के दौरान पता चला गांव के साथ में ही केन-बेतवा रिवर लिंकिंग परियोजना का बांध प्रस्तावित है. जिस में ये तीनों गावों डूब रहे हैं. जन सुनवाई में तीनों गावों वालों ने सहमति दी है और मांग की, कि हमें अच्छा पैसा दिया जाए. हम यहाँ से कहीं दूसरी जगह बस जाएँगे. क्योंकि जब से टाइगर रिज़र्व बना है, तब से हमारे तमाम विकास कार्य रुक गए हैं. गांव में कोई भी रोजगार के साधन उपलब्ध नहीं हैं. जंगल के उत्पाद इक्कठा करने, उन्हें बेचने, मछली पकड़ने तथा जंगल में पशु चराई जैसे पारम्परिक कार्यों पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है. मनरेगा का काम भी नहीं चलता है. इसी कारण गांव के 80% घरों में ताले लगे हैं. ये सभी लोग फसल की बिजाई के बाद सपरिवार रोजगार के लिए शहरों की ओर पलायन करते हैं. मुझे बताया गया कि अब घरों पर केवल ताले नहीं लगते, वल्कि घर के बाहर आंगन में बाड लगाई जाती है. ऐसे में उन्हें केन-बेतवा परियोजना से कुछ फायदा होने की उमीद लगती है.
पल्कोहं के गांव बासियों ने बताया कि आजादी के बाद साल 1998-99 तक, जिस भूमि पर हम आज भी खेती कर रहे हैं, उस की सालाना 50 रुपया प्रति एकड़ वोली (lease money) राजस्व विभाग को देते थे. जिसे बाद में बढ़ा कर तीन साल के लिए 200 रुपया कर दिया गया था. टाइगर रिजर्व बनने के बाद वोली लेना बंद कर दिया गया. अब हमारी कृषि भूमि को वन विभाग अपना कह रहा है तथा हमें भूमि खाली करने व खेती बंद करने को कहता है. बर्ष 1998-99 से पहले कुछ गांव वासियों को जमींन के पट्टे भी दिए गए थे, परन्तु अब पटवारी कहते हैं कि उन के पट्टे निरस्त कर दिए गए हैं.
पल्कोहं के सरपंच जमना यादव ने बताया की इस गांव में 17 जातिओं के लोग रहते हैं. जिस में मुख्य कोइदा आदिवासी, बसुर, कोरी, डिमर (सभी दलित) और यादव सदियों से रह रहे हैं. आदिवासी और दलित ज्यादातर भूमि हीन हैं, क्योंकि ये वन उत्पाद जैसे कंद, फल, जडीबुटी, चिरोंजी, गोंद, तेंदू पत्ता, नदी से मछली पकड़ना, पशुपालन और दस्तकारी इत्यादि पर आजीविका के लिए निर्भर थे. ऐसे में टाइगर रिजर्व इन लोगों के लिए अभिशाप बन कर आया है. सभी निस्तार अधिकार समाप्त कर दिए गए हैं. कई बार जंगल में वन उत्पाद के लिए जाने, मछली पकड़ने तथा पशुओं के गावं से बाहर जाने पर वन विभाग ने हमें जुर्माना किया और पशुओं को कांजी घर में बंद कर दिया जाता है. बाकि गावं के हालत क्या है आप स्वयं समझ सकते हैं. मैं तो परिस्थिति की सनसनी व भावुक कहानी नहीं लिख सकता.
जब हम ने वन अधिकार कानून के बारे में उन से पूछा तो सरपंचों को भी इस का भान नहीं था. पंचायत सचिव ने बताया कि मैं पहले दूसरी पंचायत में था, वहां हमने पांच साल पहले वन समिति बनाई थी, परन्तु यहाँ का उसे भी पता नहीं है. इस से पहले दिन मैं छतरपुर जिला संयोजक आदिम जाति कल्याण विभाग से मिलने गया था, जो यहाँ का जिला मुख्यालय है. जिला संयोजक से तो मुझे कोई खास जानकारी प्राप्त नहीं हुई, परन्तु वन अधिकार के लिपिक से अच्छी जानकारी मिली. यह व्यक्ति वन अधिकार कानून का अच्छा जानकार है व उत्साही भी लगा. उस से मालूम हुआ कि जुलाई 2014 को विशेष अभियान के दौरान 8238 व्यक्तिगत तथा 1124 सामुदायिक वन अधिकार के दावे जिला स्तर पर प्राप्त हुए थे. जिन में से 497 व्यक्तिगत तथा 240 सामुदायिक दावे मान्य किए गए. परन्तु व्यक्तिगत दावे केवल आदिम जाति के ही मान्य किये गए. जबकि सामुदायिक दावे में सभी शामिल हैं. अन्य परम्परगत वन निवासियों के व्यक्तिगत दावों की मान्यता पर पूछे मेरे प्रश्न पर उन्हों ने उतर दिया कि शासन का ऐसा ही आदेश है. अन्यथा उस का वन भूमि पर तीन पुश्त पुराना कब्जा होना चाहिए. वास्तव में यह व्याख्या कानून सम्मत नहीं है.
अब सवाल यह उठता है कि जब पुरे जिला में विशेष अभियान चलाया गया तो ऐसे में इन दो पंचायतों में वन अधिकार कानून लागु करने का कार्य क्यों नहीं किया गया. इस बात की भनक हमें कार्यालय में ही लगी, जब जिला संयोजक ने बताया कि यह क्षेत्र टाइगर रिजर्व में पड़ता है. परन्तु असली मसला तो केन-बेतवा रिवर लिंकिंग परियाजना है जिस कारण यहाँ वन अधिकार कानून लागु करवाने की पहल नहीं की गई. इस परियोजना में 4100 हेक्टर भूमि टाइगर रिज़र्व के कोर ज़ोन की ही अधिग्रहित होगी, जिस पर वन विभाग ने सहमती दे दी है.
मैंने जब लोगों से पूछा की यहाँ से विस्थापित होने पर कहाँ जाओगे? लोगों ने तुरंत जबाव दिया की सरकार हमें अच्छा पैसा दे. कहाँ बसना है, हम खुद देख लेंगे. मैंने जब सवाल किया कि ऐसे हालत में कृषि भूमि का अच्छा पैसा तो आप को नहीं मिलेगा. इस के लिए टाइगर रिज़र्व ने पहले ही दावा कर लिया होगा? सरपंच ने इस पर उतर दिया कि उन्होंने तो इस कृषि भूमि का मुआवजे का दावा सरकार से कर लिया है. अब सवाल यह है कि इन के कच्चे घरों और स्थान विस्थापन का कितना मुआवजा मिलेगा?
वन अधिकार कानून के तहत ही इन को भूमि अधिकार हासिल हो सकते हैं. तभी इन्हें कृषि भूमि और वन भूमि का मुआवजा भी मिल सकता है. जब मैंने उन्हें यह बताया तो वे सभी सक्रिय और उत्साहित हो गए. वन अधिकार के सभी दस्तावेज भी हमने उन्हें दे दिए. मालूम नहीं आगे क्या होता है और वे क्या करते हैं तथा उन्हें क्या मंजूर है?
मेरे साथ साथी युसूफ वेग और ऋषिकेश अवस्थी इस यात्रा में थे. उन का यहाँ पहुँचाने के लिए धन्यवाद. श्रीधर जी का भी आभारी हूँ, जिन्होंने मुझे यहाँ जाने के लिए प्रेरित किया.
ग्राम पंचायत पल्कोहं और खर्यानी के निवासियों के सुखद व उज्वल भविष्य की शुभ कामना!