कारगिल विजय के बाद अब जल,जंगल, जमीन की रक्षा की जंग की शुरूआत
जयराम सीकर जिले के नीम का थाना तहलील के डाबला गांव का रहने वाला है. वह भारतीय सेना की राजपूताना राइफल की दूसरी रेजिमेंट में नायक था तथा कारगिल की लड़ाई में लड़ते हुए उसने इक्कीस साथियों को खोया था. उसे भी दो गोलियाँ लगी लेकिन घायल जयराम ने तोलोलिंग पहाड़ी पर तिरंगा फहरा दिया इस का पुरष्कार राष्ट्रपति ने वीरता चक्र प्रदान करके दिया था.
जयराम गांव वालों को सगठित करता है तो प्रशासन जयराम को फर्जी मुकदमों में फैसा देता है. अंततः जयराम तय करता है कि नोकरी में रहते हुये डाबला गांव की पहाड़ी को नहीं बचाया जा सकता.
वीरता चक्र विजेता जयराम डाबला गांव में छुट्टी आता है तो देखता है की डाबला में दिन रात उडती रेत की धुल, पत्थर ले कर 24 घंटे आते जाते बड़े बड़े डम्फर, ब्लास्टिंग से उड़ कर गिरते बड़े बड़े पत्थर, खान से रोजाना निकलती मिटटी से बनते पहाड़ यह सब मिल कर डाबला को जोखिम और रोगों की हृदयस्थली बना रहे हैं.
जयराम अब अपनी पहाड़ी को बचाने की लड़ाई की जंग की शुरुआत करने जा रहा है. ऐसे जाबाज जवान को सलाम….पेश है यहां पर कैलाश मीना की टिप्पणी
कारगिल युद्ध में दुश्मन के दांत खट्टे करने वाला राजस्थान का जांबाज जयराम सेना की नौकरी छोडकर भ्रष्टाचार और खनन माफिया से लड़ने आया है। व्यवस्था के मुंह पर यह जोरदार तमाचा है। यह एक उदाहरण काफी है कि हमारी सेना के जवान देश के आंतरिक हालात से कितने चिंतित और परेशान हैं। देशभक्ति के जज्बे से भरपूर सेना के जवान दुश्मन से तो लड़ लेते हैं लेकिन जब उन्हें लगता है कि उनके अपने लोग ही उनके परिवार को नुकसान पहुंचा रहे हैं या उनकी जमीनों पर कब्जे कर रहे हैं या फिर खनन माफिया ने लोगों का जीना मुश्किल कर दिया है तो वे विचलित हो जाते हैं। कभी प्रशासन के पास किसी जवान के परिवार से जुड़ी समस्या पहुंचने पर प्राथमिकता से कार्रवाई हुआ करती थी। इससे यह फायदा होता था कि हमारे जवानों को अपने घर-परिवार की चिंता कम सताती थी। अब तो यह स्थिति है कि जवानों के परिवार की जमीनों और घरों पर कब्जे हो जाते हैं और उनके परिजन परेशान होकर इधर-उधर भागते फिरते हैं। ऐसे में किसी जवान से सीमा पर मुस्तैद रहने की अपेक्षा कैसे की जा सकती है।
राज्य ही नहीं पूरे देश का प्रशासनिक तंत्र चरमरा गया है। राजनीतिक प्रभाव, बाहुबल और धनबल ने पूरे तंत्र को अपनी पकड़ में ले लिया है। कमजोर का न सम्मान सुरक्षित और न जान। लठैतों के बल पर कमजोर की जमीन-जायदाद पर कब्जा करना सामान्य बात हो चुकी है। नेताओं और नौकरशाहों का ऐसा गठजोड़ बन गया है. जिनकी वजह से नए-नए माफिया जन्म ले रहे हैं। चाहे खनन माफिया हो या भू माफिया ये सरकार और प्रशासन की विफलता की ही निशानी हैं। जब कानून का राज कमजोर पड़ता है. तो ऐसे माफिया जन्म लेते हैं और जिसकी लाठी उसकी भैंस जैसी स्थिति पैदा हो सकती है। किसी भी लोकतंत्र के लिए इससे शर्मनाक स्थिति नहीं हो सकती। ऐसे हालात न केवल लोकतंत्र को कमजोर कर रहे हैं. बल्कि देश को भी खतरे में डाल रहे हैं। सरकारों और राजनीतिक दलों को दीवार पर लिखी इस चेतावनी को समझना चाहिए और ऐसी व्यवस्था तो करनी ही चाहिए. जिससे सेना के किसी जवान को नौकरी छोड़कर माफिया से लड़ने न आना पड़े।