बुंदेलखंड : संकट में उम्मीद का सहारा
देश के सबसे केंद्र में स्थित बुंदेलखंड सूखा व ओलावृष्टि से लगातार प्रभावित हो रहा है। पिछले डेढ़ दशक से लगातार मौसम प्रतिकूलता की मार झेल रहा यह क्षेत्र अब उम्मीद कर रहा है कि नीति निर्धारक इस क्षेत्र का संकट दूर करने के लिए कुछ नए ढंग से सोचेंगे। जिस तरह जीवनबीमा, जीवन का पर्याय नहीं हो सकता ठीक उसी तरह कृषि बीमा भी कृषि का विकल्प नहीं हो सकता। पेश है भारत डोगरा का महत्वपूर्ण आलेख जिसे हम सप्रेस से साभार आप से साझा कर रहे है;
उत्तरप्रदेश के बुंदेलखंड अंचल के बांदा जिले (बिसंडा ब्लाक) के ओरम गांव में मन्नूलाल के घर में गहरी उदासी जैसे पसर कर बैठ गई है और वहां से जाने का नाम नहीं ले रही है। कुछ महीनों पहले मन्नूलाल ने इसी आंगन में दिन दहाड़े एक पेड़ से फांसी लगा ली थी। आसपास के कई लोग देखते रह गए और गहरे आवेष और अवसाद से त्रस्त मन्नूलाल ने गले में फंदा डालकर अपना जीवन समाप्त कर दिया।
उस समय तमाम अधिकारी आए और उन्होंने सहायता के आष्वासन दिए पर वास्तव में इस परिवार को कोई सहायता नहीं मिली। दिसंबर माह में जब हम यहां पंहुचे तब उनकी पत्नी कहीं मजदूरी के लिए गई हुई थी। एक बेटा प्रवासी मजदूर के रूप में किसी दूर के क्षेत्र में जा चुका था, छोटा बेटा आसपास ही मजदूरी की तलाष में भटक रहा था व बेटी श्यामा बहुत उदास और अकेली बैठी हुई थी। वह इतनी दुखी और निराष थी कि कुछ बोल ही नहीं पा रही थी।
बंुदेलखंड यात्रा के दौरान आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवार के सदस्यों से मिलने पर बार-बार यह अहसास हुआ कि वे अपने को बहुत अकेला महसूस कर रहे हैं। आर्थिक तंगी के अतिरिक्त कई महिलाओं को और भी कई तरह की परेषानियों को झेलना पड़ रहा है जैसे उनसे जमीन छीनने के प्रयास हो रहे हैं। इस स्थिति में यह बहुत जरूरी है कि उनकी समस्याओं पर तुरंत ध्यान दिया जाए।
बांदा जिले के सामाजिक कार्यकर्ता राजा भैया बताते हैं कि आत्महत्या से प्रभावित परिवारों की विस्तृत जानकारी एकत्र कर उन्होंने सरकार को उपलब्ध करवाई थी। इसके लिए लखनऊ में उच्चस्तर पर बातचीत भी हुई थी। कई परिवारों को सहायता राषि मिली भी है, पर मन्नूलाल जैसे कई परिवारों को बिना कोई कारण बताए इस सहायता से वंचित रखा गया।
महोबा जिले के सामाजिक कार्यकर्ता अभिषेक मिश्र ने भी आत्महत्या से प्रभावित अनेक परिवारों की जानकारियां जुटाने के लिए बहुत दौड़-धूप की थी। वे बताते हैं कि कई प्रयासों के बावजूद इन परिवारों को समुचित सहायता नहीं मिल सकी और प्रभावित महिलाएं अपनी समस्याओं को लेकर भटक रही हैं।
इन विकट स्थितियों में उम्मीद को जीवित रखना बहुत जरूरी है। इस तरह के गंभीर हादसों से प्रभावित परिवारों से प्रषासन को संपर्क रखना चाहिए और जो सरकारी सहायता स्वीकृत हुई है उसे सम्मानजनक ढंग से प्रभावित परिवारों तक पहंुचाना चाहिए। उनकी अन्य समस्याओं को भी प्राथमिकता के आधार पर सुलझाना चाहिए।
सूखाग्रस्त क्षेत्रों में व्यापक स्तर पर उम्मीद बनी रहे, इसके लिए रोजगार कार्य आरंभ करने के साथ समय पर उचित मजदूरी का भुगतान करना भी बहुत जरूरी है। मानिकपुर प्रखंड में एक नवनिर्वाचित ग्राम प्रधान ने बताया कि इस क्षेत्र में ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे जहां कई महीने पहले मनरेगा का कार्य करने वाले मजदूरों को आज तक मजदूरी नहीं मिली है। सूखाग्रस्त क्षेत्रों में तो ऐसा अन्याय कभी नहीं होना चाहिए कि देर तक मजदूरी ही न मिले।
इन कार्यों के अन्तर्गत जल व मिट्टी संरक्षण का महत्त्वपूर्ण कार्य करने की बड़ी संभावनाएं हैं जिससे आगे चलकर किसानों को बेहतर उत्पादन प्राप्त करने में व कम वर्षा के समय में भी अपनी खेती-किसानी की रक्षा में बहुत मदद मिलेगी। विषेषकर खेत तालाब बनाने का कार्य काफी उपयोगी रहा है। एक सवाल सामने है कि क्या मनरेगा व सूखा-राहत के बजट का सही उपयोग इस तरह हो सकेगा कि वास्तव में मिट्टी व जल संरक्षण की बड़ी उपलब्धि प्राप्त हो ?
चित्रकूट जिले के पाठा क्षेत्र में वाटरषेड परियोजनाओं में कार्य भलीभांति तकनीकी कुषलताओं के किया गया है, वहां कुछ गांवों में दिसंबर महीने में भी तालाबों में सिंचाई के लिए व पषुओं से पीने के लिए पानी उपलब्ध था। मनगवां के किसान कोदू कोल ने मुस्कराते हुए कहा, “इस पानी का उपयोग कर मैं इस वर्ष भी परिवार के लिए पर्याप्त अनाज अपने खेत से प्राप्त कर सकता हूँ।”
इन वाटरषेड कार्यों को अखिल भारतीय समाजसेवा संस्थान ने कार्यान्वित किया। इस संस्थान के निदेषक भागवत प्रसाद बताते हैं, “हमारा यह प्रयास रहा कि बाहरी तकनीकी कुषलता व सुझाव तो जरूरत पड़ने पर प्राप्त किए जाएं, पर साथ में स्थानीय आदिवासियों व अन्य किसानों व उनकी स्थानीय समितियों के नजदीकी सहयोग से ही कार्य किया जाए। तभी यह कार्य उनकी खेती-किसानी को बेहतर करने में सफल होगा।”
भागवत प्रसाद यहां व टीकमगढ़ जिले में जैविक खेती के प्रयोगों से भी उत्साहित हैं। उन्होंने बताया कि इस तरह जहां एक ओर किसानों का खर्च कम हुआ, वहां उनका उत्पादन व आय बढ़ाने में सहायता मिली।
जालौन जिले में जनकल्याण संस्था के कार्यक्षेत्र में भी जैविक कार्य की अच्छी सफलता नजर आई है वह भी महिला किसानों की उत्साहवर्धक भागेदारी से। यहां व कानपुर जिले के कुछ प्रयासों से स्पष्ट होता है कि जैविक खेती के प्रसार से महिलाओं की विषेष रुचि है क्योंकि इससे उनकी आत्मनिर्भरता बढ़ती है। खर्चीली व बाहरी निवेश निर्भर खेती के स्थान पर महिला किसान आत्मनिर्भरता की खेती करना चाहती हैं फिर चाहे इसके लिए उन्हें अधिक मेहनत करनी पड़े।
इस समय तो तुरंत राहत पंहुचाने की जरूरत है पर दीर्घकालीन स्तर पर देखें तो जल व मिट्टी संरक्षण तथा जैविक खेती से खेती-किसानी को बहुत राहत मिल सकती हे तथा इस ओर समुचित ध्यान देना बहुत जरूरी है।
सूखे व अन्य तरह के प्रतिकूल मौसम का संकट इस जलवायु बदलाव के दौर में किसानों के लिए बढ़ता जा रहा है। अतः सरकारों को स्पष्ट घोषणा करनी चाहिए कि वे किसानों के हित से जुड़े कार्यक्रमों व आपदा प्रबंधन के लिए आगामी वर्षों में अधिक संसाधन उपलब्ध करवाएंगी। इसके अतिरिक्त शहरी लोगों को भी गांवों व विषेषकर किसानों की समस्याओं के प्रति अधिक संवेदनषील होना चाहिए तथा सूखे से त्रस्त किसानों की सहायता के लिए आपसी सहयोग से प्रयास होना चाहिए।