गिरता पानी खंडधार, बिक गया तो रक्तधार
ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले का सुदूर इलाका खंडधार आदिम जनजाति पौड़ीभुइयां के लिए जाना जाता है. पौड़ीभुइयां की संख्या खंडधार में अब भी कम से कम 30,000 है. अपने वजूद को बचाने के लिए ये लोग आखिरी जंग लड़ रहे हैं. यह लड़ाई इलाके को और यहां के लोगों को विदेशी कंपनियों के खनन से बचाने के लिए है. सरकार खंडधार की बची-खुची जमीन और जलप्रपात को खनन के लिए विदेशी कंपनियों के हाथों नीलाम करने की तैयारी कर चुकी है. क्या है खंडाधार की लड़ाई, यहां क्या, किसका और कैसे दांव पर है, इसे जानने के लिए पढ़ें अभिषेक श्रीवास्तव की यह विस्तृत रिपोर्ट जिसे हम कैच हिंदी से साभार साझा कर रहे है;
राउरकेला रेलवे स्टेशन के बाहर पार्किंग के बगल में एक चाय वाले के ठीहे पर बजता लाउडस्पीकर उस सुबह गणतंत्र दिवस की पहली गवाही बना था. उसके बाद राजामुंडा तक एनएच-23 पर लगातार साठ किलोमीटर तक बिजली के खंबों, मोटरसाइकिलों और स्कूली बच्चों के हाथों में तिरंगा लहराता दिखता रहा, जब तक कि हम एनएच-215 पर मुड़ कर लहुनीपाड़ा होते हुए मशहूर खंडधार जलप्रपात तक नहीं पहुंच गए.
करीब 800 फुट से ज्यादा ऊंचे इस झरने के नीचे मुरुम के मैदान में गड़े रंगीन शामियाने के भीतर महात्मा गांधी व बिरसा मुंडा के बीच रखी एक अपरिचित तस्वीर इस बात का अहसास दिला रही थी कि इस गणतंत्र को हम अब भी कितना कम जानते हैं.
ओडिशा के सुंदरगढ़ जिले का यह सुदूर इलाका आदिम जनजाति पौड़ीभुइयां के लिए जाना जाता है. शामियाने में रखी महिला की रहस्यमय तस्वीर इस जनजाति की आराध्य देवी कंकला देवी की है. इससे जुड़ा एक मिथक भी है, बिलकुल नियमगिरि के नियम राजा की तरह, जैसा कि आम तौर से आदिवासी इलाकों में अलग-अलग नामों से प्रचलित होता है.
खंडधार की पहाड़ियों में खनन का इतिहास लंबा रहा है
आनुवंशिक शोध बताते हैं कि 24,000 साल पहले पौड़ीभुइयां और अंडमान की जारवा जनजाति के पूर्वज एक हुआ करते थे. जारवा तो आज 500 से भी कम बचे हैं, लेकिन पौड़ीभुइयां की संख्या खंडधार में अब भी कम से कम 30,000 है. अपने वजूद को बचाने के लिए ये लोग आखिरी जंग लड़ रहे हैं.
इसी जंग की पैमाइश बीती 26 से 28 जनवरी के बीच यहां एक विशाल सत्याग्रह में हुई, जिसे खंडधार सुरक्षा संग्राम समिति और लोक शक्ति अभियान ने मिलकर आयोजित किया. यह लड़ाई इलाके को, झरने को और यहां के लोगों को विदेशी कंपनियों के खनन से बचाने के लिए है. सरकार खंडधार की बची-खुची जमीन और जलप्रपात को खनन के लिए विदेशी कंपनियों के हाथों नीलाम करने की तैयारी कर चुकी है.
यहां के आदिवासियों को सत्याग्रह के लिए क्यों मजबूर होना पड़ा, इसे समझने के लिए इलाके का भूगोल और इतिहास जानना बहुत ज़रूरी है. खंडधार की पहाडि़यों में खनन का इतिहास लंबा रहा है, हालांकि झरने और पहाड़ी का सुंदरगढ़ में आने वाला क्षेत्र मोटे तौर पर अब तक इससे बचा रहा है. जिसे खंडधार की श्रृंखला कहते हैं, उसके पूर्वी छोर पर केंदुझार (केउंझार शहर) जिला स्थित है जबकि पश्चिमी छोर पर सुंदरगढ़ है.
टाटा का जमशेदपुर में कारोबारी साम्राज्य केंदुझार और मयूरभंज जिलों के खनन के सहारे ही खड़ा हुआ है. यह कहानी तकरीबन सौ साल पुरानी है. इसे ऐसे समझ सकते हैं कि खंडधार के पूर्वी हिस्से में खनन बहुत पहले से होता रहा है लेकिन झरने को कभी नहीं छुआ गया. जो इलाका ओडिशा खनन निगम (ओएमसी) के दायरे में आता है, वह कहने को महज 133 हेक्टेयर में फैला है. इसे कुर्मिटार की पहाड़ी भी कहते हैं.
सुंदरगढ़ की ओर से पहाड़ियों के रास्ते झरने के मुहाने तक पहुंचने के लिए आपको ओएमसी के परिसर में प्रवेश करना पड़ता है, जिसकी किसी बाहरी को अनुमति नहीं है. यहां तक कि खुद स्थानीय आदिवासियों को भी दूसरे रास्ते से अपने गांवों में जाना होता है.
खंडधार का इलाका जिस उप-प्रखण्ड बोनाईगढ़ में लगता है, वहां स्थित हैप्पी होम होटल के मालिक सुबेंद्र नाथ मलिक राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक हैं. वे चार दशक तक इस इलाके के आदिवासी स्कूलों में बच्चों को पढ़ाते रहे हैं और यहां के चप्पे-चप्पे से वाकिफ़ हैं. मलिक बताते हैं कि खंडधार झरने का मूल स्रोत केंदुझार के गोनासिका में है.
खंडधार की लड़ाई में निर्दलीय विधायक जॉर्ज तिर्की जनता के नए नेता बनकर उभरे हैं
खंडधार से जब पानी गिरता है, तो नीचे जाकर वह कुराड़ी नाले में बदल जाता है. यही कुराड़ी नाला ब्राह्मणी नदी को कभी साल भर भरपूर लाल पानी देता था, लेकिन खनन कार्यो के लिए मुहाने से पानी की चोरी और ब्लास्टिंग के चलते आज यह धारा नदी तक नहीं पहुंच पाती और 15 किलोमीटर दूर ही ठहर जाती है.
झरने का मुहाना ओएमसी परिसर के भीतर स्थित होने के चलते इसका पानी धीरे-धीरे कम होता गया है. मलिक बताते हैं कि उनके बचपन में बोनाईगढ़ ब्राह्मणी नदी से तीन तरफ से घिरा हुआ था और उनका कस्बा एक टापू की तरह था. आज यह नदी तकरीबन सूख चुकी है. फिर केवल कल्पना ही की जा सकती है कि जब सुंदरगढ़ में खंडधार का बचा हुआ 6000 हेक्टेयर इलाका खनन के लिए खोल दिया जाएगा, तो इस इलाके में कैसी तबाही मचेगी. सारी लड़ाई इसी को रोकने की है.
ओडिशा सरकार ने 2005 में दक्षिण कोरिया के स्टील कंपनी पॉस्को के साथ एक अनुबंध किया था जिसमें उसने कंपनी को सुंदरगढ़ जिले में खंडधार पहाड़ियों में स्थित लौह अयस्क के खदान आवंटित कर दिए थे. तभी से इस क्षेत्र के पौड़ीभुइयां समेत सभी आदिवासी खनन का विरोध कर रहे हैं.
खंडधार क्षेत्र लीज़ पर तमाम खनन कंपनियों के लिए खुल चुका है जो और ज्यादा खतरनाक स्थिति है
लड़ाई आज निर्णायक दौर में इसलिए पहुंच चुकी है क्योंकि केंद्र सरकार ने आदिवासियों के संघर्ष के दबाव में पॉस्को के लिए तो खनन निरस्त कर दिया, लेकिन उसे नए एमएमडीआर अधिनियम के तहत नीलामी के लिए खुला छोड़ दिया है. अब यह क्षेत्र लीज़ पर तमाम खनन कंपनियों के लिए खुल चुका है जो और ज्यादा खतरनाक स्थिति है. नीलामी के लिए ग्राम सभाओं की सहमति तक नहीं ली गई है, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर नियमगिरि में किया गया था.
जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाइयों से जुड़े आंदोलन जब 2014 के अक्टूबर में जगतसिंहपुर के ढिनकिया गांव में एक राष्ट्रीय सम्मेलन में जुटे थे, उसी वक्त घोषणापत्र में यह संकल्प पारित किया गया था कि खंडधार के संघर्ष में सभी को एकजुट होना होगा. करीब सवा साल बाद 26 जनवरी को जब राज्य भर से आंदोलनकारी खंडधार के नीचे जुटे तो इनका अनुभव सुनने लायक था.
नियमगिरि में डोंगरिया कोंढ आदिवासियों के नेता लोदो सिकाका अपने साथियों को लेकर 27 जनवरी को पहाड़ों को छानने पैदल ही निकल पड़े. देर शाम आठ बजे तक जब वे नीचे नहीं लौटे, तो वहां मौजूद लोगों को चिंता होने लगी. अगली सुबह वे शामियाने के बाहर एक पत्तल में चूड़ा फांकते मिले.
अपनी भाषा कुई (उडि़या का एक संस्करण) में उन्होंने बताया कि वे ऊपर जाकर गांव वालों से मिल आए हैं और उन्हें ढांढस बंधाया है कि वे चिंता न करें, उनके संघर्ष में सब साथ हैं. राज्य के कोने-कोने से आए आदिवासियों और ग्रामीणों की सामूहिक ताकत पौड़ीभुइयां समुदाय के नेता बिलुआ नाइक के तेवर में झलक रही थी जब वे सत्याग्रह के आखिरी दिन स्थानीय टीवी चैनलों को बाइट दे रहे थे.
लोदो कहते हैं कि यह इलाका नियमगिरि से भी खूबसूरत है. सच्चाई हालांकि इतनी सरल नहीं है. इस इलाके में विश्व बैंक के सहयोग से बनी चमकदार सड़कों से पहाड़ों को दूर से देखना ही सुखदायी है, वरना आप जैसे ही खंडधार की ऊंचाई नापने लगते हैं, तबाही का मंजर एक-एक कर के आंखों के सामने खुलता जाता है.
घुमावदार चिकनी सड़कों पर ऊपर चढ़ते हुए जब साल के पेड़ घने होते जाते हैं, तो हवा में धूल और मुरुम की परत भी मोटी होती जाती है. हर चीज़ पर धूल की परत जमी है. एक भी पेड़ का पत्ता साफ खोजना मुश्किल है. बरसुआं तक आते-आते ऐसा लगता है कि हम किसी प्राचीन औद्योगिक नगरी में प्रवेश कर गए हों.
आप जैसे ही खंडधार की ऊंचाई नापने लगते हैं, तबाही का मंजर एक-एक कर के आंखों के सामने खुलता जाता है
बरसुआं ”साइडिंग” की साइट है यानी यहां रेलमार्ग से लौह अयस्क नीचे रिफाइनरी तक भेजा जाता है. बरसुआं का स्टेशन पहाड़ों और जंगलों के बीच खंडधार से ठीक नीचे स्थित है. खंडधार के ऊपर स्थित टेन्सा और बरसुआं के नीचे स्थित एएमटीसी कंपनी की भूतड़ा खदानों से अयस्क यहीं लदान के लिए आता है. इसके बाद वह नीचे भेजा जाता है, जहां बोनाईगढ़ के इर्द-गिर्द स्पॉन्ज आयरन के 11 कारखाने हैं. यह सारा कारोबार कहने को तो ओएमसी पांच दशक से चला रहा है, लेकिन यहां 14 निजी कंपनियों को खनन के पट्टे मिले हुए हैं.
बरसुआं से ऊपर साल का जंगल एक विशाल पठार का रूप ले लेता है, जहां ओएमसी का विशाल द्वार आपका स्वागत करता है. इसके भीतर बाहरियों का प्रवेश वर्जित है. सुरक्षा निजी एजेंसियों के हाथों में है. प्रवेश न देने का कारण लोगों की सुरक्षा बताया जाता है. सुरक्षागार्ड कहानियां सुनाते हैं कि कैसे कभी झरने से नीचे झांकते हुए कुछ लोगों की मौत हो गई थी, हालांकि सच्चाई कुछ और ही है.
दरअसल, खंडधार का पानी जिस मुहाने से निकलता है, वहां ओएमसी ने पाइपलाइनों के माध्यम से पानी को मोड़ दिया है जिनका इस्तेमाल कंपनी के टैंकरों को भरने और गाड़ियों की धुलाई के लिए किया जाता है. इसके अलावा जंगल में बसी इस टाउनशिप की पेयजल जरूरतों को भी इसी झरने से पूरा किया जाता है. इस मुहाने से ऊपर जाने की अनुमति बिलकुल नहीं है क्योंकि खदान से आती ट्रकों से हादसे का अंदेशा बताया गया है.
विडंबना यह है कि खदानें अब भी यहां से काफी ऊपर केंदुझार जिले की सीमा में हैं, लेकिन यह तबाही सुंदरगढ़ जिले में बीते पांच दशक से जारी है.
खंडधार क्षेत्र के आदिवासी खेती करना बहुत पहले छोड़ चुके हैं
ओएमसी के मुख्य द्वार से करीब 500 मीटर पहले साल के विशाल मैदान में दयाल मुंडा ने दो झोंपड़े तान रखे हैं. इनमें एक अस्थायी भोजनालय चलता है. पचास रुपये थाली भोजन का रेट है. मुंडा यहीं पैदा हुए हैं, लेकिन अपने ही पहाड़ पर दुकानदारी को मजबूर हैं. वे बताते हैं, ‘ओएमसी ने बहुत पहले मुझसे ड्राइवरी करने को कहा था, मैंने मना कर दिया. फिर मैं यहां-वहां छिटपुट काम करता रहा. अब खाना खिलाकर पेट पालता हूं.’
खेतीबाड़ी के बारे में पूछे जाने पर वे बताते हैं कि यहां के आदिवासी खेती करना बहुत पहले छोड़ चुके हैं. वैसे भी यहां की लाल मिट्टी में बहुत कुछ उपजता नहीं है. मलिक बताते हैं कि कुछ लोग खदानों में काम करते हैं तो कुछ को फॉरेस्ट डिपो में काम मिला हुआ है. बाकी ऐसे ही जीते हैं. लगातार पांच दशक से उड़ती खनन की धूल ने यहां आदिवासियों के ईमान में भी मिलावट कर दी है. कहानी सुनाते-सुनाते मुंडा कब हमसे पांच की जगह छह थाली के पैसे वसूल लेते हैं, पता ही नहीं चलता. वापसी में मांगने पर बड़ी मुश्किल से वे पैसे लौटाते हैं, लेकिन अपने किए पर उन्हें कोई पछतावा नहीं होता.
पौड़ीभुइयां की कहानी डोंगरिया कोंढ से काफी अलग है. यहां शहरीकरण और उद्योग का असर बहुत साफ़ नज़र आता है. इसीलिए इनकी लड़ाई में मुख्यधारा की राजनीति का दखल भी नियमगिरि के मुकाबले ज्यादा है. अब तक इस इलाके के अविवादित जननायक सुंदरगढ़ के सांसद जुअल ओराम थे जिन्होंने पॉस्को के खिलाफ लड़ाई लड़ी. आज वे केंद्रीय कैबिनेट में शामिल होने के बाद जब चुप हो गए हैं, तो स्थानीय निर्दलीय विधायक जॉर्ज तिर्की जनता के नए नेता बनकर उभरे हैं.
सत्याग्रह भले स्थानीय आदिवासियों ने किया और शामियाने में उसका नेतृत्व भले ही आंदोलनकारी प्रफुल्ल सामंतरे कर रहे थे, लेकिन 28 जनवरी को दिन में 12 बजे जब तिर्की ने संतरे का जूस पिलाकर सामंतरे का अनशन तुड़वाया, तब मैदान में चारों ओर उनके नायकत्व का प्रदर्शन करते खड़े होर्डिंग-बैनर और उनकी फोटो खींचते कैमरे इस बात की गवाही दे रहे थे कि यह लड़ाई इतनी सरल नहीं है.
आदिवासी मिथक के मुताबिक कंकला देवी के विनाशक कहर से अपने जल, जंगल और जमीन को बचाने के लिए एक बार तो पौड़ीभुइयां केउंझार से खंडकुमारी को चुराकर ले आए थे और यहां स्थापित कर दिया था. अब अगर खंडकुमारी के बचाए खंडधार को ही कोई लूट कर ले जाएगा, तो उनका क्या होगा? आदिवासी मुंडारी देहारी मुस्कराते हुए कहते हैं, ‘खंडधार को रक्तधार बनने से केवल यहां के लोग ही बचाएंगे, अब बाहर का कोई काम नहीं आएगा.’
(कैच हिंदी से साभार )