कृषि, भूमि नीति के सवाल पर विचार-विमर्श
22 एवं 23 अगस्त, 2011 को इन्दौर (म. प्र.) में भूमि की लूट के सवाल पर सामाजिक संगठनों, स्थानीय जन संघर्षों के साथ जन पहल ने दो दिवसीय विचार-विमर्श का आयोजन किया। विचार-विमर्श में जो बातें उभरकर आयीं वे हैं :-
- ज़मीन एक ज्वलंत मुद्दा है। एक ओर इस पर अभी भी सामंती संबंध कायम हैं। दूसरी ओर राज्य कानून की ताकत का सहारा लेकर, जमीन से लोगों को बेदख़ल कर उसे कॉर्पोरेट के सामने मुनाफ़े के लिए परोस रहा है। अनेक मामलों में भारतीय राज्य का रवैया दमनकारी औपनिवेशिक दौर को भी पीछे छोड़ रहा है। इसका सबसे ज़्यादा दुश्प्रभाव दलित, आदिवासी और ग़रीब ग्रामीण तबका भुगत रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों में ज़मीन अभी भी बड़े पैमाने पर आजीविका का एकमात्र ज़रिया है। सरकार की ग़लत नीतियों और कर्ज़ के दबावों से हर साल किसानों की आत्महत्या के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं। मध्य प्रदेश में भी ज़मीन के हक़ को लेकर वंचितों के आंदोलन खड़े हो रहे हैं। इसमें महिलाओं का भूअधिकार भी एक केन्द्रीय महत्व का मुद्दा है।
- प्रदेश में विकास एवं बड़ी योजनाओं से विस्थापित और प्रभावित होने वाले लोगों को ज़मीन के बदले ज़मीन या उचित पुनर्वास नहीं दिया जा रहा है। वहीं सरकार प्रदेश में ‘‘इंवेस्टर मीट’’ आयोजित करके, किसानों से ज़मीन छीनकर, सेज (विशेष आर्थिक क्षेत्र) के नाम पर प्रदेश की ज़मीनें उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को लुटाने का काम कर रही है।
- जनता के देशव्यापी विरोध की वजह से सरकार ‘‘भूमि अधिग्रहण’’ का नया कानून बनाने को तैयार हुई है लेकिन उसमें कुछ प्रावधान ऐसे हैं जिससे 1894 के मौजूदा दमनकारी कानून की मूल प्रवृत्ति बरकरार बनी रहेगी। इसके बारे में भी इस सेमिनार में चर्चा की गयी।
- इस विचार-विमर्श में जोशी-अधिकारी इंस्टीट्यूट द्वारा देश के 8 राज्यों में सीमांत किसानों की समस्याओं और उसके विभिन्न पहलुओं पर किये गये अपने अध्ययन के निश्कर्शों को रखा गया। साथ ही ज़मीन के मुद्दे पर प्रदेश एवं देश में काम करने वाले विशेषज्ञ व ज़मीनी कार्यकर्ताओं ने अपने अनुभवों को रखा, जिसमें कृषि एवं ग्रामीण जीवन पर मंडराते खतरों को समझने में स्पष्टता आयी साथ ही यह भी समझा जा सका कि किस प्रकार राष्ट्र-राज्य अपनी संप्रभुता को गिरवी रखकर कारपोरेट के हितों के लिए अथक परिश्रम कर रहा है।
- अन्त में यह राय बनी कि विकास की मौजूदा अवधारणा, कृषि नीति तथा भूमि कानूनों में तेजी से किये जा रहे किसान विरोधी प्रावधानों को पलटे बगैर भारत की व्यापक आबादी को विनाश से नहीं बचाया जा सकता।