तबाह होता हिमाचल प्रदेश
मणिपुर की हिंसा की तरह पिछले पांच-छह महीनों से जारी हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की तबाही रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। ध्यान से देखें तो ये दोनों संकट मानव-निर्मित विकास के नतीजे दिखाई देते हैं। क्या हम कभी इन त्रासदियों से कोई सबक ले सकेंगे? प्रस्तुत है, इसी की पड़ताल करता कुलभूषण उपमन्यु का यह लेख;
हिमाचल प्रदेश में बाढ़-भूस्खलन का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। कुल्लू, मंडी,शिमला, सिरमौर और चंबा जिले बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं, किन्तु तबाही कांगड़ा में भी बहुत हुई है। वैसे तो पूरा हिमाचल ही तबाही की चपेट में है। सब कोई हैरान हैं कि आखिर यह हो क्या रहा है। गांव-के-गांव तबाह हो रहे हैं, जहां सोच भी नहीं सकते वहां भी तबाही के बादल छाए हैं। अनेक अमूल्य जीवन इस आपदा में काल का असमय ग्रास बन चुके हैं और करोड़ों रुपए की संपत्ति नष्ट हो चुकी है। हजारों घर पूरे या आंशिक तबाह हो गये हैं। बादल फटने की घटनाओं से प्रदेश दहल गया है।
भारी बारिश और बादल फटने की घटना में तकनीकी रूप से कुछ अंतर होता है। जब 100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में एक घंटे में 10 सेंटीमीटर या इससे ज्यादा बारिश हो जाए तो उसे बादल फटना कहते हैं। हालांकि बादल फटने की पूर्व चेतावनी पूरी तरह से संभव नहीं है, फिर भी 12 घंटे पहले तक भारी से बहुत भारी बारिश की चेतावनी संभव हो गई है। यह चेतावनी एक बड़े क्षेत्र के लिए होती है। सटीक स्थल की पहचान न होने के कारण मोटी सावधानी तो ली ही जा सकती है, किन्तु घर के अंदर बैठे-बिठाए मुसीबत सिर पर आ जाए तो बचना कितना कठिन होता है, इसका अंदाज़ा लगाया नहीं जा सकता।
हम वैश्विक तापमान वृद्धि के दौर से दो-चार हो चुके हैं, जिसके कारण जलवायु में अभूतपूर्व बदलाव आ रहे हैं। बारिश का तरीका भी बहुत बदल गया है। कभी सूखा और कभी भारी बारिश। थोड़े समय में इतना पानी गिर जाता है जिसके बारे में सोच भी नहीं सकते। जुलाई की 255.9 मिलीमीटर औसत वर्षा के मुकाबले हिमाचल प्रदेश में 437 मिलीमीटर बारिश हुई, सिरमौर में सबसे ज्यादा 1097.5 मि.मी. बारिश हुई और किन्नौर में 199% औसत से ज्यादा बारिश हुई। कुल्लू में 476 मि. मी.; मंडी में 546 मि. मी.; शिमला में 584.6 मि. मी.; सोलन में 735.7 मि. मी. वर्षा जुलाई में रिकार्ड की गई। अधिकांश जिलों में यह आज तक का अधिकतम है। लाहुल-स्पिति और कांगड़ा को छोड़कर सभी जिलों में औसत से अत्यधिक बारिश हुई। अगस्त में कांगड़ा में भी भारी बारिश में कई जगह बादल फटने जैसे हालात बने थे। ज्वाली के कोटला में गांव के ऊपर बादल फटने से बीस पच्चीस घर क्षतिग्रस्त हो गये हैं।
जलवायु परिवर्तन के इस दौर में हिमालय जैसी नाजुक और विकट पर्वत श्रृंखला में बहुत ज्यादा सावधानी बरतने की जरूरत है। खासकर बांध, सड़क निर्माण और भवन निर्माण में बहुत सावधानी की जरूरत है, किन्तु हो इससे उल्टा रहा है। मनमर्जी से हर कहीं घर बनाए जा रहे हैं, बांध निर्माण में हर नदी-नाले को पूरी तरह से दोहन करने की दौड़ लगी है और सड़क निर्माण में हर घर तक सड़क पंहुचाने के प्रयास हो रहे हैं। आवागमन की सुविधा हर नागरिक का अधिकार है, किन्तु हिमालय में सावधानीपूर्वक यह देखा जाना जरूरी है कि भूगर्भीय दृष्टि से यह कहां संभव नहीं है। जहां सडकें बनाई जा रही हैं वहां भूगर्भीय कारकों का कोई ध्यान नहीं रखा जाता है।
सड़क निर्माण के लिए पर्वतीय क्षेत्रों में उपयुक्त तकनीक क्या हो, इस दिशा में भी कोई ध्यान नहीं है। हर कहीं मनमर्जी से मलबा फेंक दिया जाता है। 90 डिग्री पर कटिंग की जा रही है जब कि कटाई “एंगल ऑफ़ रिपोज़” पर की जानी चाहिए। जहां तक संभव हो सड़क निर्माण “कट एंड फिल” तकनीक से किया जाना चाहिए। जहां-जहां फोरलेन का काम लगा है या जहां ग्रामीण सडकों के लिए मनमानी डंपिंग की गई है वहां ही ज्यादा तबाही देखने को मिली है। फोरलेन के चक्कर में कुल्लू-मनाली क्षेत्र तो पूरी तरह आवागमन से वंचित हो गए हैं। सब्जियों और फलों को मंडियों तक पंहुचाना भी कठिन हो गया है। कई गांवों में राशन तक हेलिकोप्टरों से पंहुचाना पड़ रहा है।
हिमाचल सरकार और सामाजिक संस्थाएं केंद्र से इस आपदा को राष्ट्रीय आपदा घोषित करने की मांग कर रही हैं। प्रदेश की आर्थिकी भी खतरे में पड़ गई है। अत: सभी विकासात्मक मुद्दों पर नए सिरे से सोचने की जरूरत पड़ गई है। भवन निर्माण के लिए ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों के लिए भूगर्भ शास्त्र परामर्श केंद्र स्थापित किये जाने चाहिए, जहां इंजीनियरिंग और भूगर्भीय विज्ञान के सुझाव एक ही छत के नीचे उपलब्ध हों। व्यवस्था ऐसी हो कि लाभार्थियों पर कोई बोझ न पड़े और लाल फीता शाही को बढ़ावा न मिले। जलविद्युत् से संबंधित ‘अभय शुक्ल कमेटी’ की रिपोर्ट के मुताबिक 7000 फुट से ऊपर की जगहों पर जलविद्युत परियोजनाएं न लगाई जाएं।
वर्तमान बांधों में बरसात से पहले निर्धारित जगह खाली रखी जाए जिससे बरसात में बाढ़ का पानी रोका जा सके और नीचे के क्षेत्रों को बाढ़ से बचाया जा सके। 15 दिन की बारिश की भविष्यवाणी के आधार पर धीरे-धीरे बांध से पानी छोड़ते रहना चाहिए, ताकि अचानक पानी छोड़ने की नौबत न आये और इस वर्ष की तरह पंजाब और हिमाचल के मंड जैसी स्थिति बांध के निचले क्षेत्रों की न आये।
हालात को देखते हुए हिमालय में विकास गतिविधियों के लिए कुछ गतिविधियों को प्रतिबंधित करना होगा, कुछ को प्राथमिकता देनी होगी और कुछ के लिए वैकल्पिक तकनीकों और नवाचारों को ढूँढना होगा। इन चार तत्वों के आधार पर हिमालय में ‘पर्वत विशिष्ट विकास मॉडल’ निर्धारित करके कार्य करना होगा, वरना हम हिमालयी राज्यों में साल-दर-साल इस तरह की तबाहियों को आमंत्रण दे रहे होंगे।
‘चिपको आन्दोलन’ के दूसरे दौर में 1980 के दशक के आरंभ से ही हिमालय के लिए ‘पर्वत विशिष्ट विकास नीति’ के मुद्दे को उठया जाता रहा है। डा. एसजेड कासिम की अध्यक्षता में ‘योजना आयोग’ द्वारा एक विशेषज्ञ समूह का भी गठन किया गया था जिसकी रिपोर्ट 1992 में आ गई थी। उस रिपोर्ट को आधार मानकर वर्तमान जरूरतों के मुताबिक उसे संशोधित और विकसित करके शीघ्र एक दस्तावेज़ बनाकर उस पर चर्चा और सुझाव लेकर अंतिम रूप दिया जाना चाहिए।
‘अभय शुक्ल कमेटी,’ जो हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा गठित की गई थी, की संस्तुतियां देखने योग्य हैं। हिमालय के लोग विकास रोकने के पक्ष में कदापि नहीं हैं, किन्तु अंधा-धुंध विकास के नाम पर होने वाली तबाही से बचकर टिकाऊ विकास के लिए आवाज़ उठा रहे हैं जिसे देश हित और हिमालय हित में गंभीरतापूर्वक सुना जाना चाहिए।