कि नया साल सचमुच नया हो
हर साल नया साल आता है। मुबारकबाद के रस्मी अल्फ़ाज़ में, धूमधड़ाकों और शानदार नज़ारों में सजता है। चार दिन की चांदनी में इतराता है और फिर बेरंग-बेनूर और बदहवास सा गुज़र जाता है, बेदम और पुराना होकर दोबारा नये साल की दहलीज पर पहुंच जाता है, नये कलेंडर में बदल जाता है। घना करता हुआ कुहासा- ज़ुल्म और सितम का, ख़ौफ़ और दहशत का, ऊंचनीच और नाइंसाफ़ी…
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