क्या ‘विकास’ से बच पाएंगे हिमालयी राज्य ?
पिछले कुछ दशकों में उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में विकास के नाम पर किए गए धतकरम इस मानसून में अप्रत्याशित तेजी से हमारे देखते-देखते ध्वस्त हो रहे हैं। कमाल यह है कि यह तबाही जानते-बूझते, वैज्ञानिकों-पर्यवरणविदों-सामाजिक कार्यकर्ताओं की चेतावनियों को अनदेखा करते हुए लाई गई है। ऐसे में क्या अब भी इन राज्यों के बच पाने की कोई गुंजाइश है? प्रस्तुत है, इसी पर प्रकाश डालता प्रमोद भार्गव का यह विशेष लेख;
लगता है, 2013 की केदारनाथ–त्रासदी से लेकर हिमाचल और उत्तराखंड में हो रही मौजूदा तबाही तक, नीति-नियंताओं ने कोई सबक नहीं लिया है। नतीजतन चार दिन की बारिश, 112 बार हुए भूस्खलन और पांच बार फटे बादलों से जो बर्बादी हुई उसमें 71 लोग मारे गए। इस मानसून में अब तक हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में 327 लोगों को आपदाओं ने लील लिया,1442 घर जलधाराओं में विलीन हो गए और 7170 करोड़ रुपए की अचल संपत्तियां धराशायी हो गईं। हिमाचल में एक साथ करीब 950 सड़कों पर आवाजाही बंद पड़ी है। बद्री-केदारनाथ राजमार्ग भी ठप्प है।
इस तबाही के असली कारण समूचे हिमालय क्षेत्र में बीते एक दशक से पर्यटकों के लिए सुविधाएं जुटाने के परिप्रेक्ष्य में ‘जल-विद्युत संयंत्र’ और रेल परियोजनाओं की जो बाढ़ आई हुई है, वह है। इन परियोजनाओं के लिए हिमालय क्षेत्र से रेल गुजारने और कई छोटी हिमालयी नदियों को बड़ी नदियों में डालने के लिए सुरंगें निर्मित की जा रही हैं। बिजली परियोजनाओं के लिए भी जो संयंत्र लग रहे हैं, उनके लिए हिमालय को खोखला किया जा रहा है। इस आधुनिक औद्योगिक और प्रौद्योगिकी विकास का ही परिणाम है कि आज हिमालय ही नहीं, हिमालय के शिखरों पर स्थित पहाड़ दरकने लगे हैं।
हिमाचल प्रदेश के समरहिल स्थित शिवबाड़ी मंदिर में जो तबाही दिखी, वैसी ही पिछले साल उत्तराखंड के चमोली जिले के जोशीमठ में भी दिखाई दी थी। इस शहर ने कई अप्रिय कारणों से नीति-नियंताओं का ध्यान अपनी ओर खींचा था। ‘भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन’ (इसरो) द्वारा जारी उपग्रह तस्वीरों ने बारह दिनों में जोशीमठ के 5.4 सेंटीमीटर धंस जाने की चिंता जताई थी। इन प्रामाणिक सच्चाईयों को छिपाने के लिए ‘राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण’ और उत्तराखंड सरकार ने ‘इसरो’ समेत कई सरकारी संस्थानों को निर्देश दिए थे कि वे मीडिया के साथ जानकारी साझा न करें। नतीजतन ‘इसरो’ की बेवसाइट से धरती के धंसने के चित्र हटा दिए गए।
सरकार का यह उपाय भूलों से सबक लेने की बजाय उन पर धूल डालने जैसा था। जब धरती को हिलाकर हिमालय का पारिस्थितिकी तंत्र नाजुक बना दिया गया है और घरों में दरारें पड़ने के साथ आधारतल तक धंस रहे हैं, तब लोगों की जीवन-रक्षा से जुड़ी सच्चाईयों को क्यों छुपाया गया? दरअसल भारत सरकार और राज्य सरकार ने स्थानीय लोगों के विरोध के बावजूद हठपूर्वक पर्यावरण के विपरीत जिन विकास परियोजनाओं को चुना है, उनके चलते यदि लोग अपने गांव और आजीविका के संसाधनों को खो रहे हैं, तो ऐसी परियोजनाएं किसलिए और किसके लिए बनाई जा रही हैं?
रेल और बिजली के विकास से जुड़ी कंपनियां दावा कर रही हैं कि धरती निर्माणाधीन परियोजनाओं से नहीं धंस रही है, लेकिन किन कारणों से धंस रही है, इसका उनके पास कोई उत्तर नहीं है। ‘केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय’ का ‘नेशनल थर्मल पॉवर कॉर्पोरेशन’ जो इस क्षेत्र में ‘तपोवन-विष्णुगढ़ जल-विद्युत परियोजनाओं’ का निर्माण कर रहा है, ने दावा किया है कि इस क्षेत्र की जमीन धंसने में उसकी परियोजनाओं की कोई भूमिका नहीं है।
उत्तराखंड में गंगा और उसकी सहयोगी नदियों पर एक लाख तीस हजार करोड़ रुपयों की ‘जल-विद्युत परियोजनाएं’ निर्माणाधीन हैं। इन संयंत्रों की स्थापना के लिए लाखों पेड़ों को काटने के बाद पहाड़ों को निर्ममता से छलनी किया जा रहा है और नदियों पर बांध निर्माण के लिए नींव के गहरे गड्ढे खोदकर खंबे व दीवारें खड़े किए जा रहे हैं। अभियंता कंप्यूटरों पर 90 डिग्री पर पहाड़ काटने का नक्शा बना रहे हैं, जबकि मौके पर जाकर पहाड़ की स्थिति को जानने की जरूरत है।
कई जगह सुरंगें बनाकर पानी की धार को संयंत्र के पंखों पर डालने के उपाय किए गए हैं। इन गड्ढों और सुरंगों की खुदाई में ड्रिल मशीनों से जो कंपन होता है, वह पहाड़ की परतों को खोखला कर देता है। पेड़ों की जड़ों से जो पहाड़ गुंथे होते हैं, उनकी पकड़ भी इस कंपन से ढीली पड़ जाती है। नतीजतन तेज बारिश के चलते पहाड़ों के ढहने और हिमखंडों के टूटने की घटनाएं पूरे हिमालय क्षेत्र में लगातार बढ़ जाती हैं। यही नहीं कठोर पत्थरों को तोड़ने के लिए भीषण विस्फोट भी हिमालय को हिला देते हैं।
हिमालय में अनेक रेल परियोजनाएं निर्माणाधीन हैं। सबसे बड़ी रेल परियोजना के कारण उत्तराखंड के चार जिलों (टेहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और चमोली) के तीस से ज्यादा गांवों को भी विकास की कीमत चुकानी पड़ रही है। यहां के छह हजार परिवार विस्थापन की चपेट में आ गए हैं। यह तो शुरूआत है, लेकिन यदि विकास इसी तरह जारी रहता है तो बर्बादी का नक्शा बहुत विस्तारित होगा। ऋषिकेष से कर्णप्रयाग तक की रेल परियोजना 125 किमी लंबी है। इसके लिए सबसे लंबी सुरंग देवप्रयाग से जनासू तक बनाई जा रही है, जो 14.8 किमी लंबी है। केवल इसी सुरंग का निर्माण बोरिंग मशीन से किया जा रहा है। बाकी जो 15 सुरंगे बन रही हैं, उनमें ड्रिल तकनीक से बारूद लगाकर विस्फोट किए जा रहे हैं।
इस परियोजना का दूसरा चरण कर्णप्रयाग से जोशीमठ की बजाय अब पीपलकोठी तक होगा। भू-गर्भीय सर्वेक्षण के बाद ‘रेल विकास निगम’ ने जोशीमठ क्षेत्र की भौगोलिक संरचना को परियोजना के अनुकूल नहीं पाया था। इसलिए अब इस परियोजना का अंतिम पड़ाव पीपलकोठी कर दिया है। हिमालय की ठोस व कठोर अंदरूनी सतहों में होने वाले विस्फोट दरारें पैदा करके पेड़ों की जड़ें भी हिला रहे हैं। अन्य जिलों के श्रीनगर, मलेथा, गौचर ग्रामों के नीचे से सुरंगें निकाली जा रही हैं। इनमें किए जा रहे धमाकों से घरों में दरारें आ गई हैं।
उत्तराखंड के भूगोल का मानचित्र बीते डेढ़ दशक में तेजी से बदला है। चौबीस हजार करोड़ रुपए की ‘ऋषिकेष-कर्णप्रयाग परियोजना’ ने जहां विकास और बदलाव की ऊंची छलांग लगाई है, वहीं इन परियोजनाओं ने खतरों की नई सुरंगें भी खोद दी हैं। उत्तराखंड के सबसे बड़े पहाड़ी शहर श्रीनगर के नीचे से भी सुरंग निकल रही है। नतीजतन धमाकों के चलते 150 से ज्यादा घरों में दरारें आ गई हैं। पौड़ी जिले के मलेथा, लक्ष्मोली, स्वोत और डेवली में 771 घरों में दरारें आ चुकी हैं।
रेल परियोजनाओं के अलावा यहां बारह हजार करोड़ रुपये की लागत से बारहमासी मार्ग निर्माणाधीन हैं। इन मार्गों पर पुलों के निर्माण के लिए भी सुरंगें बनाई जा रही हैं, तो कहीं घाटियों के बीच पुल बनाने के लिए मजबूत स्तंभ बनाए जा रहे हैं। हालांकि सैनिकों का इन सड़कों के बन जाने से चीन की सीमा पर पहुंचना आसान हो गया है, लेकिन पर्यटन को बढ़ावा देने के लिहाज से जो निर्माण किए जा रहे हैं, उन पर पुनर्विचार की जरूरत है।
उत्तराखंड भूकंप के सबसे खतरनाक ‘जोन-5’ में आता है। कम तीव्रता के भूकंप यहां निरंतर आते रहते हैं। मानसून में हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के पहाड़ी जिलों में भू-स्खलन, बादल फटने और बिजली गिरने की घटनाएं निरंतर हो रही हैं। पहाड़ों के दरकने के साथ छोटे-छोटे भूकंप भी देखने में आ रहे हैं। बीते सात सालों में इन राज्यों में 130 बार से ज्यादा छोटे भूकंप आए हैं। यहां ‘जल-विद्युत’ और रेल परियोजनाओं ने बड़ा नुकसान पहुंचाया है।
टिहरी पर बंधे बांध को रोकने के लिए तो लंबा अभियान तक चला था। पर्यावरणविद और भू-वैज्ञानिक हिदायतें देते रहे कि गंगा और उसकी सहायक नदियों की अविरल धारा बाधित हुई तो गंगा तो अस्तित्व खोएगी ही, हिमालय की अन्य नदियां भी अस्तित्व के संकट से जूझेंगी, लेकिन हमेशा की तरह ‘विकास-वादियों’ ने किसी की नहीं सुनी। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश आज इसी जिद का खामियाजा भुगत रहा है।