वनाधिकार कानून की 10वीं वर्षगांठ पर दिल्ली के जंतर-मंतर पर विशाल जन रैली, 15 दिसंबर 2016 को
वन व अन्य प्राकृतिक संपदा पर वनाश्रित समुदायों के स्वतंत्र एवं पूर्ण अधिकार का विषय वनाधिकार आंदोलन में हमेशा से प्रमुख रहा है। अंग्रेज़ी राज के ज़माने में ही इन संपदाओं पर उपनिवेशिक शासकों ने पूरा कब्ज़ा जमा लिया और समुदायों का प्राकृतिक संपदा के साथ जो पारंपरिक रिश्ता है, उसमे दख़ल-अंदाज़ी कर उन्हें अपनी विरासत से बेदख़ल कर दिया गया। पिछली दो सदी से वनाधिकार आंदोलन समुदाय के सार्वभौमिक अधिकार को स्थापित करने के लिए चलता रहा और आज भी ज़ारी है। इस समाज ने जल-जंगल-ज़मीन की लूट पर चलने वाली शासकीय राजनैतिक आर्थिक व्यवस्था को कभी भी स्वीकार नहीं किया। संघर्ष की यह क्रांतिकारी परम्परा अन्य समुदाय जैसे किसान, मछुआरे, पारंपरिक दस्तकार, वनाश्रित समुदाय जोकि प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित हैं, के संघर्षो को भी प्रभावित करती रही। गौरतलब है कि अंग्रेज़ी हुक़ूमत ने प्राकृतिक संपदा की लूट को हिंसा के आधार पर बरक़रार रखा और मुनाफ़ाखोरी के तहत हिंसात्मक तरीके से पूंजीवादी व्यवस्था को मज़बूत किया। लेकिन दूसरी ओर इसके खिलाफ वनाश्रित एवं प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भरशील समुदायों के जनसंघर्ष भी ज़ारी रहे।
अंग्रेज़ी शासनकाल की समाप्ति के बाद भी सत्तासीन हुई आज़ाद भारत की सरकार ने भी इस लूट को बरक़रार रखा और आर्थिक राजनैतिक ढांचे में किसी प्रकार के कोई भी बुनियादी परिवर्तन नहीं किए। यानि एक ऐतिहासिक अन्यायपूर्ण व्यवस्था आज़ाद भारत में भी चलती रही और इसके खिलाफ जनांदोलन के ज़रिये से वनाश्रित समुदाय भी अपनी मांग उठाते रहे। इन संघर्षो की आखि़रकार जीत हुई और आज़ादी के साठ साल बाद भारत की माननीय संसद ने ‘‘अनुसूचित जनजाति एवं अन्य परम्परागत वननिवासी (अधिकारों की मान्यता) कानून यानि (वनाधिकार कानून)-2006 15 दिसम्बर 2006’’ को पारित किया इस विशेष कानून का मुख्य उद्ेश्य वनाश्रित समुदायों पर किए गए ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करना और पर्यावरण की सुरक्षा में समुदायों की भूमिका को मज़बूत करना है। इस ऐतिहासिक कानून के पारित होने पर वनाश्रित समुदायों में एक नई चेतना विकसित हुई और साथ-साथ एक विश्वास भी कि अब जल-जंगल-ज़मीन पर लोगों के मालिकाना अधिकार स्थापित होंगे। इस लिए सन् 2006 से 15 दिसम्बर का दिन वनाश्रित समुुदायों के लिए एक मील का पत्थर है। तबसे हर साल वनाश्रित समुदाय इस दिन को ‘‘वनाधिकार आंदोलन दिवस’’ के रूप में मनाते हैं। परन्तु इस कानून के पारित होने के एक दशक बीत जाने के बाद भी ज़मीनी स्तर पर इस कानून को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए सरकार की तरफ से कोई राजनैतिक इच्छाशक्ति दिखाई नहीं दे रही है। कानून को बनाने में जितना लम्बा संघर्ष हुआ है, उसी तरह से इसे लागू कराने में भी वनाश्रित समुदाय को काफी संघर्ष करना पड़ रहा है।
वनाधिकार कानून में मान्यता दिये गये तमाम अधिकारों में दो प्रमुख अधिकार हैं, एक वनक्षेत्र के अंदर जिस जमीन और जंगल पर लोग अपनी आजीविका चला रहे हैं उस पर और उनकी आवासीय ज़मीन पर मालिकाना अधिकार व दूसरा पूरे वनक्षेत्र में पहुंच और लघुवनोपज पर समुदाय का सामुदायिक मालिकाना अधिकार। जो कि समुदाय द्वारा चुनी गई ग्रामसभा ही तय करेगी जहां शासन-प्रशासन का किसी प्रकार का दख़ल नहीं होगा। लेकिन आज भी ज़मीनी स्तर पर इसका उल्टा हो रहा है। सरकारी तंत्र इस कानून के विरोध में काम कर रहा है। इसलिएअब ये समय आ गया है कि इस कानून को समुदायों द्वाराखुद पहल करके लागू करना होगा व इसके लिए सदस्यता आधारित जनसंगठनों का निर्माण करना होगा व आंदोलन को तेज़ करना होगा। इस ऐतिहासिक अन्याय को खत्म करने के लिए बने इस कानून को प्रभावी ढ़ंग से लागू करने के लिए मौजूदा राजनैतिक आर्थिक व्यवस्था में कुछ बुनियादी परिवर्तन की ज़रूरत है। जिसको करने के लिए केन्द्रीय व राज्य सरकार में इच्छा शक्ति का घोर अभाव है। वर्तमान केन्द्र सरकार एक कदम आगे बढ़कर पूरे कानून को ही बदलने की दिशा में काम कर रही है।
लेकिन यह इतना आसान काम नहीं है। चूंकि वनाधिकार कानून एक विशिष्ट कानून है, इसको बदलने के लिए संसद में पास कराना ज़रूरी है। इस सच्चाई से बचने के लिए मौज़ूदा सरकार द्वारा नए-नए खतरनाक तरीेकों को इस्तेमाल करना शुरू कर दिया गया है। जैसे कैम्पा कानून लाकर वनाधिकार कानून के मुकाबले में कम्पनियों को वृक्षारोपण के कार्यों में शामिल करना, चूंकि कैम्पा के तहत 43 हजार करोड़ की पूंजी है और जिस पूंजी के आधार पर वनक्षेत्र में वनाधिकार समितियों को निष्प्रभावी करने हेतु वन सुरक्षा समितियों जैसे ढांचों को खड़ा किया जायेगा, एक तरह से वनक्षेत्रों में वनविभाग द्वारा पूंजीवादी व्यवस्था को स्थापित करके परंपरागत वन संरक्षण व्यवस्था को खत्म करना, निश्चित रूप से वनक्षेत्रों में इस प्रक्रिया से ग्रामसभा बनाम वनविभाग सीधा टकराव शुरू हो चुका है। जिसके फलस्वरूप वनाधिकार कानून में प्राप्त वनभूमि से समुदायों को विस्थापित करने की प्रक्रिया शुरु हो गयी है और जंगलक्षेत्रों में नक्सलवाद की आड़ लेकर सलवाजुडूम और पी.आर.डी जैसी संस्थायें खड़ी की जा रही हैं, जिसमें समुदायों के हाथ समुदायों का कत्ल-ए-आम कराया जा रहा है, जिनकी कानून में कोई भी संवैधानिक मान्यता नहीं है।
समुदायों द्वारा वनाधिकार कानून नियमावली संशोधन-2012 के तहत किये गये दावों को और व्यक्तिगत दावों को भी बिना किसी कानूनी अड़चन के लम्बित किया जा रहा है। और तो और जे.एफ.एम, जाईका परियोजना और कैम्पा कानून की आड़ में आदिवासी एवं अन्य परम्परागत समुदाय के बीच टकराव पैदा करने की कोशिश की जा रही है। जिसके बेहद दुष्प्रभावी परिणाम होंगे। ज़ाहिर है इससे समुदाय और राजसत्ता के बीच जो टकराव है, वो कम होने के बजाय और बढ़ रहा है। यह निश्चित है कि ऐसी नकारात्मक प्रक्रिया के चलते हुए वनाश्रित समुदायों के ऊपर दमन और भी बढ रहा है और वनक्षेत्र में कम्पनीराज और उनके सहयोगी क्षेत्रीय दबंग तबका, माफिया और भ्रष्ट वनाधिकारियों का वर्चस्व बढ़ाने की कोशिश भी हो रही है। इन निहित स्वार्थो के खिलाफ लड़ाई अनिवार्य है चूंकि जहां पर वनाश्रित समुदाय संगठित हो चुके हैं, वे सरकार की ऐसी जनविरोधी नीतियों को स्वीकार नहीं कर रहे हैं। अर्थात संघर्ष बढ़ रहा है और यह संघर्ष एक राजनैतिक संघर्ष है। इस लिए वनसंपदा पर समुदाय के नियंत्रण का संघर्ष अकेले वनसमुदायों के संघर्ष नहीं है, बल्कि यह संघर्ष एक सामूहिक संघर्ष है। जो कि संसाधनों पर चल रहे अन्य अधिकारों के आंदोलनों के साथ ही तेज़ हो सकता है।
एक बात हमें ध्यान में रखनी होगी कि वनाधिकार और खासतौर पर वनाधिकार कानून को लागू करना बुनियादी रूप से एक राजनैतिक चुनौती का काम है। वनाधिकार को अगर लोगों व वनाश्रित समुदाय के नियंत्रण में लाना है तो यह लक्ष्य जनराजनैतिक संघर्ष के बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता। ज़ाहिर है यह संघर्ष देश की राजनैतिक अर्थव्यवस्था की मौजूदा परिस्थियों को बिल्कुल पलट सकता है। कुदरती संसाधनों को लोगों से छीनने की प्रक्रिया अंग्रेज़ी शासनकाल से अब तक ज़ारी है, इसलिए यह भी हमें ध्यान रखना होगा कि वनाधिकार को लोगों के दायरे में रखने के लिए काफी बाधाऐं व हमले मौजूदा राजनैतिक व सामाजिक ढांचे की ओर से होंगे। चूंकि अभी भी पूंजीवादी ताकतें प्राकृतिक संसाधनों पर अपना अधिपत्य बनाए हुए हैं। इसलिए वनाधिकार के लिए शासन व प्रशासन को केवल आवेदन देने से ऐतिहासिक अन्याय जो कि वनाधिकार कानून में निहित किए गए हैं, समाप्त नहीं हो पाऐंगे, इसके लिए राजसत्ता को चुनौती देनी होगी। यह चुनौती वनाश्रित समुदायों द्वारा जनंतात्रिक तरीके से दीर्घकालीन जुझारू संघर्ष से ही दी जा सकती है। जिसमें यह जनवादी आंदोलन और भी व्यापक संघषर््ा है, जोकि जल, जंगल और ज़मीन पर लड़ा जा रहा है, व्यापक गोलबंदी से किया जाऐगा। इसके साथ ही संगठित व असंगठित मज़दूर संगठनों व प्रगतिशील ताकतों का समर्थन इस व्यापक आंदोलन के लिए महत्वपूर्ण है।
यहां पर हमें यह अच्छी तरह से अपनी समझदारी बनानी हागी कि पूंजीवाद जो कि इस समय एक बेहद ही गंभीर संकट के दौर से गुज़र रहा है वह हमारी सरकारों के ऊपर अभी भी हावी है, जिसका जीता जागता प्रमाण हाल ही में सरकार द्वारा देश के चन्द पूंजीपति घरानों को लाभ पहुंचाने के लिये आम जनता को अभूतपूर्व आर्थिक संकट पैदा करके की गई नोटबंदी के रूप में देखा जा सकता है। इस नवउदारवाद के दौर में पूरा सरकारी तंत्र व उसके सहयोगी जमींदार, भू-माफिया व अन्य निहित स्वार्थ भी पूंजीवाद के अधीन हैं, जो कि पूंजीवाद का वर्गीय चरित्र भी है। इसलिए चाहे वो केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकारें हों वह इस तरह के प्रगतिशील जनहितकारी कानून को लागू करने में किसी भी प्रकार की दिलचस्पी नहीं दिखाऐंगी, चाहे उसके पीछे संवैधानिक बाध्यता ही क्यों न हो। चूंकि यह भ्रष्ट सरकारें इन सभी ताकतों को असंतुलित करने को तैयार नहीं हैं, क्योंकि यह सरकारें इन निहित स्वार्थो के ऊपर ही अपने अस्तित्व के लिए निर्भरशील हैं।
इन सब परिस्थितयों में वनाधिकारों के मुद्दे को हमें व्यापक संदर्भ में भूमि अधिकार, मछुआरों के अधिकार, खनन अधिकारों के साथ व अन्य आंदोलनों जैसे श्रमिक संगठनों के आदोंलनों के साथ जोड़कर देखना होगा व तालमेल से संघर्षों को लड़ना होगा, ताकि हमारे संघर्षो को सफलता मिल सके। आज के दौर में किसी भी आंदोलन के लिए अकेले सफलता हासिल कर पाना बेहद कठिन है। राजनैतिक रूप से व्यापक गोलबंदी से ही राजसत्ता को टक्कर दी जा सकती है। यह राजनैतिक सबक हमें आज के दौर में लेना होगा, जिसमें अन्य मुद्दों जैसे साम्प्रदयिकता, जातिवादी उन्माद जो देश में फैलाया जा रहा है, उसे भी अपने संघर्षो में जोड़ना होगा।
हमने देखा है कि वनाधिकार कानून 2006 को पारित हुए दस साल पूरे होने जा रहे हैं और ये स्पष्ट हो गया है कि वनाधिकार कानून लागू करना एक राजनैतिक संघर्ष है, चूंकि ये व्यापक रूप से भूमि अधिकार आंदोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें करीब 4 करोड़ हैक्टेअर वनभूमि का आबंटन वनसमुदायों के लिये सामूहिक रूप से होना निर्धारित है। इसीलिये वनाधिकार आंदोलन में भूमि का सवाल अंतर्निहित है। वनाधिकार के मुद्दे में भूमि अधिकार की मान्यता ही मूल विवाद की जड़ है, जिसमें कई तरह के निहित स्वार्थ शामिल हैं। जैसे वनविभाग, सामंत वर्ग, दबंग, पूंजीपति वर्ग, प्रशासन व सरकार जो इन संसाधनों को किसी भी कीमत पर गरीब तबकों के अधीन होने न देने के लिए दमन का सहारा लेते हैं। इसलिए भी यह एक कठिन लड़ाई है। इसलिए वनाधिकार आंदोलनों के लिए भी यह चुनौती है कि वह खुलकर सामने आए व राजनैतिक रूप से इस लड़ाई को लड़े।
गौरतलब है कि मौजूदा केन्द्र की एन0डी0ए सरकार द्वारा असंवैधानिक तरीके से भूमि अध्यादेश को पारित कराने की कोशिश का विरोध देशभर के जनसंगठनों, किसान संगठनों व वाम दलों से जुड़े किसान संगठनों ने फरवरी 2015 में संसद सत्र के दौरान किया व भूमि अधिकार की लड़ाई को और भी तेज़ करने के लिए ‘‘भूमि अधिकार आंदोलन’’ का गठन किया। व्यापक गोलबंदी व श्रमिक संगठनों के साथ ताल-मेल के साथ ही यह आंदोलन चला। जिसका सीधा असर संसद के अंदर विरोधी पार्टियों में दिखाई दिया। जिसके फलस्वरूप केन्द्र सरकार को पीछे हटना पड़ा और भू अध्यादेश को रद्द करना पड़ा। इस तरह के मोर्चे के गठन द्वारा ही सरकार की भूमि अधिग्रहण नीतियों को भू-अधिकार आंदोलन के तहत गति तेज़ कर इस राजनैतिक संघर्ष को तेज़ किया जा सकता है, जो कि देश की मौज़ूदा राजनैतिक अर्थव्यवस्था जो कि पूंजीवाद के आगे नतमस्तक है, को पूरी तरह से बदल कर आम लोगों के अधिकारों, उनकी आजीविका व सम्मान की सुरक्षा कर सकता हैै।
इन्हीं सब मुददों को लेकर भूमि अधिकार आंदोलन द्वारा यह तय किया गया है कि वनाधिकार का मुद्दा मूलतः भू-अधिकार का मुद्दा है। इसलिए अपने आगामी कार्यक्रम में 15 दिसम्बर 2016 को वनाधिकार कानून की 10वीं वर्षगांठ के अवसर पर‘‘वनाधिकार दिवस’’ को चेतावनी दिवस के रूप में दिल्ली के जंतर-मंतर पर आयोजित किया जा रहा है। सभी जनसंगठनों से अपील है कि 15 दिसम्बर को ज़्यादा से ज्यादा संख्या में जंतर-मंतर पर एकजुट हो कर एक व्यापक भूमि अधिकार, वनाधिकार व भूमि पर कारपोरेटी हमले जिनको सरकारी संरक्षण प्राप्त है को परास्त करने की चुनौती दें।
हमारे मुद्दे होंगे-
- ऐतिहासिक वनाधिकार कानून का तत्काल प्रभावी क्रियान्वयन हो और इसके लिये सबसे पहले वनसुरक्षा समितियों को कानून के प्रावधान के अनुरूप समुचित तरीके ग्रामसभा की खुली बैठक में गठन किया जाये और जहां नियमविरुद्ध समितियां गठित की गयी हैं उनको पुनर्गठित किया जाये।
- विभिन्न वनक्षेत्रों में समुदायों द्वारा संशोधन 2012 के तहत लघुवनोपज के लिये किये गये सामुदायिक दावों का तत्काल निस्तारण हो।लम्बित पड़े हुए व्यक्तिगत दावों का तत्काल निस्तारण हो।
- वन समुदायों व वनाधिकार कार्यकर्ताओं पर वनविभाग व पुलिस द्वारा लगाये गये तमाम फर्जी मुकदमे खारिज हों।
- इस व्यापक संघर्ष के लिये व्यापक स्तर पर जनसंगठनों व जनआंदोलनों का तालमेल व अन्य संगठनों को भी जोड़ने की प्रक्रिया तेज़ हो।