संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

लोकतंत्र पर हमले के खिलाफ जन सम्मेलन – 25 जून 2016, कॉंस्टीश्यूशन क्लब, नई दिल्ली

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यह
आपातकाल है
!
लोकतंत्र
पर हमले का विरोध करो
!
जन
सम्मेलन के लिए आह्वान
,
25
जून
2016
25
जून
1975 स्वतंत्र
भारत के इतिहास पर अंकित एक
शर्मनाक धब्बा है। यही वह दिन
था जब आपातकाल लगाकर हमारे
देश में लोकतंत्र को अधिकारिक
रूप से स्थगित कर दिया गया था।

आज
लगभग चार दशक बाद फिर वही
दुस्वप्न हमारे सामने आकर
खड़ा हो गया है। हमें भगवा रंग
में रंगे अच्छे दिनों की
वास्तविकता बिल्कुल साफ-साफ
दिख रही है। हिंदुत्व के सपने
के लिबास में एक उच्च स्तरीय,
कॉर्पोरेट
हितों को अनुकूल,
तकनीकि
रूप से उन्नत आपातकाल को हमारे
सामने रखा जा रहा है।
पिछले
दो सालों में अच्छे दिनों के
भ्रामक प्रचार का वीभत्स रूप
अब खुलकर हमारे सामने आ रहा
है।
  • संसद
    समेत देश भर के स्कूलों,
    समुदायिक
    संगठनों और सरकारी संस्थानों
    में एक ऐसा बहुसंख्यक दृष्टिकोण
    तेजी से पैर फैला रहा है जिसमें
    जो ताकतवर है वही सही है और
    जहां संवाद और वाद-विवाद
    का स्थान खुशी-खुशी
    हिंसा को दे दिया गया है। हमारा
    भारतीयता का एहसास-
    मान्यताओं,
    प्रथाओं
    और परम्पराओं की उच्च विवधताओं
    पर हमारा गर्व, हमारी
    विविध धर्मों से बनी संस्कृति
    और जीवन के तरीके,
    मतभेदों
    के प्रति हमारा सम्मान,
    असहमति,
    विवाद
    और बहस के बीच सर्वसम्मति
    कायम करने की हमारी कला-इन
    सब पर जालिम ताकतों द्वारा
    हमला किया जा रहा है।
  • शैक्षणिक
    तथा सांस्कृतिक संस्थानों
    पर भगवा हमले में तेजी आई है।
    बगैर किसी बौद्धिक या पेशेवर
    क्षमता के मात्र हिंदुत्व
    के एंजेडे के प्रति अपनी
    वफादारी के दम पर लोगों को
    विश्वविद्यालय के कुलपति,
    कला
    और विज्ञान को प्रोत्साहन
    देने वाली राष्ट्रीय संस्थाओं
    के निदेशकों, अनुसंधान
    संस्थानों के प्रमुख,
    पेशेवर
    तथा तकनीकि निकाय के पीठ जैसे
    महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त
    किया जा रहा है। और फिर इन
    वैचारिक नेताओं द्वारा वह
    भगवा दृष्टिकोण- जहां
    मिथ्य इतिहास का स्थान ले
    लेता है, आस्था
    ज्ञान से उपर हो जाती है,
    अंधविश्वास
    तार्किकता पर हावी हो जाता
    है- फैलाया
    जाता है। इन वैचारिक नेताओं
    का निर्देशन और निगरानी आरएसएस
    के मुखिया कर रहे होते हैं।

  • लोकतांत्रिक
    असहमति, अभिव्यक्ति
    की आजादी और विरोध के अधिकार
    पर नृशंस हमले हो रहे हैं और
    इसेक लिए वैधता का ढोंग करने
    की भी अब आवश्यकता नहीं रह गई
    है। चाहे छात्र आंदोलन हो,
    दलित
    आंदोलन, महिलाओं
    का आंदोलन या फिर प्राकृतिक
    संसाधनों की हो रही कॉर्पोरेट
    लूट के खिलाफ आंदोलन सभी को
    देश-द्रोही
    करार कर उनपर हमले किए जा रहे
    हैं। राष्ट्रभक्ति के पैमाने
    का पुनर्मूल्यांकन सिर्फ एक
    ही आधार पर किया जा रहा है
    जिसके तहत असहमति का मतलब देश
    से गद्दारी है। भगवा फरमान
    के प्रति अंधभक्ति और बिना
    सोचे समझे आधीनता स्वीकार
    कर लेना ही भारतीयता का सबूत
    देता है। इससे किसी भी तरह का
    विचलन कतई बख्शा नहीं जा रहा
    है।
  • विश्व
    पूंजी का अर्थव्यवस्था पर
    नियंत्रण पहले से ज्यादा तेज
    हो गया है। मेक इन इंडिया और
    स्टैंड अप/ स्टार्ट
    अप जैसे अर्थहीन नारे,
    फर्जी
    गणनाएं, मनगढंत
    आंकड़े, और
    प्रधानमंत्री द्वारा खुद
    अपनी पीठ थपथपाना इस तथ्य को
    नहीं छुपा सकता है कि मौजूदा
    सरकार की विकास की अवधारणा
    के केंद्र में दरअसल कॉर्पोरेट
    मुनाफा है। अमेरिका समर्थित
    कॉर्पोरेट के पैरोकार अब
    खुल्लम-खुल्ला
    राष्ट्रीय आर्थिक नीतियों
    को नियंत्रित कर रहे हैं।
    बढ़ती बेरोजगारी,
    खाद्य
    पदार्थों की बढ़ती कीमतों,
    कृषि
    संकट, समुदायों
    का बड़े पैमाने पर विस्थापन,
    भुखमरी
    जैसे लक्षण चरमराती अर्थव्यवस्था
    को दिखा रहे हैं।
  • काले
    कानून जिन्हें कभी साम्राज्यवादी
    तथा औपनिवेशिक सत्ता को बनाए
    रखने के लिए तैयार किया गया
    था, को
    “विकास” के मॉडल की रक्षा में
    एक बार फिर लागू किया जा रहा
    है। कश्मीर तथा उत्तरपूर्वी
    क्षेत्रों की आम जनता के
    अभिव्यक्ति तथा अन्य लोकतांत्रिक
    अधिकारों पर सुनियोजित तरीके
    से हमला किया जा रहा है। जहां
    एक तरफ मोदी दुनिया भर के मंचों
    पर खड़े होकर भारत को विश्व
    में एकमात्र शांतिपूर्ण
    क्षेत्र बता अपने मुंह मियां
    मिठ्ठू बन रहे हैं,
    वहीं
    दूसरी तरफ कश्मीर और उत्तर-पूर्वी
    क्षेत्रों की आम जनता सशस्त्र
    बलों द्वारा की जा रही हिंसा
    के दहशत में जी रही है। इन
    सशस्त्र बलों को एएफएसपीए
    द्वारा नागरिकों अधिकारों
    का बिना किसी भय के खुले तौर
    पर माखौल बनाने का अधिकार
    मिला हुआ है। सिर्फ विचारों
    की अभिव्यक्ति और अधिकारों
    के दावों को रोकने के लिए
    हजारों जानें ली जा चुकी हैं,
    हजारों
    महिलाओं के साथ बलात्कार किया
    जा चुका है और हजारों युवाओं
    के साथ जघन्यता बर्ती जा चुकी
    है।
  • आदिवासी
    समुदाय के साथ तो राज्य के
    दुश्मन सा व्यवहार किया जा
    रहा है। एक ऐसी भाषा,
    जिसमें
    फासीवादी झलक साफ दिखती है,
    का
    इस्तेमाल करते हुए छत्तीसगढ़
    सरकार ने आदिवासी भूमि को
    पूरी तरह से कॉर्पोरेट ताकतों
    को सौंप देने की अपनी मंशा को
    स्पष्ट कर दिया है। कश्मीर
    और उत्तर-पूर्व
    में सशस्त्र बलों ने भारी
    संख्या में बलात्कार तथा
    लैंगिक उत्पीड़न को अंजाम
    देकर स्त्री देह को इस युद्ध
    में एक तरह से जंग का मैदान
    बना दिया है। आदिवासी समुदायों,
    राजनीतिक
    कार्यकर्ताओं,
    मानवाधिकार
    कार्यकर्ताओं और पत्रकारों
    पर भारी संख्या में माओवादी
    समर्थक होने का लेबल लगाकर,
    लैंगिक
    हिंसा, एनकाउंटर
    के नाम पर की गई अवैध हत्याओं,
    मनमाने
    ढ़ंग से गिरफ्तारियों,
    धमकियों
    को जायज ठहराया जा रहा है। जो
    कोई भी इस जघन्य वास्तविकता
    का पर्दाफाश करने की कोशिश
    करता है उसे इन तरीकों से चुप
    करवा दिया जाता है।
  • महिलाओं
    के प्रति हिंसा में तेजी से
    वृद्धि हुई है खासकर उन महिलाओं
    के साथ जो उत्पीड़न की बहु
    प्रणालियों के अंतःबिंदु पर
    स्थित हैं। दलित और आदिवासी
    महिलाएं, अल्पसंख्यक
    समुदाय की महिलाएं,
    गैर-विषमलैंगिक
    महिलाएं, अपंग
    महिलाएं, कश्मीर
    और पूर्वोत्तर की महिलाएं,
    प्रवासी
    महिलाएं, अफ्रीकी
    महिलाएं, समलैंगिक
    लोग, जातिवाद
    का विरोध कर रही महिलाएं – इन
    सभी को एक सामान्य सी वजह के
    लिए हिंसा के वैध निशाने के
    रूप में खुलेआम घोषित किया
    जा चुका है वह हैः इन सभी का
    शरीर और उनकी पहचान हिंदुत्व
    के खाके के लिए एक जीवंत चुनौती
    है।
  • किसी
    भी कीमत पर कुचल देने या चुप
    करा देने की रणनीति सामाजिक
    संस्थाओं पर भी लागू की जा
    रही है। एफसीआरए को हथियार
    बनाकर उन सभी संगठनों को चुप
    कराने और नियंत्रण करने की
    कोशिश की जा रही है जो लोकतंत्र
    के पक्ष में बोलते हैं,
    या
    फिर किसी भी सरकारी लाइन या
    किसी और अन्य मुद्दे पर विपरीत
    पक्ष रखते हैं।
यह
मात्र कुछ उदाहरण हैं उस घिनौनी
सच्चाई की जिसे अर्थहीन नारों,
इतिहास
को फिर से लिखने के बेढंगे
प्रयासों, नव-निर्मित
राष्ट्रीय परंपराओं के बॉलीवुड
की हस्तियों से प्रेरणा और
झूठी सफलता कथाओं के माध्यम
से लाख ढंकने की कोशिश के बावजूद
हमें अपने चारों तरफ दिख जाती
है।
इस बात
से कतई इंकार नहीं किया जा
सकता है कि 2016 का
यह आपातकाल दिवस न केवल एक
दूसरे आपातकाल के सिरे पर
स्थित है बल्कि यह आपातकाल
धीरे-धीरे
लागू भी होने लगा है।
किंतु
दोस्तों हमें यह नहीं भूलना
चाहिए कि आपातकाल का यह दिन
लोकतंत्र का भी दिन है। हमें
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि
1975 में
आपातकाल का लगना वह ऐतिहासिक
क्षण था जिसने विरोध और प्रतिरोध
की एक पूरी लहर को पैदा किया
और लाखों लोग सड़कों पर उतर
आए। हमें यह नहीं भूलना चाहिए
कि इस प्रतिरोध को कुचल देने
वाले हर प्रयास –
संवैधानिक
अधिकारों का निलंबन,
नेताओं
की गिरफ्तारियां,
निहत्थी
जनता के विरुद्ध सशस्त्र बल
का प्रयोग, मीडिया
ब्लैकआउट – विरोध के स्वर को
दबा पाने या जन प्रतिरोध की
ताकत को कुचल पाने में असफल
रहे। हमें नहीं भूलना चाहिए
आपातकाल के विरुद्ध हुए इस
संघर्ष ने जनांदोलनों,
छात्रों,
मजदूरों,
किसानों,
बुद्धिजीवीयों
और राजनीतिक कार्यकर्ताओं
के बीच एक नई एकजुटता कायम की
जिसने लोकतांत्रिक अवसरों
को हासिल किया और नए संघर्षों
की बुनियाद कायम की।
साथियों,
अब समय
आ गया है हम सब इस आपातकाल को
खत्म करने के विरुद्ध चल रहे
संघर्ष के साथ जुड़े। हम सभी
लोकतंत्र प्रिय लोगों से अपील
करते हैं कि 25 जून
2016 को
कॉन्स्टीट्यूशन क्लब ऑफ इंडिया
के स्पीकर हॉल में शाम 5
बजे
से आठ बजे तक आयोजित चर्चा में
हमारे साथ भाग लें।
आइए
हम फिर से अपनी एकजुटता को
सुनिश्चित करें, अपने
गठजोड़ों को पुनः मजबूत करें
और अपने संवैधानिक और लोकतांत्रिक
अधिकारों पर फिर से दावा करें।
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