संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

सोनी सोरी को इंसाफ़ चाहिए

 आदियोग 
सोनी सोरी का मामला एक बार फिर सतह पर है। देश के प्रमुख महिला संगठनों ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह को भेजी गयी अपनी साझा चिट्ठी में इस बात पर गहरी नाराज़गी ज़ाहिर की है कि राज्य सरकार यह जांच करवा रही है कि सोनी सोरी कहीं दिमाग़ी तौर पर बीमार तो नहीं। यह चिट्ठी गुज़री 11 अप्रैल को जारी हुई जिस दिन राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग सूबे में मानवाधिकार हनन से जुड़े कोई दो दर्ज़न चुनिंदा मामलों की रायपुर में सुनवाई कर रहा था। हालांकि केंद्रीय गृह मंत्रालय की राय थी कि मानवाधिकार आयोग को इस तरह के जोखिम से बचना चाहिए और सुनवाई की अपनी योजना रद्द कर देनी चाहिए लेकिन मानवाधिकार आयोग ने अपने पैर पीछे नहीं किये। इस निर्भीक पहल से राज्य सरकार पहले से सकपकायी हुई थी, उसे अपनी पोल खुल जाने का भय सता रहा था। महिला संगठनों की चिट्ठी ने उसे और अधिक सांसत में डाल दिया।

कौन हैं सोनी सोरी? वे स्कूल शिक्षिका हैं, बस्तर से हैं और डेढ़ साल से भी अधिक समय से जेल में हैं। उन पर माओवादियों की मदद करने का आरोप है। पुलिस के मुताबिक़ 9 सितंबर 2011 को औद्यौगिक समूह इस्सार का ठेकेदार लालाराम 15 लाख रूपये लिंगाराम कोडोपी को देते हुए पकड़ा गया था जिसे माओवादियों तक पहुंचाया जाना था, और कि इस दबिश में तीसरी अभियुक्त सोनी सोरी फ़रार हो गयी। अब इस मामले को खंगालने के लिए यह जानना ज़रूरी है कि आख़िर कौन है लिंगाराम? इससे कोई डेढ़ साल पहले उनका नाम तब सामने आया था जब सूबे के पूर्व पुलिस प्रमुख विश्वरंजन ने उसे फ़रार अपराधी बताया था। हालांकि तब लिंगाराम नयी दिल्ली में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था। उसके पक्ष में स्वामी अग्निवेश, प्रशांत भूषण और हिमांशु कुमार जैसे लोग खड़े हो गये और उन्होंने विश्वरंजन को अपने आरोप साबित करने की चुनौती भी दी। लगा कि मामला ठंडा पड़ गया। लिंगाराम में भी हिम्मत जागी और उसने शुभचिंतकों की राय को दरकिनार करते हुए दंतेवाड़ा लौटने का मन बना लिया। यह बड़ी भूल थी। घर वापसी ने उसे और भी घने जाल में फंसा दिया। यह भरोसा तोड़ दिया कि सांच को आंच नहीं।

लिंगाराम पर यह सरकारी खुन्नस क्यों उतरी? दरअसल, लिंगाराम पर दबाव था कि वह सलवा जुडुम में शामिल हो जबकि वह पत्रकार बनने की धुन में था। लिंगाराम ने अपना चुना हुआ रास्ता नहीं छोड़ने का फ़ैसला किया और वह स्थानीय पुलिस-प्रशासन की आंख की किरकिरी बन गया। इतना ही नहीं, उसने बलात्कार की शिकार कुछेक आदिवासी महिलाओं को नयी दिल्ली में पत्रकारों के सामने पेश करने की भी ज़ुर्रत कर डाली। यह राज्य सरकार को चुनौती देना था। इसके जवाब में उसे फ़रार अपराधी करार दिया गया। आप जानते हैं कि सलवा जुडुम की पैदाइश माओवादियों के नाम पर आदिवासियों को आदिवासियों के ख़िलाफ़ खड़ा किये जाने की सरकारी योजना के तहत हुई थी और जिसने बर्बरता की तमाम घिनौनी मिसालें क़ायम कीं- बस्तर के सैकड़ों गांव वीरान हुए, बेगुनाह आदिवासी फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में मारे गये, औरतों के साथ बलात्कार हुए, घर और फ़सलें आग के हवाले हुईं, और इस तरह पूरी दुनिया में हिंदुस्तान की थूथू हुई। यह सिलसिला तभी रूका जब सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को कड़ी फटकार लगाते हुए सलवा जुडुम को फ़ौरन बंद किये जाने का निर्देश दिया।

ख़ैर, लिंगाराम आख़िरकार ‘क़ानून’ की पकड़ में आ गया। उधर, सोनी सोरी ने यह ख़बर लगने पर कि उसे फ़रार बताया जा रहा है, किसी बुरी आफ़त से बचने के लिए छत्तीसगढ़ छोड़ देने में अपनी भलाई समझी। इंसाफ़ की गोहार लगाने उड़ीसा के रास्ते किसी तरह देश की राजधानी पहुंचने में क़ामयाब हो गयी। लेकिन 4 अक्टूबर 2011 को दिल्ली पुलिस ने गिरफ़्तार कर उसे छत्तीसगढ़ पुलिस को सौंप दिया और वह दंतेवाड़ा ले जायी गयी। यहीं से उसके बुरे दिनों की शुरूआत हो गयी। ‘सच’ उगलवाने के लिए पुलिस ने उसके साथ ज़्यादतियों की इंतिहा कर दी- उसे नंगा किया गया, बिजली के झटके दिये गये, बेरहम पिटाई की गयी, उसकी गुदा और यौनि में पत्थर ठूंसे गये। अंकित गर्ग नाम के जिस पुलिस अधीक्षक के आदेश और निगरानी में इंसानियत को तार-तार कर देनेवाला यह धतकरम हुआ, उसे पिछले बरस गणतंत्र दिवस के मौक़े पर पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल के हाथों शौर्य पदक का ईनाम मिला। यह जम्हूरी निजाम की शर्मनाक़ उलटबांसी की बानगी है।

सोनी सोरी के साथ किये गये ग़ैर इनसानी सुलूक़ के आरोप को राज्य सरकार सिरे से नकारती रही। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर कोलकोता के सरकारी अस्पताल में हुई मेडिकल जांच की रिपोर्ट ने इस वीभत्स सच से परदा उठा दिया। यह आदेश मानवाधिकारों के पैरोकारों की इस दलील की रोशनी में था कि सोनी सोरी की छत्तीसगढ़ में होनेवाली मेडिकल जांच पर भरोसा नहीं किया जा सकता इसलिए जांच का काम सूबे से बाहर हो। हैरत की बात है कि वास्तविकता सामने आने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने इस अपील को ठुकरा दिया कि सोनी सोरी को वापस छत्तीसगढ़ न भेजा जाये, कि वहां उसकी जान को ख़तरा है। 

लिंगाराम के साथ सोनी सोरी का नाम क्यों आया? दोनों ने मिल कर उस इलाक़े में ठेकेदारों के शोषण के ख़िलाफ़ आदिवासियों को एकजुट किया था जो माओवादियों का गढ़ माने जाते हैं। उनके अथक संघर्ष का नतीज़ा रहा कि आदिवासियों की मज़दूरी दोगुनी हुई। यह ख़तरे का बड़ा सिग्नल था। ज़ाहिर है कि आदिवासियों की एकता माओवादियों के सफ़ाया अभियान के नाम पर चल रहे पुलिसिया दमन के लिए चुनौती बनने की दिशा पकड़ रही थी। इसके अलावा ठेकेदारों से होनेवाली अवैध कमाई में भी घटत होने लगी थी। बांस ही नहीं रहेगा तो बांसुरी भला कैसे बजेगी? इसलिए दोनों को माओवादियों का मददगार साबित करने की साज़िश रच दी गयी। बताते चलें कि सोनी सोरी का भतीजा है लिंगाराम।

सोनी सोरी के साथ हुई बदसुलूक़ियों पर शोर मचने के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और राष्ट्रीय महिला आयोग ने गुज़रे साल नवंबर और दिसंबर में इसकी छानबीन की थी और उसे सही पाया था। महिला आयोग के जांच दल की एक सदस्य ने तब कहा था कि हिरासत के दौरान हुए भीषण अत्याचारों के सदमे से उबरने के लिए सोनी सोरी को मनोवैज्ञानिक सलाह की ज़रूरत है। हालांकि इसी दल की दूसरी सदस्य एनी राजा ने इस राय से असहमति दर्ज़ करते हुए कहा था कि सोनी सोरी बहुत बहादुर महिला हैं, कि जांच दल के सामने पूरे होशोहवास में उन्होंने अपनी मार्मिक आपबीती बयां की, कि उन्हें मनोवैज्ञानिक सलाह से कहीं ज़्यादा इंसाफ़ की ज़रूरत है। लेकिन राज सरकार ने पहली टिप्पणी को अपने मुफ़ीद माना और सोनी सोरी के दिमाग़ी हाल की पड़ताल किये जाने का काम शुरू कर दिया। इस फ़ुर्ती के पीछे मंशा यह साबित किये जाने की है कि उनकी दिमाग़ी सेहत सचमुच ठीक नहीं। दिमाग़ी सेहत गड़बड़ है तो उनके कहे पर कैसे यक़ीन किया जा सकता है। इस पूरे मामले से समझा जा सकता है कि छत्तीसगढ़ में क़ानून का शासन किस क़दर लंगड़ा कर चलता है, कि सरकारी गुनाह किस तरह इंसाफ़ का लबादा ओढ़ने की जुगत करता है?

  

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