जिंदल, जंगल और जनाक्रोश: 2008 का पुलिस दमन नहीं भूलेंगे रायगढ़ के लोग
रायगढ़ में 5 जनवरी को काला दिवस मनाया गया। यह आयोजन 2009 से हर साल इसी तारीख को मनाया जाता है ताकि 2008 में ग्रामीणों पर हुए पुलिसिया हमले की याद जिंदा रहे और उसके खिलाफ गुस्से की आग सुलगती रहे। जिंदल को ज़मीन न देने पर जन सुनवाई में आए लोग बर्बर पुलिसिया दमन के शिकार हुए जिसमें बत्तीस लोग बुरी तरह घायल हुए थे. पेश है रायगढ़ के सामाजिक कार्यकर्ता राजेश त्रिपाठी की रिपोर्ट:
अनुसूची 5 के तहत आनेवाले क्षेत्र के आदिवासियों को नहीं पता था कि उनकी कृषि भूमि, नदी, जंगल और जीने का अधिकार छीन कर उन्हें विस्थापित करने की औपचारिकता के नाटक का नाम जन सुनवाई होता है। बताया गया था कि यह आयोजन उनकी रायशुमारी के लिए है। लेकिन भारी पुलिस बल, हार्न बजाती दमकल की गाड़ियां, एंबुलेंस समेत प्रशासनिक और जिन्दल के अधिकारियों तथा दलालों की चमचमाती गाड़ियों की धूल से ही गांव के लोग सकते में आ गये।
इस आयोजन में ग्रामीणों की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए रायगढ़ के कुछेक सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बड़ी मेहनत मेहनत की थी। हिम्मत बंधायी थी कि अपनी बात रखने के लिए वे इसमें जरूर शामिल हों। परन्तु जैसे ही ग्रामीणों ने जनसुनवाई में जमीन छीने जाने की बात सुनी, उनके बीच गजब की एकता कायम हुई। उन्होंने अपनी जमीन किसी भी कीमत पर जिन्दल को नहीं देने तथा प्रशासन की इस एकपक्षीय कार्रवाई का भरपूर विरोध किया।
यहां यह भी बताना जरूरी है कि स्थानीय विधायक (जो बाद में मंत्री बने) सत्यानंद राठिया उस दिन इलाके से नदारद थे। रायगढ़ स्थित जिला पंचायत भवन में थे और वहीं से आयोजन का आंखों देखा हाल सुन रहे थे और मोबाइल फोन के जरिये प्रशासनिक अधिकारियों को दिशानिर्देश दे रहे थे।
आयोजन से पहले ही जिन्दल को जमीन नहीं दिये जाने का प्रस्ताव ग्रामसभा प्रस्ताव पारित कर चुकी थी। तो भी जनसुनवाई का आयोजन हो रहा था। इस फर्जीवाड़े के लिए ग्रामीणों ने सरकारी नुमाइंदों को लताड़ा और ज़िंदल वापस जाओ का नारा लगाया तो बाहर से आये फौजफाटे के हाथ-पांव फूलने लगे। हालात काबू से बाहर होते देख जिन्दल के कर्मचारियों को पीछे से पथराव करने का निर्देश जारी हो गया। एक पत्थर जन सुनवाई में अपना विरोध दर्ज कर रहे स्थानीय किसान नेता डा. हरिहर पटेल की नाक से टकराया और वे बेहोश होकर गिर गये। यह देख कर ग्रामीण घबरा कर इधर-उधर भागने लगे। इनमें महिलाएं और बुजुर्ग भी थे। कुछ अपने छोटे-छोटे बच्चों को भी लेकर आये थे। पुलिस ने सबको दौड़ा-दौड़ा कर मारना शुरू कर दिया। यह सिलसिला कोई पौन घंटे तक चला। सैकड़ों की तादात में महिला-पुरुष घायल हुए। सबसे ज्यादा 32 लोग गंभीर रूप से घायल हुए जिनमें डा. हरिहर पटेल की हालत बेहद नाजुक हो गयी।
यह झूठ बोला गया कि पथराव ग्रामीणों की ओर से हुआ। हालांकि इस भीषण लाठी चार्ज में केवल ग्रामीण घायल हुए जो जिन्दल कंपनी का विरोध कर रहे थे। जिन्दल प्रबंधन और प्रशासन के किसी कर्मचारी और अधिकारी को खरोंच तक नहीं लगी। इधर सामाजिक कार्यकर्ताओं की मदद से घायलों को अस्पताल ले जाया जा रहा था और उधर एडीशनल कलेक्टर जन सुनवाई को दोबारा चालू करने के आदेश दे रहे थे। जबकि आयोजन स्थल पर कोई ग्रामीण नहीं रह गया था। उपस्थित सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध करते हुए जन सुनवाई को निरस्त करने का जबरदस्त विरोध किया, तब कहीं जाकर जन सुनवाई का नाटक रूका। एन.जी.टी. ने इसे बाद में रद्द कर दिया।
उस हादसे ने लोगों के दिलो दिमाग में शासन-प्रशासन और जिन्दल प्रबंधन की करतूत का कभी न भूलने वाला जख्म भरने का काम किया। लाठीचार्ज की जांच सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देश में सीबीआई से कराने तथा दोषी अधिकारियों पर कार्रवाई करने की मांग हुई। पर आज तक उस पर कोई ध्यान नहीं दिया गया।
तब से हर साल 5 जनवरी को काला दिवस के रूप में याद करने की शुरूआत हुई। इस साल ग्राम गारे के लोगों ने डा. हरिहर पटेल के नेतृत्व में 3 जनवरी 2013 को ग्राम गारे के हुंकरा डिपा चौक से पदयात्रा शुरू की। जिन्दल कंपनी के मुख्य द्वार पर सैकड़ों की संख्या में आदिवासी जुटे और उन्होंने शासन-प्रशासन और जिंदल के खिलाफ जोशीले नारे बुलंद किये। गीत गाया कि गांव छोड़ब नाहीं, लड़ाई छोड़ब नहीं, माय माटी छोड़ब नहीं, लड़ाई छोड़ब नहीं… । पदयात्रा सबसे पहले सलिहाभांठा गांव पहुंची। फिर सारसमाल कोसमपाली से गुजरते हुए बासनपाली, गोड़ी, उसडोल, नया पारा पहुंची। प्रथम दिन की पदयात्रा शाम को तमनार स्थित जगन्नाथ मंदिर पहुंची। पदयात्रा ने यहां रात का पड़ाव डाला।
4 जनवरी को पदयात्रा लिबरा, झरना होते हुए टपरंगा, उडकेल पहुंची। वहां जिन्दल और मोनेट कंपनी की मिलीभगत से खदान में चली गयी जमीन के मुद्दे को उठाते हुए ग्रामीणों ने पदयात्रा का समर्थन किया। इसके बाद पदयात्रा लमदरहा पहुंची।
5 जनवरी को सारस माल कोसम पाली के शाला प्रांगण में पदयात्रा दल पहुंचा। गांव के सभी पाराओं में पदयात्रा गयी। जिन्दल की कोयला खदान में ब्लास्टिंग से होनेवाले नुकसानों तथा इसकी शिकायत को अनसुना करने और ग्रामीणों के खिलाफ ताबड़तोड़ फर्जी मामले दर्ज किये जाने के सवाल पर चर्चा हुई। रायगढ़ जिले के वरिष्ठ पत्रकार शशिकान्त शर्मा ने कहा कि सरकार और उद्योगपति रायगढ़ को विकास के नाम पर खत्म करने की साजिश छोड़ दें। आदिवासी अब विकास और विनाश में अंतर समझ गये हैं। अन्य वक्ताओं ने कहा कि सरकार को अपनी जवाबदेही सुनिश्चित करनी चाहिए कि तमनार के मूल निवासी जिन्दा रहें, नही तो अब इस दमन के खिलाफ उठी आग दावानल में बदल जायेगी। वो दिन दूर नहीं जब उद्योगों द्वारा लगातार स्थानीय नेताओं के ऊपर हो रहे हमलों का जवाब भी हमलों से हो सकता है। खदानों पर लोगों का कब्जा भी हो सकता है। आदिवासी समाज ज्यादा दिनों तक संसाधनों की लूट का खेल नहीं होने देगा।
पदयात्रा में सामाजिक कार्यकर्ता रमेश अग्रवाल की फोटो लगे बैनर थे जिसने आगे की लड़ाई के लिए ऊर्जा भरने का काम किया। रमेश अग्रवाल ज़िंदल के गुंडों की गोलियां खा चुके हैं और इलाज करवा रहे हैं। लेकिन संघर्ष का उनका जज्बा जस का तस बरकरार है। उनकी अनुपस्थिति के बावजूद इस जज्बे की गर्माहट बनी रही।
पदयात्रा के दौरान उठायी गयी प्रमुख मांगें-
- खम्हरीया-गारे लाठीचार्ज में दोषियों को सजा दी जाये।
- रायगढ़ जिले में जितनी भी कोयला खदनें हैं, उनकी सुप्रीमकोर्ट की निगरानी में सीबीआई जांच की जाये।
- तमनार में अब खदानों, पावर प्लांट का विस्तार नहीं किया जाये। जितने भू अधिग्रहण किये जा रहे हैं, उन पर रोक लगायी जाये। फर्जी जन सुनवाई रोकी जाये।
- सरकार अगर निजी कंपनियों को नहीं रोकती तो अब ग्रामीण अपना स्वयं कोयला खदान बनायेंगे।
- पूरे तमनार ब्लाक को पेसा क्षेत्र घोषित कर ग्रामसभा को मजबूती प्रदान की जाये। स्थानीय संसाधनों पर पहला हक आदिवासियों का सुनिश्चित किया जाये।
- ग्रामीणों पर लगे फर्जी मामले वापस लिये जायें।