दामिनी बलात्कार और समाज व्यवस्था
दामिनी की सिंगापुर के माउंट एलिजाबेथ में मौत हो चुकी है। लम्बे समय तक सफदरजंग अस्पतला में उसका इलाज चला लेकिन दामिनी की हातल गंभीर होती चली गयी अंत में दामिनी को सिंगापुर भेजना पड़ा। इससे यह स्पष्ट है कि भारत सरकार का स्वास्थ्य के प्रति कितनी उदासीन है। हथियारों पर लाखों करोड़ खर्च करने वाली सरकार के पास आंतों के प्रत्यारोपण के लिए कोई बजट ही नहीं है। सरकार की प्राथमिकता पर बहस की जरूरत है। बुनियादी सवालों को रेखांकित करती सुनील की यह रिपोर्ट;
पितृसत्तात्मक समाज में महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं- दिल्ली, मुम्बई जैसे महानागर हो या भारत के पिछड़े गांव; महिला चाहरदीवारी के अंदर हो या चाहरदीवारी के बाहर; कम कपड़े में हो या अपने पूरे शरीर को छिपाये हुए, उसका इस पितृसत्तात्मक समाज में अलग-अलग रूपों में शोषण रोज-ब-रोज होता है। महिलाओं, लड़कियों की बात छोड़ दीजिये, 2-3 वर्ष तक की अबोध बच्चियां वहशीपन का शिकार होती रही हैं। इसी घटनाक्रम में 16 दिसम्बर, 2012 को एक घटना दक्षिणी दिल्ली में हुई, जब एक लड़की अपने दोस्त के साथ अपने घर द्वारका के लिए मुनिरका से बस में सवार होती है। दरिन्दे बस में लड़की के दोस्त को मार-पीट कर घायल कर देते हैं और लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार करते हैं। यहां तक कि बलात्कारी वहशीपन की सारी हदों को पार करते हुए लड़की के गुप्तांगों में सरिया डाल कर व लड़की को अधमरा कर अपनी विकृत पुरुष मानसिकता को संतुष्ट करते हैं। लड़की और उसके दोस्त को मरणासन्न अवस्था में वे चलती बस से फेंक देते हैं। यह मामला चूंकि दिल्ली के किसी दूर-दराज इलाके का नहीं था, यह दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे वाले क्षेत्र की आस-पास की घटना थी इसलिए यह मामला मीडिया में सुर्खी बन पाया। संसद का शीतकालीन सत्र भी चल रहा था जहां पर कुछ दिन पहले एफडीआई पर सरकार की जीत के साथ आम जनता में यह बहस का विषय बना हुआ था कि एफडीआई से क्या लाभ और हानि है। संसद में पदोन्नती में आरक्षण का मुद्दा गर्म था। यह मामला मीडिया में आते ही संसदीय पार्टियांे को एक मुद्दा मिल गया और वे नारी की इज्जत के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाने लगीं। (चुनाव में सभी पार्टियां अपराधियों, बलात्कारियों को टिकट देती हैं और उसमें से बहुत चुनाव जीत कर आते हैं। अभी 42 सांसद, विधायक ऐसे हैं जिन पर बलात्कार का केस चल रहा है)।
मीडिया में इस वीभत्स घटना को देखकर लोगों की भावनाएं आहत हुईं। आये दिन छेड़खानी और बलात्कार की घटना सुनकर व पढ़कर, खासकर दिल्ली की मध्यमवर्गीय महिलायें, जो रोज काम पर, स्कूल या कॉलेजों में जाती हैं और आये दिन अपने ऊपर होने वाली घटना से चिंतित और सहमी रहती हैं, इस घटना से आक्रोशित हो गईं। वे वह इस बार कॉलेज और स्कूलों के अपने दोस्तों के साथ निकल पड़ी न्याय मांगने के लिए। अधिकांश युवा वर्ग के लोग मीडिया में कवरेज मिलने के कारण स्वतःस्फूर्त रूप से बाहर आये। यह जन आक्रोश केवल बलात्कार के कारण ही नहीं था बल्कि इसके और भी कई कारण थे। 20 दिसम्बर को नॉर्थ ब्लॉक के सामने हो रहे प्रदर्शन में जो नारे लगा रहे थे ‘सेक्सुअल हेरसमेन्ट का एक जबाब आकुपाई नॉर्थ ब्लॉक’, वे इस बात को इंगित करता है कि दमनकारी, भ्रष्टाचारी व्यवस्था से जनता ऊब चुकी है और एक बदलाव चाहती है। 65 सालों से उनको किसी भी संसदीय पार्टियों पर विश्वास नहीं रहा है। यह चुनावबाज पार्टियां किसी तरह तीन तिकड़म कर चुनाव जीत जाती हैं लेकिन सत्ता में आने के बाद वही भाई-भतीजावाद करती है और भ्रष्टाचारी, शोषणकारी, दमनकारी नीति को अपनाती हैं जो कि उनकी पूर्ववर्ती सरकारें करती आई हैं। इन आन्दोलनों को सही नेतृत्व प्रदान कर लोगों के वाजिब गुस्से को सही दिशा देेने वाली कोई पार्टी या संगठन नहीं होने के कारण यह आन्दोलनें अलग-अलग समय पर अलग-अलग लोगों के नेतृत्व में चला गया। ये आन्दोलन सही दिशा में जाने के बजाय ठहराव का शिकार हो गया।
मीडिया की भूमिका
मीडिया जनता के उसी आन्दोलन को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाती है जो बिना वैचारिक रूप लिये खड़ा हो। क्योंकि मीडिया जिन लोगों की है वह उन्हीं शासक वर्ग की जमात मंे खड़़े हैं जो शोषणकारी, भ्रष्टाचारी, दमनकारी नीतियों को बढ़ावा देता है। यह बात पहले दबी-छुपी हुई रहती थी, लेकिन नीरा राडिया केस और जी न्यूज पर लगे आरोपों से यह बात खुले तौर पर साबित हो गया है कि मीडिया का क्या रोल होता है। इंडिया गेट और राष्ट्रपति भवन के सामने हुए प्रदर्शन को मीडिया ने अच्छा कवरेज दिया क्योंकि इन प्र्रदर्शनकारियों में जो युवा वर्ग निकल कर बाहर आये थे वो गैर राजनीतिक थे। यह युवा वर्ग शासक वर्ग के महत्वाकांक्षा से अंजान थे। वे नहीं समझते थे कि भारत का शासक वर्ग, जो पहले से ही भारत की जनता के जायज आंदोलन को क्रूर तरीके से कुचल रही है, ‘फांसी की सजा’ व ‘लिंग भंग’ कर देने की मांग पहले से ही दमनकारी शासक वर्ग को और दमनकारी अधिकार देगी तथा उसे और क्रूर बनायेगी। इसका खुला रूप हम छत्तीसगढ़ जेल में बंद सोनी सोरी के केस में देख सकते हैं। इस आदिवासी अध्यापिका को झूठे केसों में बंद कर अमानवीय तरह से प्रताड़ित किया गया। यहां तक कि एस. पी. अंकित गर्ग ने उनके गुप्तांग में पत्थर डाल दिया और ऐसे हैवान को सजा देेने के बजाय राष्ट्रपति द्वारा वीरता पदक से नवाजा गया। महिला आयोग की अध्यक्षा बलात्कारियों का लिंग काटने की मांग कर रही हैं, लेकिन उनके द्वारा भी इस उत्पीड़ित आदिवासी महिला के केस को बंद कर दिया गया था। यह खबर मीडिया के लिए कभी भी मुख्य समाचार नहीं बना- न ही इसे छापा गया और न ही चलाया गया ताकि भारत की जनता इस घिनौने सच को जान सके। मीडिया जिम्मेदार नागरिक की नहीं, पेशेवर पत्रकारिता का रोल निभा रही है। मार्केट के लिए उसको कैसा फुटेज चाहिए वही कवरेज करने में लगी रहती है। जिम्मेदार नागरिक की तरह वह पीड़ित की सहायता नहीं करने के बजाय वो अपने लिए सिधा लाइव दृश्य दिखाने की कोशिश करती रहती है। जैसा कि गुवहाटी में एक लड़की के साथ भीड़ द्वारा उसके कपड़े फाड़ने के दृश्य की फोटो खिंचते रहना या पंजाब के पटियाला में रेहड़ी पटरी उजाड़े जाने के खिलाफ यूनियन के अध्यक्ष द्वारा आत्मदाह करने पर उसकी फोटों खिंचते रहना और उसको बचाने की कोशिश नहीं करना।
इंडिया गेट पर हो रहे प्रदर्शन में एक सिपाही की मौत (मौत की वजह भी संदेहास्पद है) के बाद मीडिया ने उसे काफी प्रचारित किया और ‘ड्यूटी पर कर्तव्य का निर्वाहन करते हुए’ पुलिस की शहादत का गुणगान करते हुए सरकार की हां में हां मिलाया। उसने बिना जांच-परख के प्रर्दशनकारियों को कातिल बना दिया। वहीं घायल प्रदर्शनकारी, जो कि बिना वेतन और भूखे-प्यासे नागरिक समाज के कर्तव्य का निर्वाह कर रहे थे, इनका कर्तव्य न तो सत्ताधीशों और न ही प्रशासन को दिखाई दिया। दक्षिण भारतीय शिक्षा समाज द्वारा दिये गये पुरस्कार के ढ़ाई लाख रु. मेगा स्टार अमिताभ बच्चन ने मृत सिपाही के परिवार को देने की घोषणा की है। पीड़िता के परिवार को किसी भी प्रकार की आर्थिक सहायता न तो दिल्ली सरकार न केन्द्र सरकार और न ही मेगा स्टार अमिताभ बच्चन जैसे ‘समाज सेवी’ लोगों द्वारा देने की बात कही गयी है।
प्रीति जिंटा की बलात्कारियों के लिंग काट देने की मांग और जया बच्चन की बालात्कार पीड़ित लड़की के लिये घड़ियाली आंसू मीडिया की सूर्खी बन जाती है। जब कि वालीवुड फिल्मों द्वारा जिनमें चाहे प्रिति जिंटा हो या बच्चन परिवार, विकृत पुरुष मानसिकता को जन्म दिया जाता है येे किसी से छुपी हुई बात नहीं है। माल को बेचने के लिए जिस तरह से विज्ञापन दिखाया जाता है क्या वह विकृत मानसिकता को जन्म नहीं देती है? इस तरह के विज्ञापन का प्रचार सुपरस्टार अभिनेता, अभिनेत्री, खिलाड़ी करते हैं- क्या हम इसके लिए उनको दोषी नहीं माने? क्या हम इस तरह के विज्ञापन युक्त मालों को खरीदना बंद नहीं कर सकते?
फांसी की सजा की मांग
कहा जा रहा है कि दिल्ली गैंग रेप के बलात्कारियों को फांसी पर लटकाने से हम उन सभी महिलाओं को न्याय दिला सकते हैं जो लोक-लज्जा के भय से बलात्कार की घटना को छुपाती हैं। क्या हम सोनी सोरी, मनोरमा और शोपिया जैसे हजारों बलात्कार पीड़िताओं को न्याय दिला पायेंगे। राष्ट्रीयता के आत्मनिर्णय के अधिकार और अपने जीविका के संसाधनों जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए शासक वर्ग के खिलाफ लड़ रहे महिलाओं को बलात्कार, हत्या कर दो और बदले में वीरता का पुरस्कार पाओ। क्या उन बलात्कारियों की फांसी की सजा होगी? वी.के. सिंह के जनरल रहते हुए कश्मीर से लेकर उत्तर-पूर्व के राज्यों में भारतीय सेना द्वारा कितनी मां-बहनों के साथ बलात्कार किया गया क्या जनरल सिंह उन सेना के जवानों, अफसरों को दंडित कर पाये? क्या कभी रूचिक गिरहोतत्रा, भंवरी देवी, गीतिका शर्मा के हत्यारों को फांसी की सजा हो सकती है या उनके लिंग काटे जा सकते हैं? क्या वे पूरे जिन्दगी जेल में रह सकते हैं? कभी-कभी सिविल सोसाइटी के दबाव के कारण जोसिका लाल या प्रियदर्शनी मट्टू के हत्यारों की सजा हो भी जाती है तो वे जेल में अतिथि बन कर रहते हैं और जब-तब पैरोल पर बाहर आते रहते हैं। दामिनी के बलात्कारियों को कठोर से कठोर सजा होनी चाहिए लेकिन वह सजा हर बलात्कारियों को होनी चाहिए। इस कांड में जो छह आरोपित पकड़े गये हैं कोई अरबपति, राजनेता या नौकरशाह नहीं है न ही शासक वर्ग से ताल्लुक रखते हैं, इसलिए इनको जल्द से जल्द सजा होगी; ये पूरी जिन्दगी जेल में रहेंगे और हो सकता है कि उनको फांसी की सजा भी हो जाये। इनको सजा देकर शासक वर्ग और उनके प्रचार तंत्र भारत की मीडिया चिल्ला-चिल्ला कर कहेगी कि देखो बलात्कारियों को सजा दे दी गयी। क्या इससे देश की उन सभी महिलाओं को न्याय मिल जायेगा जो सत्ता के द्वारा या अपरोक्ष रूप से सत्ता में बैठे लोगों की हैवानियत की शिकार हुई हैं और जिसका पूरा परिवार बर्बाद हो चुका है? मणिपुर में मनोरमा के बलात्कारियों को सजा दिलाने के लिए महिलाओं ने असम राइफल्स के गेट पर नंगा होकर प्रदर्शन किया और भारतीय सेना को चुनौती दी कि आओ हमारा बलात्कार करो। किसी को सजा हुई?
जब किसी अरबपति-खरबपति, माफिया सरगना, ऊंच्च जाति, अफसरशाह, नेता या उसके परिवार के किसी भी पुरुष सदस्य द्वारा ऐसी काली करतूत की जाती है तो पीड़िता के ही चरित्र पर सवाल उठाये जाते हैं। प्रताड़ित लड़की या महिला का चरित्र ही गलत है, वह पैसा चाहती है, सुर्खियां बटोरने के लिए यह सब कर रही है, डॉक्टरी रिपोर्ट का इंतजार करो, मीडिया पर ध्यान मत दो, बेचारे को झूठा फंसा रही है, आदि, आदि कह कर लोगों को दिगभ्रमित किया जाता है ताकि आम जनता पीड़िता को ही दोषी मानने लगे।
मध्यकालीन बर्बरता
बलात्कार सामंती युग की बर्बरता है। किसी से बदला लेना हो, किसी को नीचा दिखाना हो तो उसके घर के महिलाओं के साथ बलात्कार करो। सामंती युग की इस बर्बरता को पूंजीवादी उपभोक्तावादी संस्कृति और बढ़ावा देती है। गुजरात के दंगों में विशेष समुदाय के महिलाओं के साथ बलात्कर किया गया, उनके पेट को चीर कर भ्रूण को काट दिया गया- यह किस सभ्य समाज की निशानी है? हमें शासक वर्ग को सरलीकरण का रास्ता दिखाते हुए उसे और दमनकारी बनाने की मांग नहीं करनी चाहिए। बलात्कार पुरुषवादी मानसिकता में है जो इस समाज के जड़ में निहित हैं। सत्ता के शीर्ष पर हों या कानून के रखवाले हों, उनकी हजारों साल की सोच में यह रची-बसी है कि महिला उपभोग की वस्तु है। पंजाब के पुलिस महानिदेशक के.पी.एस. गिल द्वारा भारतीय महिला प्रशासनिक अधिकारी को पार्टी में छेड़ना हो या राजस्थान में महिला पुलिस का उसके सहकर्मियों द्वारा थाने में बलात्कार किया जाना या एक मजदूर द्वारा अपनी बेटी का बलात्कार सभी इस पुरुषवादी मानसिकता को दर्शाते हैं। भाजपा शासित गुजरात हो या सपा-बसपा शासित उत्तर प्रदेश या कांग्रेस शासित प्रदेश हो, हर राज्य में बलात्कार की घटना सत्ताधीशों या उनके संरक्षण में होती है। अपने को सर्वहारा का हितैषी बताने वाली सीपीएम के राज्य बंगाल के सिंगूर में सीपीएम के कार्यकर्ताओं द्वारा सिंगुर आन्दोलन की नेत्री तापसी मलिक का बलात्कार फिर उसकी हत्या हो या नन्दीग्राम में सीपीएम नेताओं, कार्यकर्ताओं द्वारा महिलाओं के बलात्कार सभी इसी श्रेणी में आते हैं।
महिलाओं की मानसिकता भी पुरुषवादी सोच से कोई अलग नहीं है जैसा कि म.प्र. के सेमिनार में एक महिला वैज्ञानिक डॉ. अनिता शुक्ला द्वारा ये कहा जाना कि ‘‘लड़की आधी रात में ब्वाय फ्रेंड के साथ क्या कर रही थी, क्यों घूम रही थी।’’ यहां तक कि उन्होंने लड़की को आत्मसमर्पण कर देने की बात भी कह डाली। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित द्वारा महिलाओं को अकेले न निकलने की और, कपड़े ठीक से पहनने की नसीहत दी जाती है। यहां तक की सीपीएम पोलित ब्यूरो सदस्य वृंदा कारत द्वारा नन्दीग्राम बलात्कार में पीड़िता के मद्द करने के बजाय अपने पार्टी को बचाने वाला बयान दिया गया कि दस के साथ नहीं चार औरतों के साथ बलात्कार हुआ है।
देश में अभी भी खाप पंचायत लड़कियों को लेकर तुगलकी फरमान सुनाते रहते हैं कि लड़कियों को जींस नहीं पहनना चाहिए, मोबाईल नहीं होना चाहिए, लड़कों से बात नहीं करना चाहिए। प्रेम विवाह करने पर उनको फांसी जैसी सजा देना, ये भारत जैसे देश में विद्यमान है। हरियाणा के मंत्री द्वारा यह बयान दिया जाता है कि लड़कियों को बलात्कार से बचाने के लिए कम उम्र में शादी (जो की भारतीय कानून के खिलाफ है) कर देना चाहिए। तालिबान को बुरा मानने वाले लोग तालिबानी अंदाज में सजा देने को जायज ठहरा रहे हैं कि बलात्कारियों को जनता के हवाले कर दो। क्या इससे अरब देशों में बलात्कार की घटनाएं बंद हो गई हैं? इस तरह के कानून से हिंसा और बढ़ेगी। बलात्कारी सबूत मिटाने के लिए पीड़िता को मार डालेंगे।
संसदीय दलों की भूमिका
पुरुषवादी मानसिकता की ही सोच है कि प्रधानमंत्री से लेकर गृहमंत्री तक अपने को बेटियों का बाप होने का एहसास दिलवाकर जनता की अवाज को चुप कराना चाहते हैं। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के पुत्र एवं कांग्रेस सांसद अभिजीत मुखर्जी का बयान की ‘‘खूबसूरत लड़कियां सज-धज कर विरोध करने पहुंचती है।‘‘ तहलका मैगजीन द्वारा एनसीआर के कई थानेदारों का इंटरव्यू छापा गया था जिसमें ये कानून के रखवाले, बलात्कारियों को पकड़ने वाले बलात्कार के लिए लड़कियों को ही जिम्मेदार बता रहे थे। लड़कियां कम कपड़े पहनती हैं, भड़काऊ कपड़े पहनती हैं, लड़कांे से हंस हंस (जैसा कि हंसना अपराध हो) कर बातंे करती हैं। इनका बलात्कार पीड़िता से क्या व्यवहार होता होगा? इंडिया गेट पर यौन उत्पीड़न और बलात्कार के खिलाफ प्रदर्शन करने वाली लड़कियों को पुलिस वालों की भद्दी गालियों का शिकार होना पड़ा। यह किस समाज और किस मानसिकता का परिचायक है? क्या यह यौन उत्पीड़न नहीं है- इसके लिए क्या सजा होगी और कौन सजा देगा? दिल्ली में हुए सामुहिक बलात्कार के बाद देश भर में यौन हिंसा के खिलाफ प्रदर्शन हो रहे हैं। जिस 72 घंटे प्रदर्शनकारी दिल्ली के इंडिया गेट पर आंसू गैस के गोले, लाठी चार्ज और ठंड में भी पानी की बौछारों का सामना करते रहे, उसी 72 घंटे के दौरान देश में 150 बलात्कार की घटनाएं हुईं। (दैनिक भास्कर, 25 दिसम्बर 2012)
हमारा कार्यभार
फास्ट ट्रैक कोर्ट में भी बलात्कार पीड़िता को क्या न्याय मिलेगा इसकी भी संभावना कम है। पुलिस निर्दोष लोगों को पकड़कर कोर्ट में प्रस्तुत करेगी और अमीर घरानों के दरिन्दें साफ बचे रहेंगे। ऐसा बम कांडों मंह निर्दोष मुस्लिम युवाओं की गिरफ्तारी से पता चलता है। जज भी इसी पुरुष प्रधान समाज से आते हैं या आती हैं। भंवरी देवी के केस में जज ने माना ही नहीं कि कोई ऊंच्च जाति का व्यक्ति छोटी जाति के साथ बलात्कार कर सकता है। आज शासक वर्ग की हर मशीनरी पंगु हो चुकी है, उससे हम कैसे अपेक्षा कर सकते हैं कि वह किसी कमजोर वर्ग की पीड़िता को न्याय दे पायेगा। हमें आम जनता के विरोध और गुस्से को सही राजनीतिक और सामाजिक दिशा देनी होगी। हम उस असफलता को छिपाने के लिए भवावेश में आकर इस दमनकारी शासक वर्ग से ऐसी मांग न कर दें कि जिससे आम जनता को ही नुकसान हो। पितृसत्तात्मक समाज को बदलने के लिए लड़कों को बचपन से ही यह बताना पड़ेगा कि क्या गलत है क्या सही ताकि उन पर सकारात्क प्रभाव पड़े। हम लड़कियों को बचपन से ही उसके दिमाग में डालते हैं कि तुम को कैसे बैठना है, कैसा रहना है जो कि उन पर एक नकरात्मक प्रभाव छोड़ता है। कुल मिलाकर हमें एक ऐसी व्यवस्था के निर्माण की लड़ाई को आगे बढ़ाना होगा, जहां हर प्रकार के विभेद (पुरुष व महिला के बीच के विभेद समेत) व शोषण-दमन का खात्मा होगा।