चम्पारण सत्याग्रह : एक शताब्दी का सफर
जिन मूल्यों को लेकर महात्मा गांधी ने चम्पारण से भारत में अपने अभियान की शुरुआत की थी तथा किसानों की समस्याओं को पहली बार केंद्र में लाने का प्रयास किया था, उसे पूरी एक शताब्दी हो चुकी है। आज देश का किसान बदहाल है और लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं और यह सिलसिला (प्रतिदिन) बदस्तूर जारी है। क्या इस वर्ष हम पुन: गांधी के नजरिए से किसान समस्या का निराकरण करने का प्रयास करेंगे। पेश है एल.एस. हरदेनिया का आलेख;
सारा देश इस वर्ष चम्पारण सत्याग्रह की 100 वीं वर्षगांठ मना रहा है। सौ वर्ष पूर्व महात्मा गांधी बिहार के चम्पारण नामक स्थान पर पहुंचे थे। उनका उद्देश्य उस क्षेत्र के किसानों को ब्रिटिश साम्राज्य और स्थानीय सामंतों के अत्याचारों से मुक्ति दिलाना था। इस सत्याग्रह ने ही मोहनदास को महात्मा बना दिया था। यदि गुजरात का पोरबंदर उनकी जन्मभूमि थी तो बिहार का चम्पारण उनकी प्रथम कर्मभूमि थी। 15 अप्रैल 1917 को मोतीहरी रेलवे स्टेशन पर हजारों लोग एकत्रित थे क्योंकि उन्हें जुल्मों से मुक्ति दिलाने के लिए एक शख्स आने वाला था। जय-जयकारों के बीच प्लेटफार्म पर उतरे गांधी जी को तब शायद मालूम नहीं था कि चम्पारण में जो कुछ होने वाला है वह उनकी जिंदगी का गौरवषाली पृष्ठ होगा।
सन् 1916 में लखनऊ कांग्रेस अधिवेशन के दौरान उनसे राजकुमार शुक्ला नामक एक व्यक्ति ने मुलाकात की। उन्होंने गांधी जी से अनुरोध किया कि वे चम्पारण आएं और किसानों की दुःखभरी गाथा सुनें। इस मुलाकात के बारे में गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मैंने न तो चम्पारण का नाम सुना था और ना ही मुझे उसकी भौगोलिक स्थिति का ज्ञान था। मुझे वहां के लोगों की स्थिति के बारे में भी कोई खास जानकारी नहीं थी। ब्रिटिश शासकों ने वहां के किसानों पर तिनकथिया नाम की व्यवस्था लाद दी थी। इस व्यवस्था के अंतर्गत किसानों के लिए यह अनिवार्य कर दिया गया था कि वे अपनी ज़मीन के एक निश्चित हिस्से में नील की खेती करें। नील एक रंजक है। यह सूती कपड़ों में पीलेपन से निजात पाने के लिए उपयोग किया जाता था। यह चूर्ण (पाउडर) तथा तरल दोनों रूपों में प्रयुक्त होता था। ब्रिटिष शासन का यह आदेष वहां के किसानों की तकलीफों का मुख्य कारण था। यद्यपि किसानों के लिए नील की खेती अनिवार्य कर दी गई थी परंतु उसके एवज में क्षतिपूर्ति के रूप में उन्हें जो दिया जाता था वह बहुत ही कम था। इसके अतिरिक्त इस बात का भी प्रावधान किया गया था कि यदि वे नील की खेती नहीं करेंगे तो उन्हें आर्थिक रूप से दंडित किया जाएगा।
नील की खेती अनिवार्य करने से अनाज के उत्पादन में भारी कमी आ गई थी। इस कारण वहां अकाल जैसी स्थितियां निर्मित हो जाती थीं। पूरा दिन मोतीहारी में बिताने के बाद गांधीजी जासूलीपट्टी नामक गांव के लिए हाथी पर बैठकर रवाना हुए। सिर्फ एक दिन पहले वहां के एक किसान को बुरी तरह से पीटा गया था और उसकी सारी संपत्ति को स्वाहा कर दिया गया था। वे थोड़ी आगे बढ़े ही थे कि उन्हें एक नोटिस थमा दिया गया। इसमें उन्हें आदेष दिया गया था कि वे अगली ट्रेन से इस क्षेत्र को छोड़कर चले जाएं। परंतु गांधी जी ने इस आदेश को मानने से इंकार कर दिया। नतीजे में उन्हें गिरफ्तार किया गया और 18 अप्रैल को एक अदालत में पेश किया गया।
जिस बड़े पैमाने पर उन्हें समर्थन मिला उससे ब्रिटिश सरकार घबरा गई और उन्हें रिहा कर दिया गया। दो दिन के बाद मुकदमा भी वापिस ले लिया गया। सरकार की ओर से यह आष्वासन दिया गया कि किसानों की तकलीफों पर विचार किया जाएगा। कुछ समय के बाद किसानों की स्थिति का अध्ययन करने के लिए एक समिति बनाई गई और इसमें गांधी जी को भी शामिल किया गया। इस समिति ने वहां के किसानों से संपर्क कर उनकी तकलीफों को लिपिबद्ध किया और गांधी जी के आने के एक साल बाद समिति की सिफारिषें स्वीकार की गईं और तिनकथिया व्यवस्था वापिस ले ली गई।
चम्पारण एक ऐतिहासिक स्थल है। इसे राजा जनक का क्षेत्र भी माना जाता है। यहां पर कुछ ऐसे स्तूप भी हैं जो इस बात के प्रतीक हैं कि यहां एक समय बुद्ध धर्म का प्रभाव रहा होगा। अषोक महान द्वारा यहां पर चार स्तंभ भी स्थापित किए गए थे। यहां गांधी जी की याद में एक संग्रहालय की भी स्थापना की गई है और भी अनेक चीजें हैं जो यहां पर उनके आने की याद दिलाती हैं। परंतु इन सबकी स्थिति अच्छी नहीं है। चम्पारण सत्याग्रह के बाद भी गांधी जी वहां आते रहे। वे अनेक स्थानों पर जाते थे। यहां पर वे एक वकील के घर पर ठहरा करते थे। जिस मकान में वह ठहरते थे वह लगभग खंडहर हो गया है। अविनाष झुनझुनवाला बताते हैं कि गांधी जी उनके परदादा के घर में रुके थे। उस समय किसी में यह साहस नहीं था कि वे गांधी जी को अपने घर में मेहमान बनाएं, परंतु अविनाष के परदादा हजारीमल ने यह साहस दिखाया था जिसका उन्हें खामियाजा लंबे समय तक भुगतना पड़ा। गांधीजी ने यहां पर एक आश्रम की स्थापना भी की थी। वर्तमान में प्रयास जारी है कि उस आश्रम को फिर से ठीक किया जाए। वर्ष 1939 में गांधीजी ने यहां एक और आश्रम व गौषाला की भी स्थापना की थी। परंतु इस गौषाला की स्थिति भी अब खस्ता है। गांधीजी ने यहां शिक्षा के क्षेत्र में भी अनेक पहल की थीं। सन् 1917 में ही उन्होंने तीन पाठशालाओं की नींव रखी थी। इन स्कूलों में बुनियादी शिक्षा के सिद्धांत के अनुसार पढ़ाई होती थी।
चम्पारण सत्याग्रह के पहले और बाद में भी देश में अनेक सत्याग्रह हुए पर उन सत्याग्रहों और गांधी के चम्पारण सत्याग्रहों में कुछ बुनियादी अंतर है। इस सत्याग्रह के माध्यम से गांधी जी ने किसानों को आबादी के दूसरे वर्गों से जोड़ा। गांधी जी के प्रयासों के कारण बुद्धिजीवियों को भी किसानों की स्थिति समझने का अवसर मिला था।
राजेन्द्र बाबू अपनी किताब ’’चम्पारण का सत्याग्रह’’ में लिखते हैं कि चम्पारण के पहले भी अनेक आंदोलन हुए परंतु उन आंदोलनों का निष्चित इतिहास ज्ञात नहीं है। वर्ष 1907 में भी शेख गुलाब और सीतलराय ने नील की खेती के विरूद्ध आवाज़ उठाई थी। इस तरह चम्पारण आंदोलन के पूर्व जो भी आंदोलन हुए उन्हें इतिहास में शामिल नहीं किया जा सका। गांधी जी ने किसानों के शोषण को आज़ादी के आंदोलन का एक हिस्सा बनाया और किसानों में विद्रोह करने की क्षमता का विकास किया। परंतु यह दुखद है कि सौ साल के बाद भी यहां किसानों की स्थिति में ज्यादा अंतर नहीं आया है। गांधी जी के सत्याग्रह के कारण नील की खेती बंद हो गई और किसान गन्ना और धान उगाने लगे। परंतु खेती की मिल्कियत उन्हीं के हाथों में रही जो आज की सत्ता के नज़दीक हैं। जो ज़मीन अंग्रेजों के पास थी वह अब भारतीय सामंतों के पास है। पहले यहां नील की खेती करने वालों का दबदबा था तो अब कारखानों के मालिकों का है।
चम्पारण सत्याग्रह शताब्दी का एक वर्षीय समारोह विधिवत प्रारंभ हो गया है। पर्यावरणविद राजेन्द्र सिंह ने लोगों का आह्वान किया है कि वे अब जल सत्याग्रह करें और पानी बचाने की कोषिष करें। अब वहां पर सूखे की स्थिति है। अंग्रेजों ने जो नहर बनाई थी वह भी सूख गई है। एक किसान ने बताया ‘‘एक समय था जब हम साल में दो से ज्यादा फसल निकालते थे परंतु अब एक से ज्यादा फसल पैदा नहीं कर पाते।’’ चम्पारण सत्याग्रह के दौरान गांधी जी बार-बार कहते थे कि जब तक हम गांव की स्थिति नहीं बदलेंगे तब तक भारत एक संपन्न और सुखी देश नहीं बन पाएगा।
साभार : सप्रेस
(श्री एल. एस. हरदेनिया मानव अधिकार कार्यकर्ता और वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)