पत्थलगड़ी उन पत्थर स्मारकों को कहा जाता है जिसकी शुरुआत इंसानी समाज ने हजारों साल पहले की थी। यह एक पाषाणकालीन परंपरा है जो आदिवासियों में आज भी प्रचलित है। माना जाता है कि मृतकों की याद संजोने, खगोल विज्ञान को समझने, कबीलों के अधिकार क्षेत्रों के सीमांकन को दर्शाने, बसाहटों की सूचना देने, सामूहिक मान्यताओं को सार्वजनिक करने आदि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रागैतिहासिक मानव समाज ने पत्थर स्मारकों की रचना की। पत्थलगड़ी की इस आदिवासी परंपरा को पुरातात्त्विक वैज्ञानिक शब्दावली में ‘महापाषाण’, ‘शिलावर्त’ और मेगालिथ कहा जाता है। दुनिया भर के विभिन्न आदिवासी समाजों में ‘पत्थलगड़ी’ की यह परंपरा मौजूदा समय में भी बरकरार है। झारखंड के ‘मुंडा आदिवासी‘ समुदाय इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं जिनमें कई अवसरों पर पत्थलगड़ी करने की प्रागैतिहासिक और पाषाणकालीन परंपरा आज भी प्रचलित है।
विद्वान् लेखक ‘अल्गर्नाेन हरबर्ट’ के अनुसार पत्थलगड़ी, पुरखा पत्थर स्मारक को अंग्रेजी में Megalith कहा जाता है। मेगालिथ दो ग्रीक शब्दों ‘मेगा’ ( महा ) और ‘लिथो’ (पत्थर) से बना है ।
‘मुंडा आदिवासियों’ के अनुसार पत्थलगड़ी चार तरह के होते हैं।
ससनदिरि : यह दो मुंडारी शब्दों से बना है। ‘ससन’ और ‘दिरि’। ‘ससन’ का अर्थ श्मसान अथवा कब्रगाह है जबकि ‘दिरि’ का अर्थ पत्थर होता है। ससनदिरि में मृतकों को दफनाया जाता है और उनकी कब्र पर पत्थर रखे जाते हैं। ससनदिरि में मृतकों की याद में रखे जाने वालों पत्थरों का आकार चौकोर और टेबलनुमा होता है। झारखंड में मुंडाओं का सबसे प्राचीन और विशाल ससनदिरि चोकाहातु गांव में है।
बुरूदिरि और बिरदिरि: मुंडारी भाषा में ‘बुरू’ का अर्थ पहाड़ और ‘बिर’ का अर्थ जंगल होता है। इस तरह के पत्थर स्मारक यानी पत्थलगड़ी क्षेत्रों, बसाहटों और गांवों के सीमांकन की सूचना के लिए की जाती है।
टाइडिदिरि: ‘टाइडि’ राजनीतिक अर्थ को व्यक्त करता है। सामाजिक-राजनीतिक निर्णयों और सूचनाओं की सार्वजनिक घोषणा के रूप में जो पत्थर स्मारक खड़े किए जाते हैं उन्हें टाइडिदिरि पत्थलगड़ी कहा जाता है।
हुकुमदिरि: हुकुम अर्थात दिशानिर्देश या आदेश। जब मुंडा आदिवासी समाज कोई नया सामाजिक-राजनीतिक या सांस्कृतिक निर्णय लेता है तब उसकी उद्घोषणा के लिए इसकी स्थापना की जाती
झारखण्ड प्रदेश में पत्थरों ( Megalith ) पर जानकारी लिखे जाने का इतिहास है । 1996 में खूंटी के कर्रा में ‘बीडी शर्मा’ और ‘बंदी उरांव’ एवम स्थानीय नेताओं ने पत्थलगड़ी यानी ( Megalith ) की थी और इसके माध्यम से पि-पेसा कानून के बारे में लिखा गया था । 1992 में छत्तीसगढ़ दान्तेवाडा जिला मे पत्थर गढ़ी किया गया था। यहां मौलिक प्रश्न यह है कि क्या पत्थलगड़ी ( Megalith ) असंवैधानिक हैं ?
झारखण्ड जैसे राज्य में पत्थलगढ़ी यानी Megalith जैसे मामले में राज्य सरकार की जिम्मेदारी थी की इस विषय में बात करते लेकिन इसके विपरीत मिडिया ने पथलगढ़ी Monoliths को एक संवेदनशील मुद्दे के रूप में प्रचारित किया । रोज अखबारों में खबरे बना कर छापा गया । मैं पूछता हूँ की क्या सरकार किसी मिडिया द्वारा चलती है ? पथलगढ़ी Megalith के सम्बन्ध में राज्य सरकार क्यों नहीं जनजाति रूढ़ि एवम परम्परा की दृष्टि से उसकी व्याख्या कर पाई । क्या उनके पास इस संबंध में शोध करने की जरुरत नहीं थी । सैकड़ो वर्षो से जनजाति समुदाय अपने विशिष्ट भाषा , संस्कृति , परम्परा एवम विशिष्ट सामाजिक जीवन शैली द्वारा जीवन जीते आ रहे है तो क्या अन्य भारतीय समाज से जनजाति समाज संविधानिक रूप से पृथक है क्या ? फिर आखिर क्यों झारखण्ड राज्य के खूंटी में बीजेपी सरकार ने पथलगढ़ी Megalith के नाम पर खूंटी के आदिवासियों एवम ग्रामीणों पर बर्बरता पूर्ण करवाई की ? उन्हें पशुओं की तरह पीटा गया और किसी बड़े अपराधियो की तरह अर्ध सैनिको द्वारा ग्रामीणों को पकड़ कर ले गए । इसे क्या समझा जाय । क्या यह इस लिए किया गया ताकि कोई जनजाति समूह या संगठन बीजेपी सरकार के खिलाफ आवाज ना उठाये अपने हक़ और अधिकार की बात ना कर पाए।
आखिर झारखण्ड में बीजेपी सरकार को पथलगढ़ी Megalith से क्या दिक्कत थी , एक पत्थर के टुकड़े में ‘पांचवी अनुसूची’ ही तो लिखा हुआ था । अगर उसमे कुछ गलत था तो उसे ठीक किया जा सकता था । पत्थर के पट्टियों Megalith पर केवल लिखने के एवज में पूरे गाँव वालों को हिरासत में डाल देना कहाँ तक जायज है ।
आदिवासीयो का निवास जंगल एवम जंगल के आसपास के क्षेत्रो में सघन होता है और वे अपने क्षेत्रो को चिन्हित करने के लिए पत्थल गाड़ कर देते है या अपने किसी प्रिय जन के मृत्यु होने पर जिस स्थान में शव को गाड़ा जाता है वहाँ भी पत्थल गाड़ देते है । आदिवासी समुदाय अपने गावों में विधि – विधान ,संस्कार के साथ पत्थर गढ़ी की प्राचीन परम्परा रही है। इसमें मौजा , सीमन , ग्रामसभा एवं उनके अधिकार लिखी रहती है। Megalith मुख्यतः विश्व के सभी महादेशों में जहाँ इंडिजिनियस लोग रहते उनके पुरखा हजारो वर्षो Megalith यानी पत्थर की पट्टियां गाड़ते आ रहे है । भारत तो सदियों से आदिवासियों का गढ़ है । आदिवासी यहाँ के मूल निवासी है । जंगल और पहाड़ो को काट काट कर इनके पुरखाओं ने खेती एवं रहने योग्य भूमि तैयार किया और अपनी विशिष्ट सभ्यता संस्कृति को सुरक्षित रखा। उन्होंने कई विशिष्ट परम्पराओं की शुरुवात भी की ।
सिंधु सभ्यता, हड़प्पा, मोहन जोदड़ो जैसे कई सभ्यताऐ इनकी ही देन है लेकिन यह अलग बात है कि उनकी सभ्यताओं को इतिहास में किसी रहस्य की तरह छुपा दिया गया । संस्कृत से भी प्राचीन भाषा मुंडारी , संताली , हो , खड़िया , गोंडी भाषा बोलने वालों की संख्या करोड़ो में है । सबसे प्राचीन मानव समूह भारत के एस्ट्रोलाइड और द्रविड़ियन भाषा बोलने वाले लोग ही है ।
1950 से ही झारखण्ड अलग राज की मांग उठ गई थी अतः झारखण्ड को एक आदिवासी स्टेट माना जाता रहा है क्योंकि यहाँ 32 से भी ज्यादा जनजाति समुदाय यानि इंडिजिनियस लोग ( एस्ट्रोलाइड और द्रविड़ियन भाषा बोलने वाले समूह ) रहते है । फिर उनके संस्कृति एवं परम्पराओं को झारखण्ड में सम्मान क्यों नहीं दिया गया । दुनिया में जहां-जहां भी प्राचीन पत्थलगड़ी हैं उसे विश्व धरोहर घोषित कर संरक्षित किया गया है। लेकिन भारत के मेगालिथों को अभी तक न तो विश्व धरोहर माना गया है और न ही उनके संरक्षण के लिए कोई राजकीय पहल हुई है। आदिवासी समाज, पुरातत्ववेत्ता और मेगालिथ संरक्षण में जुटे संस्थाओं व व्यक्तियों द्वारा लगातार मांग की जाती रही है कि पुरा पाषाणकालीन पत्थर स्मारकों को विश्व धरोहर घोषित किया जाए।
प्रकृति विज्ञान का एक सिद्धान्त यह भी है कि जब लोकतान्त्रिक तरीके से देश की जनता अपनी आवाज सरकार तक नही पहुँच पाती है या सरकार जनता की बात सुनने को तैयार ना हो तो जनता में विद्रोह की भावना पैदा होनी शुरू हो जाती है । कही न कही सरकार भी पत्थल गढ़ी के लिए स्वेम भी जिम्मेदार है क्योकि जिस गति से आदिवासियों की जमीन उद्योगपतियों को दी गई इससे आदिवासी समुदाय आशंकित है। अतः विवश होकर झारखण्ड के आदिवासी क्षेत्रो में पथरगढ़ी जैसे आंदोलन की शुरुवात हुई।
झारखण्ड में बीजेपी सरकार और संघ की नीति स्पष्ट दिख रही है। विपक्ष पत्थलगड़ी के सम्बन्ध में कोई टिप्पणी नहीं कर रहे है लेकिन भाजपा समर्थक सरकार एवं झारखण्ड से प्रकाशित होने वाला दैनिक भास्कर , प्रभात खबर बड़े ही आक्रमकता के साथ ‘ पत्थलगड़ी ‘ को असंवैधानिक ठहरा रहा है। पथलगड़ी आंदोलन के लीडर को अपने अखबारों में पथलगड़ी के ‘मास्टमाइंड ‘ तक सम्बोधीत किया है। मुझे बहुत हैरानी हुई जब 01 जुलाई को ‘प्रभात खबर में एक खबर छापी जिसमे लिखा गया की – सोसल मिडिया में पत्थलगड़ी से सम्बंधित गतिविधि पर झारखण्ड के पुलिस अधिकारी साइबर सेल गठित करेगा और जो कोई पत्थलगड़ी के समर्थन में सोसल मिडिया में समर्थन करेगा उसके मोबाइल नंबर और कम्प्यूटर के आईपी एड्ड्रेस के आधार पर उस व्यक्ति की जानकारी इक्क्ठा करेगी और उसके ऊपर क़ानूनी करवाई करेगी।
हालांकि यह अस्पष्ट ही है कि दैनिक भास्कर की इस चुनौती का जवाब क्या भारत के संविधान और भारत की संसद को भी देना होगा क्योंकि यही दो ऐसी महान संस्थाएं हैं जो ‘ पत्थलगड़ी ‘ का समर्थन करती हैं और ‘ पांचवीं अनुसूची ‘ क्षेत्रों में निवासरत आदिवासियों की इस कार्यवाही को ‘विधि का बल’ प्रदान करती हैं। दैनिक भास्कर को इस पर थोड़ा स्पष्ट सवाल फ्रेम करना चाहिए।
दरअसल इस पूरे आंदोलन को लेकर ‘संघ सत्ता’ के इतने पूर्वाग्रह हैं कि इसे येन केन प्रकरेण लांछित ही करना है जिसके लिए पूरी मशीनरी मुस्तैद है। यह बताई गई घटना अपने आप में निंदनीय है और जो भी आरोपी हैं उन्हें कानून सम्मत सजा मिलना ही चाहिए और पीड़ितों को त्वरित न्याय भी सुनिश्चित होना चाहिए इस दिशा में राज्य की पुलिस की सक्रियता सराहनीय है और देश के हर नागरिक का सहयोग व समर्थन उसके साथ है क्योंकि देश में महिलाओं पर हो रहे अत्याचारों को लेकर कोई समझौता नहीं किया जा सकता।
इसी प्रकरण में अगर हम आदिवासियों की सामाजिक श्रेणी की भी बात करें तो उन्हें उत्पीड़ित श्रेणी में ही देखा जाता रहा है। इस बात को देश की सर्वोच्च संस्था-संसद ने भी स्वीकार किया है कि आदिवासियों के साथ सदियों से अन्याय होता आया है. ऐसे में न्याय की कार्यवाही को विवेकपूर्ण ढंग से ही लागू किया जाना चाहिए।
पहले संथाल परगना टेनेंसी एक्ट (एसपीटीए), छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट (सीएनटीए) में आदिवासी समुदायों को मिले कानूनी संरक्षणों को हल्का करने के एकतरफा प्रयास हुए, भूमि बैंक बनाने के लिए उनकी जमीनों को बलात हड़पने की कोशिशें तेज हुईं जिनका व्यापक विरोध हुआ और सरकार को पीछे हटना पड़ा।
लेकिन अब एक पुख्ता भूमि अधिग्रहण कानून झारखण्ड में बीजेपी सरकार ले आयी है। इसके अलावा सामाजिक , सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के हथकंडों में पारंगत संघ पोषित भाजपा, राज्य में क्रिश्चियन व गैर क्रिश्चियन आदिवासियों के बीच आपसी तनाव पैदा करने और उनके बीच फूट डालने के उद्देश्य से यह सिफारिश भी ले आई है कि जिन आदिवासियों ने ईसाइयत अपनाया है उन्हें आरक्षण नहीं मिलना चाहिए।
क्योंकि सरकार और संघ के गले की हड्डी बन चुका ‘ पत्थलगड़ी आंदोलन ‘ और इस जैसे अन्य नामों मसलन गांव गणराज्य सरकार, शिलालेख आंदोलन आदिवासी बाहुल्य राज्यों जिनमें झारखंड, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और अब ओडिशा में भी मजबूत हुए हैं जिनमें क्रिश्चियन और गैर क्रिश्चियन आदिवासी समुदाय एकताबद्ध हैं।
संदर्भ :
Sasandiris and Birdiris of Jharkhand
https://www.prabhatkhabar.com/news/ranchi/story/1177063.html
https://www.bhaskar.com/jharkhand/ranchi/news/patthalgarhi-mastermind-joseph-purti-s-house-demolished-in-khunti-5907546.html
http://www.streekaal.com/2018/06/Bhagawat-appeared-to-damge-control-on-the-issue-of-Patthalgadi-Movements.html
http://adivasihunkar.blogspot.com/2017/11/blog-post.html
http://megalithsofjharkhand.blogspot.com/