क्या किसानों को तबाह कर के पूरी की जाएगी भारतमाला परियोजना?
भारत माता की माला के मोती ही बिखर जाएं वो कैसी भारतमाला?
इस पूंजीवादी मॉडल की बेतरतीब योजनाओं में भारत की बुनियाद का तिनका-तिनका धरा पर बिखरता जा रहा है। किसान नेमत का नहीं बल्कि सत्ता की नीयत का मारा है। भारतमाला परियोजना के तहत बन रही सड़कें किसानों में बगावत के सुर पैदा कर रही हैं। इस योजना के तहत छह लेन का एक हाइवे गुजरात के जामनगर से पंजाब के अमृतसर तक बन रहा है, फिर आगे हिमालयी राज्यों तक निर्मित किया जाएगा।
दरअसल बिना ठोस तैयारी के सरकारें योजना तो शुरू कर देती हैं मगर बाद में जब इसके दुष्परिणाम सामने आने लगते हैं तो फिर सरकार सख्ती पर उतरती है और किसान बगावत पर। जो भूमि अधिग्रहण बिल संसद में पारित किया था उसके तहत सरकार जमीन का अधिग्रहण करने के बजाय उसमे संशोधन करने पर आमादा है और जब तक संशोधन कर नहीं दिया जाता, तब तक इन परियोजनाओं को पूरा करने का सरकार के पास एक ही विकल्प है कि दादागिरी के साथ किसानों को दबाया जाए।
फरवरी में जालोर के बागोड़ा में किसानों ने इसके खिलाफ स्थायी धरना शुरू किया था। 14 मार्च को इन किसानों ने राजस्थान के सीएम से बात की थी और सीएम ने आश्वस्त किया कि आपकी मांगें कानूनन सही हैं और आपको इंसाफ दिलवाया जाएगा। कोरोना के कारण किसानों ने धरना खत्म कर दिया। यही काम जालोर से लेकर बीकानेर-हनुमानगढ़ के किसानों ने भी किया था। लॉकडाउन के संकट के बीच किसान तो चुप हो गए मगर परियोजना का कार्य कर रही कंपनियों ने जबरदस्ती कब्जा करना शुरू कर दिया।
परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने इस परियोजना के संबंध में कहा था कि किसानों को बाजार दर से चार गुना मुआवजा दिया जाएगा। जालोर व बीकानेर के किसान कह रहे हैं कि हमे मुआवजा 40 से 50 हजार प्रति बीघा दिया जा रहा है जबकि बाजार दर 2 लाख रुपये प्रति बीघा है। जिन किसानों ने सहमति पत्र भी नहीं दिया और जिन्हें मुआवजा तक नहीं मिला, उनकी भी जमीने जबरदस्ती छीनी जा रही है!
इस योजना का ठेका दो कंपनियों को दिया गया। जामनगर से बाड़मेर तक जो कंपनी यह हाइवे बना रही है उसको 20 जून तक कार्य पूरा करना है और बाड़मेर से अमृतसर का कार्य जो कंपनी देख रही है उसको यह कार्य सितंबर 2020 तक पूरा करना है। एक तरफ कंपनियों की समयसीमा है, दूसरी तरफ किसान हैं।
समस्या विकास नहीं है बल्कि असल समस्या बेतरतीब योजनाएं हैं,गलत नीतियां हैं,सरकारों की नीयत है। 1951 में भारत की जीडीपी में किसानों का योगदान 57% था और कुल रोजगार का 85% हिस्सा खेती पर निर्भर था। 2011 में जीडीपी में खेती का कुल योगदान 14% रहा और कुल रोजगार का 50% हिस्सा खेती पर निर्भर रहा। जिस गति से खेती का जीडीपी में योगदान घटा व दूसरे क्षेत्रों ने जगह बनाई उस हिसाब से रोजगार सृजन नहीं हुए अर्थात खेती घाटे का सौदा बनता गयी और खेती पर जो लोग निर्भर थे वे इस सरंचनात्मक बेरोजगारी के शिकार हो गए।
किसानों के बच्चे कुछ शिक्षित हुए और गांवों से शहरों में रोजगार पाना चाहते थे मगर उनको रोजगार मिला नहीं और खुली बेरोजगारी के शिकार होकर नशे व अपराध की दुनिया में जाने लगे। भारत की ज्यादातर खेती मानसून पर निर्भर है इसलिए मौसमी बेरोजगारी की मार भी किसानों पर बहुत बुरे तरीके पड़ी। शहरों में कुछ महीनों के लिए रोजगार तलाशते हैं और बारिश होती है तो वापिस गांवों में पलायन करना पड़ता है। किसानों में जो बेरोजगारी भयानक रूप से नजर आ रही है वो छिपी बेरोजगारी है। किसानों के संयुक्त परिवार हैं और जितने भी लोग हैं वो खेती पर ही निर्भर है। जहां दो लोगों का काम है वहां पांच लोग खेती में लगे हुए हैं क्योंकि दूसरी जगह रोजगार मिलता नहीं है।
जब भी किसी परियोजना के लिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की जाती है तो किसानों में भय का वातावरण फैल जाता है। दूसरी जगह रोजगार मिलता नहीं है व वर्तमान में जिस तरह की वो खेती कर रहे होते हैं उसके हिसाब से वो कर्ज में दबे हुए ही होते हैं तो बच्चों को ऐसी तालीम नहीं दिलवा सकते जो कठिन प्रतियोगिताओं में मुकाबला कर सके। कुल मिलाकर जमीन किसान के जीवन-मरण का बिंदु बन जाती है। आग में घी का काम करती है सरकार द्वारा घोषित मुआवजे व पुनर्वास की प्रक्रियाओं को दरकिनार करना। देश भर में किसानों व परियोजना निर्माण में लगी कंपनियों के बीच हमेशा हिंसक झड़पें होती रहती हैं और आखिर में सरकार सख्ती से कब्जा लेती है और फिर बगावत के सुर शुरू हो जाते हैं।
किसान नेता अक्सर अपना रोजगार शिफ्ट कर चुके होते हैं इसलिए भाषणबाजी के अलावा इन किसानों से उनका सरोकार होता नहीं है। जो नीतियां बनाते हैं व विधानसभाओं व संसद में पास करते हैं उन लोगों के पूरे परिवारों ने अपना रोजगार खेती से अन्य क्षेत्रों में स्थानांतरित कर लिया है। ऐसा लग रहा है कि भारत की राजनैतिक जमात की बुनियाद इसी पर टिकी है कि देश के पुरुषार्थ को लूटो और अपने टापू बना लो।
आज कोरोना का संकट है और पूरी दुनिया जूझ रही है। भारत में इस समय उद्योग/धंधे बंद हो गए। हर तरह का सामान बिकना बंद हो गया मगर एक बात हम सभी ने गौर से देखी होगी कि सामान सस्ता होने के बजाय महंगा होता गया। कई गुना दाम हो गए मगर अन्न व सब्जियां उसी दर पर मिल रही हैं क्योंकि इसे किसान पैदा करता है। आज भी 50%से ज्यादा लोग खेती पर निर्भर हैं और उनकी क्रय शक्ति ही डूबती अर्थव्यवस्था को जिंदा कर सकती है मगर सत्ता में बैठे लोगों की नीयत देशहित के बजाय निजहित तक सीमित है इसलिए देश की बुनियाद बर्बाद करने पर तुले हुए हैं।
उचित मुआवजा, पुनर्वास जब तक कार्य शुरू करने से पहले नहीं करोगे तब तक सत्तासीन लोग भविष्य के लिए नागरिक नहीं बाग़ी तैयार कर रहे है। बंगाल के जलपाइगुड़ी जिले के एक छोटे से गांव नक्सलबाड़ी में 1967 में कानू सान्याल व चारू मजूमदार नाम के दो युवाओं ने भूमि सुधार को लेकर बगावत की थी और आज 14 राज्यों में इसी देश के नागरिक सत्ता के खिलाफ हथियार उठाकर लड़ रहे हैं। समस्या को नजरअंदाज करके सत्ता की दादागिरी का खामियाजा यह देश पिछले पांच दशक से ज्यादा समय से भुगत रहा है। जब लोकसभा में यूपीए सरकार ने भूमि अधिग्रहण बिल पारित किया था तब यह समझ जरूर थी कि चाहे विकास की गति धीमी हो मगर ऐसी समस्या देश के सामने भविष्य में निर्मित न हो। अब लगता है कि शाम को टीवी पर भाषण दो और अगली सुबह सब कुछ उसी अनुरूप चलने लगेगा। अक्सर लोकतंत्र में ऐसा नहीं होता है।
बीकानेर के किसान आज बहुत परेशान हैं। सांसद से लेकर विधायक तक सुविधाभोगी है इसलिए किसान अकेले नजर आ रहे हैं। किसान देश का है मगर किसान का कोई नहीं। अभी तक किसान टूटा नहीं है इसलिए व्यवस्था बदरंग ही सही मगर चल रही है। जिस दिन किसान टूट गए तो समझ लीजिएगा कि देश वापिस देशी एजेंटों के माध्यम से ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों जा चुका होगा। यह परियोजना मात्र 1400 किलोमीटर की चमचमाती सड़क नहीं है बल्कि जहां से गुजरेगी वहां के व आसपास के किसानों के सीने में जख्म दे जायेगी जिसे भविष्य में भरा न जा सकेगा।