सिमिलीपाल टाइगर रिजर्व : बाघों के संरक्षण के लिए आदिवासियों की बलि
सिमिलीपाल टाइगर रिजर्व से विस्थापित किए गए आदिवासियों के बीच बढ़ते असंतोष से अब बाघ संरक्षण और आदिवासियों के निवास के अधिकार के बीच संघर्ष पैदा हो रहा है। इस साल जनवरी 2020 में सिमिलीपाल टाइगर रिजर्व के अंदर खेजुरी गाँव के 60 परिवारों के 110 लोगों को जबरन स्थानांतरित किया गया। जो लोग अभी भी टाइगर रिजर्व में बसे हुए हैं उनका आरोप है कि वन विभाग के अधिकारियों ने उनको धमकी दे कर विस्थापन कर रहे हैं। पेश है विलेज स्क्वायर से बासुदेव महापात्र की रिपोर्ट जिसका हिंदी अनुवाद अंकुर ने किया है;
इस साल जनवरी 2020 में सिमिलीपाल टाइगर रिजर्व के अंदरखेजुरी गाँव के 60 परिवारों के 110 वयस्क सदस्यों को स्थानांतरित किया गया। जो लोग अभी भी टाइगर रिजर्व में बसे हुए हैं उनका आरोप है कि वन विभाग के अधिकारियों ने उनको धमकी दे कर विस्थापन का काम करते हैं।
ओडिशा के मयुरभंज जिले में स्थित सिमिलीपाल टाइगर रिजर्व के अंदर के आदिवासी गाँवों के निवासियों को बाघ संरक्षण और बाघों के लिए शिकार करने की जगह बनाने के लिए समूचे जंगल की सीमाओं से बाहर स्थानांतरित कर दिया गया है।
सिमिलीपाल के अंदर के गाँवों में रहने वाले अधिकतर आदिवासी लोग हैं। जो कोल, हो, संथाल, भूमिज जैसी जनजातियों के हैं इसके अतरिक्त खड़िया और मंकड़िया जैसी जनजातियां भी हैं जो विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूह (पीवीटीजी) की हैं। इन सभी जनजातियों के लोग आजीविका के लिए लगभगसिमिलीपाल जंगल पर ही निर्भर हैं।
जिन लोगों को स्थानांतरित किया जा चुका है उनमें से अधिकतर में असंतोष है कि प्रशासन द्वारा किए गए वादे पूरे नहीं किए गए हैं और स्थानांतरण के लिए निर्धारित किए गए गाँवों के लोगों का आरोप हैकि आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए बने कानूनों का उल्लंघन हो रहा है। इस कारण से कई पीढ़ियों से जंगल में रहते आए आदिवासी समुदाय के निवास के अधिकार और बाघ संरक्षण की महत्वाकांक्षा के बीच एक संघर्ष शुरू हो गया है।
बाघों के लिए जगह
सिमिलीपाल टाइगर रिजर्व भारत का पांचवा सबसे बड़ा टाइगर रिजर्व है। जो 2750 वर्ग किमी के क्षेत्र ने फैला हुआ है जिसमें एक वन्यजीव अभ्यारण्य और एक प्रस्तावित राष्ट्रीय उद्यान शामिल हैं। हालांकि सिमिलीपाल टाइगर रिजर्व में पिछले कुछ वर्षों में बाघों की संख्या की वृद्धि दर उत्साहजनक नहीं रही है।
ओडिशा वाइल्डलाइफ ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार सिमिलीपाल टाइगर रिजर्व को इसकी सीमाओं पर रहने वाले चार लाख और इसके अंदर रहने वाले दस हजार लोगों से सबसे बड़ा खतरा है, और यह जनसंख्या प्रति दशक 20% के वृद्धि दर से बढ़ रही है।
सिमिलीपाल टाइगर रिजर्व के संरक्षण की स्थिति पर राष्ट्रीय बाघ संरक्षण समिति द्वारा नियुक्त किए गए एक समिति द्वारा 2009 में हुए एक अध्ययन में लोगों और वन्यजीव के बीच संसाधनों के लिए होने वाले संघर्षों को कम करने के लिए स्वैच्छिक स्थानांतरण की सुविधा का उपाय सुझा कर बाघों और अन्य वन्यजीवों के लिए जगह बनाया जा सकता है।
आदिवासी बनाम बाघ
अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकार की मान्यता) अधिनियमया एफआरए,2006 और वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम (डब्ल्यूएलपीए),1972 को 2006 में संशोधित किया गया था,जब यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि अधिकार प्राप्त आदिवासी लोगों के रहने के कारण वन्यजीवन को अपरिवर्तनीय क्षति होगी और बाघों और उनके निवास स्थान के अस्तित्व को खतरा होगा तब यह निर्णय लिया गया था कि स्वैच्छिक पुनर्वास विकल्प होना चाहिए।
भुवनेश्वर स्थित पर्यावरण और वन अधिकार विशेषज्ञ वकील शंकर प्रसाद पाणी ने VillageSquare.in से कहा कि “सरकार को उन विशेषज्ञों के नाम को सार्वजनिक करना चाहिए जो लोग इस नतीजे पर पहुंच गए हैं कि आदिवसी लोगों के कारण बाघ के निवास स्थान को अपरिवर्तनीय क्षति होगी और सह-अस्तित्व का कोई विकल्प ही नहीं है।”
सिमलीपाल टाइगर रिजर्व के सेवानिवृत्त वरिष्ठ शोध अधिकारी, लाला अश्विनी कुमार सिंह ने बाघों के संरक्षण और उनके निवास के अधिकार पर जोर देते हुए कहा कि बाघों और आदिवासियों दोनों के निवास के अधिकारों को समान रूप से महत्त्व देना चाहिए। “जबकि वन्य जीव अपने अधिकारों के लिए दावा नहीं कर सकते, बाघों के लिए एक उल्लंघन रहित और उनके लिए शिकार का एक जगह बनाना हमारा दायित्व है।”
लम्बे समय से टलता स्थानांतरण
सिमलीपाल टाइगर रिजर्व प्रबंधन योजना के अनुसार,कोर ज़ोन के केवल चार गाँवों कबातघई, जमुनागढ़, जेनाबिल और बाकुआ को रिजर्व के बाहर स्थानांतरित किया जाना था। जबकि पूरे अभयारण्य में 61 गाँव हैं, राज्य सरकार ने इन चार गाँवों को स्थानांतरित करने के लिए जुलाई 1988 में निर्णय लिया था।मानवविज्ञानी मधुलिका साहू के एक शोध पत्र के अनुसार 1994 से 2003 के बीच जमुनागढ़,जेनाबिल और कबातघई से 72 परिवारों को स्थानांतरित किया गया था।
2013 में अपर बरहकामुड़ा और बहघर के परिवारों को पुनर्वास का सामना करना पड़ा। 2015 में,काबताघई में रहने वाले 47 परिवारों और जमुनागढ़ में रहने वाले 35 परिवारों को क्रमशः मनंडा और नबरा में स्थानांतरित कर दिया गया। किआझारी और रामजोड़ी के ग्रामीणों और नुआगाँव, बनियाबासा, गुडगुडिया और मटियागड़िया के कुछ परिवारों को बीच में ही स्थानांतरित कर दिया गया था।
जबरन स्थानांतरण
सिमलीपाल टाइगर रिजर्व के अधिकारियों का कहना है कि अभी तक हुए सभी स्थानांतरण स्वैच्छिक रहे हैं। हालाँकि आदिवासी जनता का कहना है कि दबाव बना कर उन्हें अपनी जगह से हटने के लिए मजबूर किया गया।
खेजुरी गाँव के मधु देहुरे ने कहा कि “वन विभाग के कर्मचारियों ने हमें स्थानांतरित करने के लिए दबाव डाला और कहा कि जब तक हम उनके प्रस्ताव पर सहमत नहीं होंगे तब तक हम अपनी सारी जमीन और विशेषाधिकार खो देंगे। हम प्रतिबंधित जीवन जीने के लिए बाध्य हैं और हमारे लोग झूठे मुकदमों में उलझे हुए हैं।”
हालांकि,सिमिलिपाल नॉर्थ वाइल्डलाइफ डिवीजन के उप-निदेशक कपिल प्रसाद दास ने कहा कि,“हमने कभी भी जबरन पुनर्वास नहीं करते, आदिवासी लोगों को बाघों के संरक्षण,पुनर्वास पैकेज और जंगल के बाहर के अवसरों से बेहतर जीवन जीने के बारे में शिक्षित करके स्वैच्छिक पुनर्वास सुनिश्चित करते हैं।”
असंतोष के स्वर
नई बस्तियों में स्थानांतरण के बाद,लोगों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। अष्टाकुमार पंचायत के सरपंच महंती बिरुआ ने कहा कि,“सिमलीपाल टाइगर रिजर्व के अधिकारी स्वैच्छिक पुनर्वास के सभी मामलों में ऐसा ही करते हैं और लोगों को महीनों तक अस्थायी शेड में रहने के लिए छोड़ देते हैं।”
खड़िया जनजाति के एक व्यक्ति ने कहा कि “अधिकारी हमें खेजूरी से सलेईबेड़ा में अस्थायी शेड में ले आए थेऔर तब से हमें यहाँरहते हुए तीन महीने हो चुके हैं और हम अभी तकटिनके छतों के नीचे रह रहे हैं। हालांकि,आवास के लिए प्रत्येक परिवार के लिए 10 डेसिमल भूमि चिह्नित की गई हैफिर भी घरों का निर्माण किया जाना बाकी है।”
47 वर्षीय रामचंद्र देहुरी ने कहा कि, “अधिकारी कह रहे हैं कि देशव्यापी लॉकडाउन की वजह से निर्माण में देरी हो रही है। जब से गर्मी बढ़ी है तब से जीवन और कठिन हो गया है। हम लोगों को यहां लाने से पहले ही उनको घर का निर्माण करवा लेना चाहिए था। ”कि आझरी से खंडिआडार स्थानांतरित हुए खड़िया और कोल जनजाति के लोगों में असंतोष है क्योंकि सरकार ने 10 डेसिमल जमीन का वादा कर के 6 डेसिमल जमीन ही मुहैया करवाई है।खंडिआडार स्थानांतरित हुए खड़िया जनजाति के 40 वर्षीय रंजीत देहुरे ने कहा कि “हमारे घर के पीछे इतनी भी जगह नहीं है कि अपनी आजीविका चलाने के लिए हम साग-सब्जियां ही उगा लें। उन 4 डेसिमल भूमि के बारे में अधिकारी कुछ बोलते ही नहीं हैं।”
मुआवजा पाना भी एक बड़ी समस्या
सिर्फ घर की ही समस्या नहीं है, इसके अतिरिक्त मुआवजे की रकम का उपयोग करने में मिली सीमित स्वतंत्रता भी जीवन को कठिन बना रही है। कबातघाई गाँव से स्थानांतरित हो कर मनंदा कलोनी में रह रही 40 वर्षीय विधवा और चार बच्चों की माँ माया मुर्मू बताती हैं कि “मुआवजे की राशि उप-जिलाधिकारी के सह-हस्ताक्षर वाले संयुक्त खाते में है और जरुरत के समय में पैसे को निकाल पाने में भी हम असमर्थ हैं।”
घासीराम मरांडी मनंदा में उनकी नई बस्ती के नजदीक जमीन खरीदना चाहते थे लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाए। उन्होंने बताया कि “मैं अपनी मर्जी से पैसे नहीं निकाल सकता हूँ।” इसके पहले कुछ लोगों ने इसी काम के लिए उप-जिलाधिकारी से पैसे निकालने की अनुमति मांगी थी। प्रशासन ने उन्हें कहा कि सरकारी दर पर जमीन खरीदो। घासीराम पूछते हैं कि “इस दर पर कौन हमें जमीन बेचेगा?”
तीन बच्चों की माँ 40 वर्षीय बसंती देहुरे कहती हैं कि “जैसे ही वन विभाग ने मुआवजे के पैकेज को बताया, लोगों को लगता है कि हमें बहुत ज्यादा पैसा मिला है और हम अमीर हो गए हैं। लेकिन, सच्चाई यह है कि, मुआवजे की राशि पर हमारा कोई अधिकार नहीं है यहां तक कि अत्यंत जरुरत के समय भी हम उसका उपयोग नहीं कर सकते हैं, हमारा गुजारा महीने में मिलने वाले ब्याज से होता है।
जशीपुर के विधायक इंजीनियर गणेश राम सिंह खुंटिआ कहते हैं कि, “जब पुनर्स्थापित हो चुके लोगों के दुःख की यह कहानियां सिमिलीपाल के गाँवों तक पहुंचती है तो लोगों में स्थानांतरित होने को लेकर संशय पैदा होता है और वे मना करने लगते हैं।”
लाला अश्विनीकुमार सिंह कहते हैं कि “सबसे जरुरी यह है कि पुनर्स्थापित हुए परिवारों को जंगल से बाहर जाने के लिए सारी सुविधाएं प्राप्त हों।” वह आगे जोड़ते हैं कि “उनको (आदिवासी लोगों को) यह महसूस कराए जाने की आवश्यता है कि स्थानांतरित होने के बाद से उनके जीवन में बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य व्यवस्था, परिवहन, रोजगार के नए अवसर आदि के आने से बदलाव हुआ है। उनकी यह कहानियां बाकी लोगों को जंगल के बाहर स्थानांतरित होने के लिए प्रोत्साहित करेंगे।”
खुंटिआ ने कहा कि आदिवासियों को पुनर्स्थापन के फायदों के बारे में सोचना चाहिए। “जंगल के अंदर कोई विकास नहीं है। मानसून के दौरान कई महीनों तक वे अपने गाँवों तक ही सीमित हो कर रह जाते हैं। वहां कोई स्कूल नहीं है। अस्पताल पहुंचने में घंटों लग जाते हैं। कौन ऐसी जिंदगी चाहता है? वे इसलिए जंगल के अंदर रहते हैं क्योंकि बाहर वे क्या करेंगे? अपनी आजीविका कैसे चलाएंगे?”
खुंटिआ आगे जोड़ते हैं कि “अच्छी शिक्षा व्यवस्था और रोजगार के अवसर जंगल के लिए, इसके वन्यजीवों के लिए और आदिवासियों के लिए भी कायापलट करने वाले हो सकते हैं।” VillageSqaure.in को उन्होंने बताया कि “आपको उन्हें स्थानांतरित करने के लिए दबाव बनाने की जरूरत नहीं है, अच्छी सुविधा और अवसर का लाभ उठा कर अच्छा जीवन जीने के लिए वे स्वयं ही जंगल से स्थानांतरित हो जाएंगे।”
बासुदेव महापात्रा भुवनेश्वर स्थित पत्रकार हैं। यह उनके अपने विचार हैं।