संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

मानवाधिकारों के लिए मेहनतकश महिलाओं का धरना

राजस्थान के जयपुर शहर में गुजरी 10 दिसम्बर को घरेलू कामगार महिलाओं ने दूसरों के घरों में ‘सहायक’ के तौर पर काम करने वाली महिलाओं, लड़कियों और बच्चियों के हकों के लिए महाधरना दिया । उदारीकरण के बाद के वर्षों से देश में आय वितरण की बढ़ती विषमता के फलस्वरूप घरेलू कामगार महिलाओं की संख्या में तेजी से वृध्दि हुई है। काम के दौरान उनका सिर्फ आर्थिक शोषण ही नहीं बल्कि उनके साथ होने वाली हिंसा, यौन शोषण, दुर्व्यवहार, अमानवीयता की खबरें जितनी सामने आती हैं, हकीकत में उनका शौषण उससे सैकड़ों गुना ज्यादा होता हैं। इन विषम परिस्थितियों की असलियत को सामने लाता मेवा भारती का महत्वपूर्ण आलेख;

देश में लाखों घरेलू कामकाजी महिलाओं के श्रम को भी इसी तरह से अनदेखा किया जाता है। उसकी कोई कीमत नहीं मानी जाती हैं सदियों से चली आ रही मान्यता के तहत आज भी घरेलू काम करने वालों को नौकर/नौकरानी का दर्जा दिया जाता हैं उसे एक ऐसा व्यक्ति माना जाता है जो मूल कार्य नहीं करता बल्कि मूल कार्य पूरा करने में किन्हीं तरीकों से मदद करता है। इस वजह से उनका कोई वाजिब मेहनताना भी तय नहीं होता।

मालिकों की मर्जी से बख्शीश जरूर दी जाती है। यह मनमर्जी का मामला होता है अधिकार का नहीं। मन हुआ या क्षुश हुए तो ज्यादा दे दिया और नहीं तो सड़ा-वासी भोजन, फटे-पुराने कपड़े-जूते, चप्पल दे दिए जाते हैं।

देश की अर्थव्यवस्था में घरेलू कामगारों के योगदान का कभी कोई आकलन नहीं किया जाता। उल्टे इनको आलसी, कामचोर, बेईमान, गैर-जिम्मेदार और फायदा उठाने वाला समझा जाता है।

घरों में काम करने वाली महिलाओं की श्रमशक्ति की एक बड़ी आबादी बिना कामगार का दर्जा पाए काम करने के लिए मजबूर है। काम से जुड़े उनके अधिकारों की सुरक्षा के लिए कोई भी कानून या तो है ही नहीं और जो थोड़े बहुत हैं भी, तो वे भी व्यवहार में लागू नहीं होते।

एक करोड़ महिला श्रमिक

अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के अनुसार जीविका के लिए भारत में दूसरे घरों में काम करने वाली महिलाओं की संख्या एक करोड़ के आसपास है। इनकी संख्या देश में तेजी से बढ़ रही है। संयुक्त परिवार खत्म हो रहे हैं। एक व्यक्ति की आय से घर चलाना मुश्किल होता जा रहा है, पति-पत्नी दोनों के ही बाहर काम करने की वजह से बच्चों और बुजुर्गों की देखभाल के लिए परिवार के सदस्य मौजूद नहीं होते। ऐसे में इनकी देखभाल के लिए भी घरेलू कामगारों को काम पर रखने की जरूरत पड़ती हैं मध्यर्ग का एक तबका ऐसा भी है जिन्हें अपने स्टेट्स सिंबल और अपनी काहिली की वजह से भी इन्हें काम पर लगाना होता है।

नौकर नहीं कर्मचारी

श्रमिक होने के बावजूद औपचारिक रूप से कानूनी हक से वंचित श्रमशक्ति की यह बड़ी संख्या अनेक विपरीत परिस्थितियों का शिकार है। संगठन के अभाव में इनकी मांगें सार्वजनिक नहीं हो पातीं। काम के लिए मोलभाव करने की खास ताकत अगर मजदूर होने की एक पहचान है, तो वे इस ताकत से भी वंचित हैं।

काम के दौरान जोखिम से गुजरती इन स्त्रियों को अपने काम से जुड़ी कानूनी सुरक्षा, छुट्टी, मातृत्व अवकाश, बच्चों का पालनाघर, बीमारी की दशा में उपचार जैसी कोई सुविधा हासिल नहीं हो पाती।

कानूनी सुरक्षा के अभाव में 6 से 10-12 घंटे तक खटते हुए वह जीविका की असुरक्षा से भी गुजरती हैं। अक्सर देखा जा सकता है कि एक घरेलू महिला श्रमिक उदाहरण के लिए बर्तन साफर करने या कपड़ा धोने या झाड़ू बुहारने वालियों को कई घरों में काम करके घर का खर्च चलाने की मजबूरी होती है और उनकी लड़कियां भी बचपन से ही सकूल जाने की जगह उनके साथ इसी दास-श्रम में जुड़ जाती हैं। ये स्त्रियां ज्यादातर आर्थिक और सामाकि रूप से पिछड़े और वंचित समुदाय की होती हैं। उनकी यह सामाजिक हैसियत उनके लिए
और भी अपमानजनक स्थितियां पैदा करती हैं। यौन उत्पीड़न, चोरी का आरोप, गालियों की बौछार या उन्हें घर के अंदर शौचालय आदि का प्रयोग न करने देना एक आम बात है।

घरेलू कामगारों की हितों की सुरक्षा के लिए कई साल पहले सरकारी और गैरसरकारी संगठनों ने मिलकर ‘घरेलू कामगार विधेयक’ का खाका बनाया था। इस विधेयक पर राष्ट्रीय महिला आयोग ने अपनी स्वीकृति देकर सरकार के पासभेज दियाथा। इसके बावजूद अब तक इस पर कोई कार्रवाइ्र नहीं हुई।

महिलाओं के लिए संसद में 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए हर साल हो-हल्ला मचाने वाली पार्टियों ने इतनी बड़ी आबादी को बुनियादी अधिकार दिलाने वाले इस विधेयक को पारित करने के सवाल पर कभी कोई आवाज नहीं उठाई।

इस विधेयक में श्रमिक का दर्जा देने के लिए एक परिभाषा प्रस्तावित की गई है, ‘ऐसा कोई भी बाहरी व्यक्ति जो पैसे के लिए या किसी भी रूप में किए जाने वाले भुगतान के बदल किसी घर में सीधे या एजेंसी के माध्यम से जाता है तो स्थायी/अस्थायी, अंशकालिक या पूर्णकालिक हो तो भी उसे घरेलू कामगार की श्रेणी में रखा जाएगा।’ इसमें उनके वेतन, साप्ताहिक छुट्टी, सामाजिक सुरक्षा आदि का प्रावधान किया गया है। महाराष्ट्र और केरल जैसे कुछ राज्यों में घरेलू कामगारों के लिए कानून बनने से उनकी स्थिति में में एक हद तक सुधार हुआ है। लेकिन राजस्थान या अन्य राज्यों में अभी ऐसा कोई कानून नहीं है।

अगर कानून बनेगा तो घरेलू कामगारों के लिए नयूनतम मजदूरी का भी सवाल उठेगा। इसलिए सरकार इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रही है। इनकी सुरक्षा और न्यूनतम मजदूरी को सुनिश्चित करने के लिए कानून बनना तो तात्कालिक समाधान है।

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