संघर्ष संवाद
Sangharsh Samvad

नियमगिरि की जंग : कारपोरेट और राज्य सत्ता को कड़ी टक्कर

नियमगिरि का सवाल अपने आप में कोई स्वायत्त और स्वतंत्र सवाल नहीं है. यह बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता के 40,000 करोड़ रुपये के निवेश का मामला है जिसमें अंतराष्ट्रीय पूंजी समेत सरकारों की इज्जत भी दांव पर लगी हुई है… देश में ऐसे सैकड़ों नियमगिरि हैं जहाँ बुनियादी विरोधाभास ग्लोबल पूंजी के हितों और स्थानीय संसाधनों पर मालिकाने के बिच हैं. नियमगिरि सिर्फ इस मामले में विशिष्ट हो गया है कि यहाँ आजादी के बाद पहली बार न्यायिक फैसले के आधार पर स्थानीय लोग विकास कि लकीर खिंच रहे हैं… 12 वीं ग्राम सभा के फैसले  का  जायजा लेने के बाद जरपा से लोटकर अभिषेक श्रीवास्तव की रिपोर्ट;

वह सवेरे से ही स्टेशन पर हमारा इंतजार कर रहा था जबकि हमारी ट्रेन दिन के ढाई बजे वहां पहुंची। गले में गमछा, एक सफेद टी-शर्ट, पैरों में स्पोर्ट्स शू और जींस, कद कोई पांच फुट पांच इंच छरहरी काया और रंग सांवला। तीनपहिया ऑटो में बैठते ही मेरे हमनाम पत्राकार साथी ने पहला सवाल दागा था, ‘‘क्या यहां जानवर हैं?’’ ‘‘हां, है न! बाघ, भालू, सांप, जंगली सुअर, सब है।’’ साथी ने जिज्ञासावश दूसरा सवाल पूछा, ‘‘काटता भी है?’’ वह हौले से मुस्कराया। बीसेक साल के किसी नौजवान के चेहरे पर ऐसी परिपक्व मुस्कराहट मैंने हाल के वर्षों में शायद नहीं देखी थी। मुझे अच्छे से याद है, उसने कहा था, ‘‘वैसे तो नहीं, लेकिन सांप को छेड़ोगे तो काटेगा न!’’ अपनी कही इस बात की गंभीरता को वह कितना समझ रहा था, मैं ठीक-ठीक नहीं कह सकता लेकिन वहां से लौट कर आने के दो दिन बाद जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के युवा संस्कृतिकर्मी हेम मिश्रा की गिरफ्रतारी की खबर आई। समझ आया कि सांप आजकल बिना छेड़े भी काटता है। क्या इसे नियमगिरि और गढ़चिरोली में होने का पफर्क माना जाए?

ओडिशा के रायगढ़ा जिले के छोटे से कस्बे मुनिगुड़ा के रेलवे स्टेशन पर हमें लेने आया वह युवक अंगद भोई आज विशाखापत्तनम के एक निजी अस्पताल में सेरीब्रल मलेरिया और निमोनिया की दोहरी मार झेल रहा है जबकि कथित तौर पर अपने हाथ का इलाज करवाने के लिए गढ़चिरोली में डॉ. प्रकाश आम्टे के यहां गया हेम मिश्रा दस दिन की पुलिस रिमांड पर यातनाएं झेलने को मजबूर है। दोनों की उम्र लगभग बराबर है। दोनों ही राजनीतिक कार्यकर्ता हैं। एक नियमगिरि की पहाड़ियों में आदिवासियों के बीच काम करता है तो दूसरा आदिवासियों के बीच देश भर में घूम-घूम कर सांस्कृतिक जागरण करता है। फर्क सिपर्फ इतना है कि नियमगिरि में सुप्रीम कोर्ट का आदेश अब भी अमल में लाया जा रहा है जबकि गढ़चिरोली जैसे इलाकों में सुप्रीम कोर्ट के तमाम आदेश हवा में उड़ाए जा चुके हैं ;याद करें मार्कण्डेय काटजू और ज्ञानसुध मिश्रा की बेंच का वह पफैसला कि महात्मा गांधी की किताब रखने से कोई गांध्ीवादी नहीं हो जाताद्ध। शायद इसी पफर्क के चलते अंगद माओवादी नहीं है जबकि हेम पर माओवादी होने का आरोप लगा है। यह पफर्क कितना बड़ा या कितना छोटा है, इस बात की एक धूंध्ली सी झलक संजय काक की पिफल्म ‘‘रेड ऐंट ड्रीम’’ में देखने को मिलती है जहां वे प्रतिरोध् के एक कमजोर सूत्रा में पंजाब, बस्तर और नियमगिरि को एक साथ पिरो देते हैं। 
हमें कई माध्यमों में बार-बार बताया गया है कि बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता के खिलापफ नियमगिरि का आंदोलन विशु( आदिवासी आंदोलन है और इसमें माओवादियों के कोई निशान नहीं। संजय काक ऐसा खुल कर नहीं कहते, लेकिन यहां के आंदोलन के नेता ऐसा ही मानते हैं। दरअसल, संजय की पिफल्म देखने के तुरत बाद उस पर जो आलोचनात्मक राय मेरी बनी, वहीं से इस इलाके का दौरा करने की ठोस योजना निकली थी। इसलिए इस यात्रा का आंशिक श्रेय पिफल्म को जाता है। मैंने अपने हफ्रते भर के दौरे में यही जानने-समझने की कोशिश की है कि बड़ी पूंजी के खिलापफ क्या कोई भी आंदोलन संवैधनिक दायरे में लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत अहिंसक तरीके से चलाया जाना मुमकिन है। या कि जैसा संजय दिखाते हैं, नियमगिरि भी प्रतिरोध् के उसी ब्रांड का एक झीना सा संस्करण है जिसे सरकारें माओवाद के नाम से पहचानती हैं। आखिर क्या है नियमगिरि की पॉलिटिक्स?
क्या, कहां और कैसेः  बहुराष्ट्रीय अलुमिनियम कंपनी वेदांता के 40,000 करोड़ रुपये की लागत वाले प्रोजेक्ट से पहले तमाम मशहूर पर्वत श्रृंखलाओं के बीच नियमगिरि को न तो कोई जानता था, न ही शहरी मानस में इसे लेकर कोई कल्पना तक थी। आज, जब वेदांता के प्रोजेक्ट पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा गांव-गांव में जनसुनवाई का आदेश अमल में लाया जा चुका है, तो नियमगिरि और उसके भरोसे रहने वाले आदिवासी समुदाय अचानक अहम हो उठे हैं। नियमगिरि में प्रवेश से पहले आइए इस इलाके का कुछ भूगोल समझ लें। 
दिल्ली से अरावली की जो श्रृंखलाएं राजस्थान तक देखने को मिलती हैं, वे आगे चलकर विंध्य और सतपुड़ा में मिल जाती हैं। छत्तीसगढ़ की राजधनी रायपुर के बाद पूर्व तटीय रेलवे का क्षेत्रा शुरू हो जाता है। छत्तीसगढ़ के बाघबाहरा से जो पर्वत श्रृंखलाएं दिखना शुरू होती हैं और महासमुंद होते हुए ओडिशा में प्रवेश करती हैं, वे दक्कन के विशाल पठार का बिखरा हुआ हिस्सा ही हैं जिन्हें पूर्वी तट के पठार कहते हैं। इनकी लंबाई कुल 1750 किलोमीटर के आसपास है और ये ओडिशा में छोटा नागपुर पठार के दक्षिण से शुरू होकर तमिलनाडु में दक्षिण पश्चिमी प्रायद्वीप तक चली जाती हैं। छत्तीसगढ़ से रेल से ओडिशा आते वक्त दिखने वाली इसी श्रृंखला का कुछ हिस्सा नियमगिरि कहलाता है जो सीमावर्ती बोलांगीर जिले से शुरू होकर कोरापुट होते हुए रायगढ़ा और कालाहांडी तक आता है। इस नियमगिरि का शिखर कालाहांडी के लांजीगढ़ में माना जाता है जो यहां के इजिरुपा नामक उस गांव से बमुश्किल डेढ़ किलोमीटर दूर है जहां तीन साल पहले कांग्रेस के नेता राहुल गांध्ी आकर ठहरे थे। वेदांता कंपनी की अलुमिनियम रिपफाइनरी और टाउनशिप लांजीगढ़ में ही है क्योंकि यहां से नियमगिरि के शिखरों की दूरी कापफी कम है। पहाड़ से बॉक्साइट निकालने के लिए इसी रिपफाइनरी से एक विशाल कनवेयर बेल्ट निकलता है जो सुदूर पर्वत श्रृंखलाओं में जाकर कहीं खो जाता है। पूर्व तटीय रेलवे के माध्यम से यह इलाका दिल्ली से सीध जुड़ा हुआ है। रायगढ़ा जिले का मुनिगुड़ा रेलवे स्टेशन नियमगिरि की पहाड़ियों का प्रवेश द्वार कहा जा सकता है। मुनिगुड़ा से पहले पड़ने वाले अम्लाभाटा और दहीखाल स्टेशन भी नियमगिरि की तलहटी में ही बसे हैं, लेकिन वहां सारी ट्रेनें नहीं रुकती हैं। दूसरे, वहां मुनिगुड़ा की तरह बाजार विकसित नहीं हो सका है। इसलिए हमें मुनिगुड़ा उतरने की ही सलाह दी गई थी।
मूवमेंट के गांव में : इस यात्रा की शुरुआत हमने नौजवान साथी अंगद के सहारे की, जो सबसे पहले हमें कालाहांडी के जिला मुख्यालय भवानीपटना को जाने वाले स्टेट हाइवे के करीब स्थित और रायगढ़ा के मुनिगुड़ा रेलवे स्टेशन से करीब 12 किलोमीटर दूर बसे एक गांव में लेकर गया। नियमगिरि की तलहटी में बसा राजुलगुड़ा नाम का यह गांव करीब 250 आदिवासियों को 70 के आसपास घरों में समेटे हुए है। इन्हें कुटिया कोंध् कहा जाता है। इस गांव को ‘‘ऊपर’’ जाने का बेस कैंप माना जा सकता है क्योंकि यहां से डोंगर (पहाड़) पर रहने वाले दुर्लभ डोंगरिया कोंध् व झरनों के किनारे रहने वाले झरनिया कोंध् आदिवासियों के गांवों तक पैदल पहुंचने के सारे रास्ते व लीक निकलते हैं। शुरुआती पंद्रह किलोमीटर से लेकर सुदूरतम 40 किलोमीटर तक बसे गांवों में यहां से पैदल जाया जा सकता है। सिरकेपाड़ी जैसे एकाध् गांवों तक तो अब चारपहिया गाड़ियां भी जाने लगी हैं। यह गांव अपेक्षाकृत नया है। इसका पुराना नाम था गोइलोकुड़ा, जो बाद में बदल कर राजुलगुड़ा कर दिया गया। इसे यहां के लोग ‘मूवमेंट का गांव’ कहते हैं।  
‘मूवमेंट का गांव’ का मतलब आपको राजुलगुड़ा में प्रवेश करने के बाद इसके चांपाकल तक जाने पर समझ में आएगा। चांपाकल गांव की सतह से थोड़ा ऊपर है और वहां तक पहुंचने के लिए छह-सात सीढ़ियां चढ़नी होती हैं। सीढ़ियों के नीचे सीमेंट से पक्की जमीन पर अंग्रेजी के अक्षरों में ‘एआईकेएमएस’ लिखा है। यह अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा का संक्षिप्त नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ;माले-न्यू डेमोक्रेसीद्ध का एक जनसंगठन है। इस इलाके में इस संगठन का काफी काम रहा है और मुनिगुड़ा में इसने जमींदारों से करीब 1500 एकड़ जमीनें छीनकर आदिवासियों में बांट दी हैं। दक्षिणी ओडिशा में गैर-आदिवासी जमींदारों से जमीनें छीनकर आदिवासी किसानों-मजदूरों में बांट देने का समृ( इतिहास रहा है और माले धरा का तकरीबन संगठन इस काम में अपने-अपने इलाके में जुटा रहा है। ऐसे आंदोलन का सबसे चमकदार चेहरा चासी मुलिया आदिवासी संघ रहा है जिसके भूमिगत नेता के सिर पर आज सरकारी ईनाम है। यहां मुनिगुड़ा ब्लॉक में मीन आंदोलन पर न्यू डेमोक्रेसी की पकड़ है। कई गांवों में कुटिया कोंध् आदिवासी बांटी गई कब्जाई जमीन पर ही खेती कर रहे हैं। यह काम  न्यू डेमोक्रेसी के लोक संग्राम मंच के बैनर तले किया गया था। यही मंच आज कई अन्य संगठनों के साथ मिलकर कोरापुट, कालाहांडी और रायगढ़ा जिलों में वेदांता के खिलापफ आंदोलन की अगुवाई कर रहा है। जाहिर है, राजुलगुड़ा यानी नियमगिरि का बेस कैम्प राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए हमेशा से एक गर्मजोश मेजबान रहा है तो सरकार व कंपनी की आंखों का कांटा भी। इस गांव को समझना वेदांता के आंदोलन को समझने में केंद्रीय भूमिका रखता है। 
यहां हम जिस घर में रुके, वह गांव का इकलौता गैर-आदिवासी घर था। इसमें सोमनाथ गौड़ा ;यहां गौड़ा को ओबीसी श्रेणी में माना जाता हैद्ध, उनकी पत्नी और दो लड़के रहते हैं। मूवमेंट के लोग आम तौर से इसी घर में रुकते हैं। सोमनाथ किसी जमाने में गांव-गांव घूम कर 50 कलाकारों की अपनी मंडली के साथ ऐतिहासिक कथाओं पर नाटक खेला करते थे। ऐसे ही नाटक खेलने के लिए वे राजुलगुड़ा जब 25 साल पहले आए, तो गांव वालों ने उन्हें यहां रोक लिया और अपने साथ बस जाने का आग्रह किया। प्रेमभाव में वे यहीं रह गए। वेदांता ने 2002 में जब प्रोजेक्ट शुरू किया तो उसने 12 किलोमीटर दूर मुनिगुड़ा कस्बे में अपना दफ्रतर बनाया। इसके असर से वहां गेस्ट हाउस खुले, लॉज बने। बाजार बना। गाड़ियों की चहल-पहल भी शुरू हो गई। पिफर मुनिगुड़ा-भवानीपटना स्टेट हाइवे तक बाजार घिसटते-घिसटते आ गया। राजुलगुड़ा के बाहर हाइवे पर आध दर्जन दुकानें खुल गईं। पेप्सी मिलने लगी। गांव में टीवी भी आ गया। टीवी के साथ डीटीएच भी आया। मोबाइल टावर नहीं है, लेकिन गाना सुनने और वीडियो देखने के लिए 3000 वाला मोबाइल आ गया। इस ‘विकास’ का असर देखिए कि पांच साल पहले मुनिगुड़ा कस्बे में जो मकान 700 रुपये माहवार में किराये पर मिला करता था, आज उसका मासिक किराया 50,000 रुपये हो चुका है। इस तरह के ‘विकास’ का एक असर यह भी हुआ कि हमारे मेजबान सोमनाथ गौड़ा की कला ने ध्ीरे-ध्ीरे यहीं दम तोड़ दिया और वे जन्म से विकलांग अपने बड़े बेटे वृंदावन की छिटपुट कमाई व धन के कुछ रकबे पर अपनी बीवी की हाड़तोड़ मेहनत तक सिमट कर जीर्ण हो गए। यह कहानी तकरीबन समूचे गांव में मरने के कगार पर खड़ी उस पिछली पीढ़ी की है, जिसने कभी जमींदारों से जमीन कब्जाने के आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई थी। नई पीढ़ी में पंकज है, सूरत है, नंदिनी है। ये नाम शहरी हैं, आदिवासी नहीं। जैसे नाम बदले, वैसे ही आदिवासी जीवन की तासीर भी बदली।
बहरहाल, हमारे यहां पहुंचने से एक दिन पहले ही 13 अगस्त को 11वीं पल्लीसभा ;ग्रामसभाद्ध खम्बेसी गांव में संपन्न हुई थी जहां के लोगों ने एक बार पिफर वेदांता को एक स्वर में खारिज कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर राज्य सरकार ने वेदांता के प्रोजेक्ट पर जनसुनवाई के लिए जिन 12 पल्लीसभाओं को चुना था, उसमें 11-0 से पलड़ा अब तक आदिवासियों के पक्ष में था और आखिरी रायशुमारी 19 अगस्त को जरपा गांव में होनी थी। जाहिर है, सोमनाथ को भी गांव की इकलौती प्राथमिक पाठशाला में 15 अगस्त का झंडा पफहराते वक्त दरअसल इसी कयामत के दिन का इंतजार था, जब कंपनी के ताबूत में आखिरी कील ठोंक दी जाती और 67 साल के बूढ़े, जर्जर लोकतंत्रा में न्यायिक सक्रियता का यह किस्सा एक तारीखी नजीर बनकर विकास की नई पैमाइश कर रहा होता। लेकिन बात इतनी आसान नहीं थी, मोर्चे इतने भी सापफ नहीं थे, यह बात हमें 15 अगस्त की शाम समझ में आई जब गांव में एक चमचमाती मोटरसाइकिल आकर रुकी। सपफेद टीशर्ट में सुपुष्ट देहयष्टि वाले एक नौजवान ने उतरते ही नमस्कार किया। उसके पीछे सोमनाथ का लड़का वृंदावन बैठा था। नौजवान ने विकलांग वृंदावन को सहारा देकर जमीन पर बैठाया और खुद खटिया पर बैठ गया। उसे हिंदी आती थी। काम भर की अंग्रेजी भी। पिफर उसने बोलना शुरू किया, ‘‘सर, मैं यहां हाइवे पर साइकिल रिपेयर की दुकान चलाता हूं। वृंदा उसी में मिस्त्राी का काम करता है। मैं तमिलनाडु और वाइजैग में भी रहा हूं। अब भी महीना में 20 दिन वाइजैग जाता रहता हूं माल लाने के लिए। पापा तो अब कुछ कर नहीं पाते, तो वे ही दुकान पर बैठते हैं। मैं बिजनेस में लगा हूं। आप लोग…?’’
शायद वृंदा से उसे हमारी खबर लगी थी। उसका नाम सूरत था। वह भी कुटिया कोंध् था और पड़ोस के पात्रागुड़ा गांव का रहने वाला था। चेहरे पर दूसरों से श्रेष्ठ होने का भाव था। वह बार-बार मोटरसाइकिल की ओर देखकर आत्मविश्वास से भर उठता। हमने मोटरसाइकिल के बारे में पूछा, तो उसने बताया कि दहेज में मिली है। गांव के कुछ बूढ़े-बुजुर्ग हमें घेरे बैठे थे। मैंने जानना चाहा कि क्या यहां के आदिवासियों में दहेज चलता है, जवाब सूरत ने दिया, ‘‘पहले नहीं था सर, लेकिन अब शुरू हो गया है। मेरे गांव में तो कई मोटरसाइकिलें है। कुछ ने अपने पैसे से भी खरीदी है, कुछ दहेज में…।’’ बीच में उसने मोबाइल निकाल कर वक्त देखा और हम उसे अपने आने का कारण बताते रहे। जवाब में वह ‘‘ओके, ओके’’ कहता रहा। ‘‘आपका क्या विचार है वेदांता के बारे में…’’, मैंने जानना चाहा। पहले वह मुस्कराया, पिफर बोला, ‘‘देखो सर, नियमगिरि तो हमारी मां है, सब कुछ उसी से हमें मिलता है। लेकिन कंपनी आएगी तो ज्यादा साइकिल आएगी, ज्यादा साइकिल पंचर होगी, पिफर ज्यादा ध्ंध भी आएगा… है कि नहीं?’’ मैंने देखा कि आसपास बैठे लोग उससे पहले से ही कुछ कटे से थे और इस बयान के बाद उनकी आंखों में संदेह का पानी तैरने लगा था। उसने खुद को संभाला, ‘‘देखो साब, दुख तो हमको भी होगा अगर नियमगिरि जाएगा, लेकिन क्या करें, कुछ डेवलपमेंट भी तो होना चाहिए… क्या?’’ अगले ही पल अचानक वह तेजी से उठा और चलने को हुआ, ‘‘मेरे को निकलना है साब, कल मिलते हैं हाइवे पर।’’ मैंने उससे मोबाइल नंबर मांगा, तो उसने एक अनपेक्षित सा जवाब हमारी ओर उछाल दिया, ‘‘हम लोग तो रोज सिम बदलते हैं, नंबर का क्या है…?’’
जहां नेटवर्क नहीं था वहां रोज सिम बदले जा रहे थे, यह हमें पहली बार पता चला। अंध्ेरा होते ही कई युवक अपने-अपने मोबाइल की स्क्रीन निहारते हुए गांव में चहलकदमी करने लगे। एक दूसरे को काटती संगीत की तेज आवाजें बिल्कुल नोएडा के खोड़ा कॉलोनी का सा माहौल बना रही थीं। एक जगह कांवरिया का गीत था। दूसरा भोजपुरी गीत। तीसरा मैथिली। चौथा पिफल्मी। दो घरों से टीवी की तेज आवाज आ रही थी। यहां के आदिवासी गांवों में प्रथा है कि सभी कुंवारे लड़के एक कमरे में सोएंगे और सारी कुंवारी लड़कियां किसी दूसरे कमरे में। वे अपने परिवारों के साथ नहीं सोते हैं। मैं जिज्ञासावश कुंवारे लड़कों के कमरे में यह जानने के लिए गया कि क्या वे जो बजाते हैं, उसे समझते भी हैं। उनमें सिपर्फ एक को काम भर की हिंदी आती थी, दूसरा जबरन अंग्रेजी बोलने की कोशिश कर रहा था। पता चला कि इस गांव से पिछले साल कुल 13 लड़के नौकरी के सिलसिले में केरल गए थे। ये सब धन रोपाई के लिए पिफलहाल गांव आए हुए हैं। केरल में इन्हें रोजाना 150-200 रुपये मिलते हैं। हर साल ठेकेदार को पफोन कर के ये छोटे-छोटे काम करने वहां जाते हैं। वहीं से टीवी, मोबाइल, छिटपुट इलेक्ट्रॉनिक सामान गांवों में लेकर आते हैं। सौ रुपये में मोबाइल में एक चिप पड़ती है जिसमें गानों के वीडियो होते हैं जो दुकानदार की मर्जी के होते हैं। ‘‘जब समझ में नहीं आता, तो आप लोग भोजपुरी या मैथिली वीडियो क्यों देखते हैं’’, मैंने जानना चाहा। एक लड़का शर्माते हुए बोला, ‘‘माइंड प्रफेश करने के लिए।’’ मैंने उससे नियमगिरि के बारे में जानने की इच्छा जताई, तो उसने जवाब दिया, ‘‘ये सब जाकर गांव के बड़े-बूढ़ों से पूछो। मेरे को क्या मालूम।’’ सहमति में दर्जन भर युवकों ने सिर हिला दिया और पहले की तरह बेसाख्ता मुस्कराने लगे। 
राजुलगुड़ा गांव में बमुश्किल आध दर्जन बुजुर्ग बचे हैं। कोई दर्जन भर अध्ेड़ होंगे। सबसे ज्यादा संख्या औरतों, बच्चों और युवाओं की है। कहते हैं कि यहां पुरुष लंबी उम्र तक नहीं जी पाते क्योंकि महुआ, मांडिया और तंबाकू उन्हें जल्दी लील लेते हैं। यह कहानी इस समूचे इलाके की है, नीचे चाहे ऊपर। नए लड़के बाहर जा रहे हैं तो शराब भी पी रहे हैं। उन्हें न तो नियमगिरि के अस्तित्व से खास मतलब है, न ही वेदांता कंपनी से। शाम को चौपाल पर जब गांव के बूढ़े और प्रौढ़ बैठकर दीन दुनिया का हालचाल लेते देते हैं, तो नौजवान आबादी अजनबी संगीत से घनघनाते मोबाइल हाथ में झुलाते हुए ‘‘माइंड प्रफेश करने’’ हाइवे की ओर निकल पड़ती है। दरअसल, जिस किस्म की सामाजिक संस्कृति नियमगिरि की तलहटी में बसे ऐसे गांवों में दिखती है, वह मोटे तौर पर सीमावर्ती आंध््र प्रदेश के सामाजिक ढांचे से प्रभावित रही है। यहां से आंध््र का सबसे करीबी कस्बा बॉबिली लगता है और रायगढ़ा में एक बड़ी आबादी पार्वतीपुरम और बॉबिली से आकर बसी है। इसी का असर है कि शहरी और कस्बाई राजनीति में तेलुगु पिफल्मी सितारों का असर बहुत चलता है। कभी आंध््र के पड़ोसी कस्बे पार्वतीपुरम से उजड़ कर रायगढ़ा में बसे और अब जयपुर की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी कर रहे 26 साल के युवा इंजीनियर राजशेखर कहते हैं, ‘‘हमारे शहर में सब तेलुगु पिफल्में देखते हैं, तेलुगु बोलते हैं। लोगों की दिलचस्पी ओडिशा की राजनीति में ज्यादा नहीं है। यहां तो पिफल्मी सितारों के झुकाव के हिसाब से राजनीति तय होती है।’’ सूरत ने भी ऐसी ही बात हमसे कही थी, ‘‘अभी देखो, सिधांत और अनुभव जिस पार्टी में चले जाते हैं, लोग उसी को वोट देते हैं। पहले यहां सब गांव कांग्रेसी था, लेकिन अब बदलाव आ रहा है।’’ सिधांत और अनुभव उड़िया के दो लोकप्रिय पिफल्मी सितारे हैं। 
मूवमेंट के गांव में आए इस बदलाव की स्वाभाविक परिणति देखनी हो तो हाइवे पर सिपर्फ बीस किलोमीटर आगे वेदांता के प्रोजेक्ट साइट लांजीगढ़ कस्बे तक चले जाइए। माथे पर टीका लगाए, मुंह में पुड़ी ;गुटखाद्ध दबाए चमचमाती हीरो होंडा पर तपफरीह करते दर्जनों आदिवासी-गैर आदिवासी नौजवान कंपनी के गेट के सामने ‘‘माइंड प्रफेश’’ करते मिल जाएंगे। अंगद बताते हैं कि इनमें नब्बे पफीसदी मोटरसाइकिलें कंपनी की दी हुई हैं और तकरीबन इतने ही लोग कंपनी के अघोषित एजेंट बन चुके हैं। इस गांव में कभी एक लड़का अकसर आया करता था जिसका नाम था जीतू। जुझारू था, एंेटी-वेदांता आंदोलन का सबसे लोकप्रिय स्थानीय चेहरा। हमने उसे 15 अगस्त की शाम मुनिगुड़ा बस स्टैंड पर टहलते हुए देखा। साथी अंगद ने उसकी पहचान कराते हुए बताया, ‘‘पहले बहुत आंदोलनकारी था, पर अब बिक गया है। चार हजार का जूता पहनता है। अभी ये सब चुप हैं क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का काम चल रहा है वरना आपसे दस सवाल पूछता कि कौन, क्या, क्यों…।’’ राजुलगुड़ा गांव के भीतर भी ऐसा ही एक शख्स है। पूरे गांव में अकेले उसी के पास बाइक है। अंगद के मुताबिक आजकल वह भी ‘‘चुप’’ है। 
कंपनी की छांव में : जब 15 अगस्त को देश भर में मनाई जा रही आजादी की सालगिरह का जश्न भी राजुलगुड़ा की चुप्पी को नहीं तोड़ सका, तो हम चल दिए कंपनी की ओर लांजीगढ़। भवानीपटना हाइवे पर लांजीगढ़ नाम का कस्बा यहां से कोई 20 किलोमीटर दूर है। लांजीगढ़ कालाहांडी जिले में पड़ता है। स्कूलों में झंडारोहण का कार्यक्रम खत्म ही हुआ था और हाइवे पर दौड़ रही हर टाटा मैजिक और मोटरसाइकिलों पर भारत का तिरंगा लहरा रहा था। नीली सरकारी निकर में कुछ बच्चे थे, जो तुरंत स्कूल से निकले थे और जाने क्या सोचकर सड़क पर हर गाड़ी को देखते ही हवा में मुट्ठियां लहराकर ‘‘हमारा देश प्यारा है’’ का नारा दे रहे थे। लांजीगढ़ के आसपास का माहौल वहां की आबादी के विशेष देशभक्त होने का पता दे रहा था। हम वेदांता अलुमिनियम लिमिटेड के गेट नंबर दो पर एक पल को रुके, और पिफर जहां तक बढ़े वहां तक सड़क के किनारे गड़े छोटे-छोटे खंबों पर वेदांता लिखा देखते रहे। एक विशाल कनवेयर बेल्ट से हमारा सामना हुआ। इसी से बॉक्साइट रिपफाइनरी तक लाया जाना है। इस बेल्ट का दूसरा सिरा पहाड़ों के भीतर कहां तक गया है, बाहर से देखकर इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। लांजीगढ़ का बाजार बहुत छोटा है। इससे कुछ ही आगे लांजीगढ़ गांव पड़ता है जहां नियमगिरि सुरक्षा समिति के संयोजक कुमटी मांझी रहते हैं। वे घर पर अपने दो पोतों के साथ मिले। 
नियमगिरि आंदोलन में कुमटी मांझी एक परिचित चेहरा हैं। आज से कुछ साल पहले जब इस आंदोलन में राजनीतिक संगठनों के साथ एनजीओ की समान भागीदारी थी, तब ऐक्शन एड नाम की संस्था मांझी समेत कुछ और आदिवासियों को लेकर लंदन गई थी। वहां नियमगिरि पर हुई एक बैठक में अचानक वेदांता कंपनी के मालिक अनिल अग्रवाल भी आ गए थे, जिस पर कहते हैं कि इन लोगों ने कापफी रोष जताया था। मांझी इस घटना का जिक्र करते ही उदास हो जाते हैं, ‘‘हम दो बार लंदन गए थे। एक बार 2003 में दो दिन के लिए और पिफर 2004 में तीन दिन के लिए।’’ वे बताते हैं कि उन लोगों को वहां कहा गया था कि वे आंदोलन को छोड़ दें, विरोध् करना छोड़ दें। वे कहते हैं, ‘‘उनके कहने से आंदोलन खत्म थोड़े हो जाएगा। अब तो सब ग्रामसभा ने वेदांता को खारिज कर दिया है, तो कंपनी को भागना ही पड़ेगा।’’अगर कंपनी नहीं भागी तो? ‘‘हम मार कर भगाएंगे’’, यह कहते ही वे हंस पड़ते हैं। क्या पूरा लांजीगढ़ गांव कंपनी के विरोध् में है? इस सवाल के जवाब में वे बताते हैं कि शुरू में जिन लोगों को कंपनी ने यहां पैसे देकर खरीद लिया था, वो सब बियर और मुर्गा खा पी कर पैसा उड़ा दिए हैं। आज की तारीख में उन्हें कंपनी से पैसा मिलना बंद हो गया है और वे सब खाली हैं। ऐसे में उनकी मजबूरी है कि वे आंदोलन के साथ आएं। 
यहां कस्बे में वेदांता का एक स्कूल भी चलता है। एक मुफ्रत अस्पताल भी है। कुमटी मांझी के नाती-पोते पहले वेदांता के स्कूल में ही पढ़ते थे। उन्हें इसे लेकर कोई वैचारिक विरोध् नहीं है, ‘‘पहले हम नाती-पोते को वहां पढ़ाते थे लेकिन उसका पैसा इतना ज्यादा है कि वहां से नाम कटवा दिए। अब वहां दलालों के बच्चे पढ़ते हैं।’’ कुमटी मांझी के दो बेटे हैं। एक यहीं खेती-बाड़ी के काम में लगा है और दूसरा बेटा राज्य सरकार की पुलिस में एसपीओ ;स्पेशल पुलिस ऑपिफसरद्ध है। वे सारी बातचीत में छोटे बेटे का जिक्र नहीं करते। बाद में हमने आंदोलन के ही एक नेता से इस बारे में पूछा तो उन्होंने मुस्कराते हुए टका सा जवाब दिया, ‘‘ये अंदर की बात है।’’ 
बहरहाल, कालाहांडी में जिन गांवों में पल्लीसभा हुई थी, उनमें दो ऐसे गांव हैं जो सड़क मार्ग से सीध्े जुड़े हैं। वहां तक चारपहिया गाड़ी पहुंच सकती है। ऐसे ही एक गांव पफुलडोमेर में हम पहुंचे जो लांजीगढ़ से करीब दस किलोमीटर की दूरी पर होगा। इस गांव में वेदांता ने एक नल लगवाया है जिससे लगातार पानी बहता है। यहां कंपनी ने औरतों को पत्ते सिलने के लिए सिलाई मशीन दी थी और छतों पर सोलर पैनल लगवाया था। सिलाई मशीनों का आलम ये है कि गांव में घुसते ही आपको टूटी-पफूटी अवस्था में ये मशीनें बिखरी दिख जाएंगी। कहीं-कहीं सोलर पैनल भी टूटे हुए पड़े थे। दिन के उजाले में जब सारे पुरुष काम पर गए होते हैं, इस गांव के घरों की छत पर गरीबी और पिछड़ेपन के निशान भैंस के सूखते मांस में देखे जा सकते हैं। कुछ औरतें हैं, जो घरों में महदूद किसी से बात नहीं करना चाहतीं। एकाध् बच्चे हैं, जिनके निकर और शर्ट इस बात का पता देते हैं कि उन पर शहर का रंग चढ़ चुका है। लेकिन यही वह गांव है जिसने सातवीं पल्लीसभा में सबसे ज्यादा 49 वोटरों की मौजूदगी दर्ज कराई ;कुल 65 वोटरों में सेद्ध और खम्बेसी गांव से यहां आ रहे आदिवासियों के एक समूह को रास्ते में आईआरबी के जवानों द्वारा रोके जाने पर अपना गुस्सा भी जताया था। पल्लीसभा के दिन वहां मौजूद ‘डाउन टु अर्थ’ पत्रिका के संवाददाता सयांतन बेहरा लिखते हैं कि जैसे ही सभा के बीच यह खबर आई कि कुछ लोगों को जवानों ने यहां आने से रोक दिया है, करीब पचास डोंगरिया कोंध् बीच में से ही उठकर निकल लिए। इंडियन रिजर्व बटालियन के एक जवान को कुल्हाड़ी दिखाते हुए एक आदिवासी ने कहा, ‘‘तुम्हारे पास बंदूक है तो मेरे पास टांगिया है।’’ प्रशासन ने मामले को गरमाता देख उस समूह को वहां आने दिया, लेकिन तब तक पल्लीसभा की कार्यवाही पूरी हो चुकी थी। 
फुलडोमेर से करीब दो किलोमीटर नीचे उतरते ही एक और रास्ता घने जंगलों की ओर कटता है। यह रास्ता कम है, लीक ज्यादा है। झुरमुटों के अंत में एक सापफ मैदान खुलता है जहां दो झोपड़ियां दिखती हैं। कहने को ये दो हैं, लेकिन परिवार सिपर्फ एक। यह इजिरुपा गांव है, जहां से नियमगिरि का शिखर महज डेढ़ किलोमीटर दूर है। इस गांव में एक ही परिवार है। इस परिवार में चार लोग हैं। और इससे बड़ी विडंबना क्या कहेंगे कि चार लोगों के इस इकलौते परिवार वाले गांव में भी वेदांता के प्रोजेक्ट पर राज्य सरकार ने पल्लीसभा रखी थी। जिंदगी में इससे पहले कभी भी परिवार के मुखिया अस्सी पार लाबण्या गौड़ा ने इतनी गाड़ियां, इतने पत्राकार, इतना पुलिस बल, सरकारी मशीनरी और सुरक्षा बल नहीं देखे। पफुलडोमेर के बाद आठवीं पल्लीसभा यहीं हुई थी और चार वोटरों वाले इस गांव ने कंपनी को खारिज कर दिया था। ध्यान देने वाली बात है कि यह गांव आदिवासी गांव नहीं है। गौड़ा यहां ओबीसी में आते हैं। जिन 12 गांवों को पल्लीसभा के लिए चुना गया था, उनमें यही इकलौता गैर-आदिवासी गांव था। इससे भी ज्यादा दिलचस्प बात यह है कि 2010 में राहुल गांधी आदिवासियों की लड़ाई का हरकारा बनकर जब नियमगिरि का दौरा करने आए थे तो वे इसी गैर-आदिवासी गांव में रुके थे और उन्होंने मशहूर बयान दिया था, ‘‘दिल्ली में आपकी लड़ाई मैं लड़ूंगा।’’ यहां राहुल गांध्ी के लिए एक अस्थायी शौचालय प्रशासन ने बनवाया था। एक ट्यूबवेल भी खोदा गया था जो अब मिट्टी से पट चुका है। इन कड़ियों को जोड़ना हो तो सबसे दिलचस्प तथ्य यह जानने को है कि गौड़ा का पोता आज लांजीगढ़ के आईटीआई में पढ़ाई कर रहा है ताकि विस्थापन के बाद शहर में आजीविका का एक ठौर तो बन सके। इन तथ्यों के जो भी अर्थ निकलें, लेकिन इजिरुपा ने तो कंपनी को ना कह ही दिया है। 
सिर्फ एक परिवार वाले गांव इजिरुपा का ग्रामसभा के लिए चयन अपने आप में सरकारी भ्रष्टाचार का एक बेहतरीन उदाहरण है। दरअसल, ग्रामसभा के लिए गांवों के चयन की प्रक्रिया में ही राज्य सरकार ने घपला किया था। सुप्रीम कोर्ट ने 18 अप्रैल के अपने पफैसले में कहा था कि नियमगिरि में खनन से पहले यहां के समस्त आदिवासियों से राय ली जाए कि कहीं वेदांता का यह प्रोजेक्ट उनके धर्मिक, सामुदायिक, निजी अध्किारों का अतिक्रमण तो नहीं कर रहा। नियमगिरि की गोद में ऐसे कुल 112 गांव हैं जिनकी राय ली जानी थी। आदिवासी मामलों का केंद्रीय मंत्रालय और कानून मंत्रालय भी इसी पक्ष में थे, लेकिन ओडिशा सरकार ने सिपर्फ 12 गांव चुने। ये वे 12 गांव थे जिन्हें वेदांता ने सुप्रीम कोर्ट में जमा किए अपने हलपफनामे में सीध्े तौर पर प्रभावित बताया था। इन्हीं में इजिरुपा भी था, जहां राहुल गांध्ी आकर जा चुके थे। नियमगिरि सुरक्षा समिति के सदस्य और इस इलाके में मजबूत संगठन अखिल भारतीय किसान मजदूर सभा के भालचंद्र शड़ंगी कहते हैं, ‘‘प्रशासन और कंपनी को पूरी उम्मीद थी कि शुरुआती छह गांवों को तो वे ‘मैनिपुलेट’ कर ही लेंगे और उसके बाद जो मूवमेंट के असर वाले बाकी छह गांव होंगे उनमें भी ‘सेंटिमेंट’ का असर हो सकेगा। पासा उलटा पड़ गया।’’ नियमगिरि सुरक्षा समिति के लोकप्रिय नेता लिंगराज आजाद कहते हैं, ‘‘सरकार को यहां की ग्राउंड रियलिटी का पता ही नहीं है। यहां पैसा नहीं चलता है। आप आदिवासियों को खरीद नहीं सकते।’’ स्थानीय पत्राकार हालांकि इस ‘पासा पलटने’ को कांग्रेस बनाम बीजेडी की राजनीति के रूप में देखते हैं।  
डोंगरियों-झरनियों की दुनिया: हमें 16 अगस्त की सुबह ‘‘ऊपर’’ जाना था और हमें भी अंगद ने यही बताया था कि वहां पैसा, मोबाइल, एटीएम, संपर्क, कुछ नहीं चलता। यह ‘‘ऊपर’’ उत्तराखंड या हिमाचल वाले ऊपर से गुणात्मक तौर पर भिन्न है। यहां इसका मतलब हैं डोंगर यानी पहाड़ के गांवों में जाना, जहां एक बार जाने के बाद आप तभी नीचे आते हैं जब आपको इरादतन नीचे आना होता है। हमें चूंकि 19 तारीख की आखिरी ग्रामसभा में शरीक होना था जो जरपा नाम के डोंगरियों के गांव में होनी थी, लिहाजा एक बार ऊपर जाकर 19 से पहले नीचे आने की कोई तुक नहीं बनती थी। इसका मतलब यह था कि हमें कम से कम तीन रातें और चार दिन डोंगरिया कोंध् आदिवासियों के साथ उन्हीं के गांवों में बिताने थे। झारखंड-छत्तीसगढ़ आदि के पहाड़ों पर बसे गांवों में तो साप्ताहिक हाट बाजार भी लगने की परंपरा है, यहां हालांकि ऐसा कुछ भी नहीं है। ऐसी हिदायत के बाद हमने अपनी समझ से कुछ बिस्कुट, चाय की पत्ती, चीनी, नींबू और मैगी के पैकेट रख लिए। बटुए और मोबाइल को स्थायी रूप से अपने झोले में डाल दिया और तड़के निकल पड़े ‘‘ऊपर’’, जहां हमारा पहला पड़ाव था बातुड़ी गांव। राजुलगुड़ा से करीब दस किलोमीटर ऊपर की ओर बसे कुल 22 घरों के इस गांव में छठवीं पल्लीसभा हुई थी जहां के कुल 40 में से उपस्थित 31 वोटरों ने वेदांता की परियोजना को खारिज कर दिया था। 
बातुड़ी डोंगरिया कोंध् का गांव है, लेकिन यहां आबादी का पहनावा मिश्रित है। अपने पारंपरिक एक सूत के सपफेद कपड़े में लिपटी आदिवासी औरतों के अलावा साड़ी पहनी और सिंदूर लगाए औरतें भी यहां दिख जाएंगी। नौजवान भी पारंपरिक पहनावे में कम ही दिखे। गांव में एक सोलर पैनल लगा है जिससे बिजली के दो खंबे चलते हैं। कुल 22 घर हैं और समूचे गांव में सिपर्फ चार बुजुर्ग। यहां आकर आपको पहली बार और पहली ही नजर में डोंगरिया आदिवासी गांवों की एक विशिष्टता पता चलती है। वो यह, कि यहां इंसानों से ज्यादा आबादी पालतू जानवरों की होती है। कुत्ता, बिल्ली, बकरी, सुअर, मुर्गा-मुर्गी, गाय, भैंस सब आबादी के बीच इस तरह घुलमिल कर रहते हैं कि शाम को जब पूरा गांव दो तरपफ बने घरों के बीच की पगडंडी पर नुमाया होता है तो एकबारगी इनके बीच पफर्क करना मुश्किल हो जाता है। बातुड़ी जिंदा प्राणियों का एक ऐसा जिंदा समाजवाद पेश करता है जिससे मनुष्यता के नाते एकबारगी जुगुप्सा होती है तो अगले ही पल आप खुद उसका हिस्सा बन जाते हैं और इसका पता नहीं लगता। बारिश हो जाने पर हालांकि जुगुप्सा का भाव सारी उदारता पर भारी पड़ जाता है। उस शाम जम कर पानी बरसा था और हम एक बरसाती में खटिया डाले सकुचाती लड़कियों की तस्वीरें उतार रहे थे, कि अचानक किसी के मोबाइल से मैथिली गीत बजा। ‘यहां भी मोबाइल!’ पहली प्रतिक्रिया यही थी। हमारे पीछे तीन नौजवान कैमरे की व्यूस्क्रीन में ताकझांक करते पाए गए। एक हिंदी बेहतर समझता था। वह मुस्करा दिया। उसका नाम मंटू मासू था। पिफर उड़िया और कुई मिश्रित टूटी-पफूटी हिंदी में बातचीत का सिलसिला चल निकला। 
इस गांव में पांच लड़के मुनिगुड़ा तक लकड़ी बेचने जाते हैं। जिस सखुआ की लकड़ी को शहरों में इमारतसाजी के लिए आदर्श माना जाता है, वह यहां इपफरात में है। एक साइकिल लकड़ी के बदले इन्हें सिपर्फ 200 रुपये मिलते हैं। एक साइकिल का मतलब साइकिल के त्रिकोणीय ढांचे में जितने भी लकड़ी के टुकड़े समा सकें, सब! रोज सुबह चार बजे मंटू अपने चार साथियों को लेकर यहां से 25 किलोमीटर दूर मुनिगुड़ा के बाजार तक साइकिल ढलकाता हुआ ले जाता है और दिन में 10 बजे तक लौट आता है। इन पांच में से तीन युवकों के पास मोबाइल हैं और इनका भी उपयोग मूल्य नीचे की ही तरह बदल चुका है। इस पर गाने सुने जाते हैं और वीडियो देखे जाते हैं। मनोरंजन की पूरी दुनिया 100 रुपये के चिप में आती है जिसका मतलब इन्हें समझ नहीं आता, लेकिन इस वीराने में शाम उसके भरोसे कट जाती है। एक घर में साउंड बॉक्स भी है। टीवी यहां नहीं है। मोबाइल सोलर पैनल से चार्ज होता है। ये नौजवान भी नियमगिरि के अलावा बहुत कुछ अपनी परंपरा के बारे में नहीं जानते हैं। कुछ विरोधभासी बातें भी इनसे संवाद कर के समझ में आती हैं। मसलन, ये मुर्गे-मुर्गियों को तो बेचते नहीं क्योंकि साल में एक बार पड़ने वाले उत्सव में ही इनकी बलि चढ़ाने की परंपरा है, लेकिन इन्हें मुर्गों का दाम जरूर मालूम है। मंटू बताता है, ‘‘एक मुर्गा 500 रुपये के बराबर है।’’ यानी लकड़ी बेचकर मौद्रिक चेतना यहां पर्याप्त आ चुकी है। 
रात में गांव की कुंवारी लड़कियां मिलकर हमारे लिए बड़े स्नेह से भात और बांस के मशरूम की सब्ज़ी पकाती हैं। साउंड बॉक्स वाले घर में हमारे सोने की व्यवस्था है। भोजन के कापफी बाद तक हिंदी के गाने बजते रहते हैं। सवेरे उठने पर गांव पुरुषों से खाली मिलता है। ध्ीरे-ध्ीरे औरतें भी काम पर चली जाती हैं और हम निकल पड़ते हैं अपने दूसरे पड़ाव केसरपाड़ी गांव की ओर, जहां हुई दूसरी ग्रामसभा में कुल 36 वोटरों के बीच उपस्थित 33 ने वेदांता को खारिज कर दिया था। इन 33 में से 23 महिलाएं और 10 पुरुष थे। बातुड़ी से केसरपाड़ी का रास्ता बेहद खतरनाक है क्योंकि एक पहाड़ से नीचे उतर कर तकरीबन सीध्ी चढ़ाई पर दूसरे पहाड़़ के पार जाना होता है। यह दूरी छह किलोमीटर के आसपास है। अपेक्षाकृत सापफ-सुथरे से दिखने वाले इस गांव में भरी दोपहर आबादी के नाम पर सिर्पफ दो औरतें और एकाध् बच्चे दिखते हैं। गांव से मुनिगुड़ा का एक सीध रास्ता है जो 15 किलोमीटर दूर है। गांव की शुरुआत में नीले रंग का एक मकान है। इस पर ताला लगा है। अंगद बताते हैं कि यह एक ईसाई मिशनरी का मकान है जो यहां र्ध्म परिवर्तन के वास्ते कापफी पहले आया था लेकिन अपनी पहल में नाकाम रहने के बाद गांव छोड़ कर चला गया। अब इसमें मूवमेंट के लोग आकर रहते हैं। इस गांव में कुल 16 घर हैं। 
आदिवासी इलाकों में मिशनरियों का काम नया नहीं है। खासकर ओडिशा के इस इलाके में साठ के दशक में ही ऑस्ट्रेलियाई मिशनरियों का आगमन हो गया था। रायगढ़ा के करीब बिसमकटक में बाकायदे ऑस्ट्रेलियाई मिशनरी अब भी कार्यरत हैं। लांजीगढ़ रोड पर एक मिशनरी ने कुष्ठ आश्रम बना रखा है लेकिन उसका आसपास के इलाकों में खास असर नहीं है। हिंदू र्ध्म प्रचारकों का काम यहां न के बराबर है। अब तक हिंदू प्रतीक के रूप में हमें इकलौती चीज अगर कोई दिखी है तो वो है ‘जय हनुमान’ खैनी, जिसे बिना चूके यहां के मर्द-औरत सब बड़े चाव से खाते हैं। सबकी लुंगी या लुगदी में खैनी का लाल पाउच खोंसा हुआ दिख जाएगा। शहर जाने वाले मर्द सबके लिए यह खैनी लेकर आते हैं। कुछ देर इस गांव में सुस्ताने के बाद हम निकल पड़े यहां से करीब पांच किलोमीटर दूर स्थित सिरकेपाड़ी गांव की ओर, जिसे 19 की ग्रामसभा के लिए हमारा बेस कैम्प होना था। 
लगातार चालू इस सफर में अब तक अंगद की तबीयत कापफी बिगड़ चुकी थी। उसे लगातार हिचकियां आ रही थीं और वह जो कुछ खा रहा था, सब उलट दे रहा था। उसे तेज बुखार हो चला था। सिरकेपाड़ी पहुंचते ही उसने हिम्मत छोड़ दी। उसका शरीर टूट चुका था। यह लड़का पिछली ग्यारह ग्रामसभाओं में लगातार तैनात रहा था लेकिन आखिरी ग्रामसभा में जश्न मनाना इसकी सेहत को गवारा नहीं था। यह तय हुआ कि अगले दिन यानी 18 अगस्त को जो लोग शहर से आएंगे, उन्हीं की गाड़ी से लौटती में अंगद को भिजवा दिया जाएगा। दरअसल, 19 की ग्रामसभा जरपा में होनी थी जहां करीब सात किलोमीटर चलकर दुर्गम रास्तों से सिरकेपाड़ी से ही पहुंचा जा सकता था। सिरकेपाड़ी तक चारपहिया वाहनों के आने का रास्ता बना हुआ है, इसलिए पत्राकार से लेकर न्यायाध्ीश और सुरक्षाबल तक सबको इसी गांव से होकर गुजरना था। अंगद पर दवाओं का असर अब नहीं हो रहा था। तेज़ बारिश, कंपकंपाती हवाओं और अंगद की दहलाती हिचकियों के बीच खुले ओसारे में 17 अगस्त की रात यहां गुजारने के बाद हमें शहर से आने वाली पहली गाड़ी का बेसब्री से इंतजार था ताकि किसी तरह अंगद को रवाना किया जा सके। 
हमें एक नेता ने बताया कि जब ग्रामसभा कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट का पफैसला आया था, तो माओवादियों (सीपीआई-माओवादी) ने इसके बहिष्कार का आह्वान करते हुए गांवों में पोस्टर चिपकाए थे। उनका पुराना तर्क था कि यह सारी कवायद पूंजीवादी लोकतंत्रा के सब्जबाग से ज्यादा कुछ नहीं है और असली सवाल राज्यसत्ता को उखाड़ पफेंकने का है। इस एक तथ्य से यह बात तो सापफ हो गई थी कि इस इलाके में माओवादी मौजूद हैं। माओवादियों के दिल्ली स्थित एक समर्थक बताते हैं कि 2009 में पहली बार 150 काडरों का एक समूह इस इलाके में छत्तीसगढ़ से काम करने आया था। अब वे कहां हैं, क्या कर रहे हैं, इस बारे में कोई ठोस जानकारी उनके पास नहीं है। इतना तय है कि नियमगिरि सुरक्षा समिति के घटक संगठनों के साथ उनका कोई कार्यकारी रिश्ता पिफलहाल नहीं है। इसकी दो वजहें हैं। पहली वजह खुद इस आंदोलन के नेता गिनाते हैं। उनका कहना है कि जब माओवादियों ने ग्रामसभाओं के बहिष्कार का आह्वान किया, तो नियमगिरि सुरक्षा समिति ने ग्रामसभाओं का खुलकर समर्थन किया। एक नेता के शब्दों में, ‘‘इससे राज्य सरकार के सामने एक बात सापफ हो गई कि नियमगिरि का आंदोलन माओवादियों का समर्थन नहीं करता।’’ भालचंद्र कहते हैं, ‘‘ग्रामसभा का बहिष्कार करने के कारण माओवादियों का यहां से काम लगभग खत्म ही हो गया है।’’ इस बात में आंशिक सच्चाई हो सकती है। नियमगिरि आंदोलन के अगुवा संगठनों के साथ माओवादियों का रिश्ता न होने की दूसरी वजह बिल्कुल सापफ है, कि इस आंदोलन का अध्किांश नेतृत्व निजी तौर पर समाजवादी जन परिषद और भाकपा;मालेद्ध-न्यू डेमोक्रेसी से ताल्लुक रखता है। दोनों ही संगठनों के माओवादियों से वैचारिक मतभेद हैं और माओवादियों को इस आंदोलन में कोई भी स्पेस देना दरअसल अपनी जगह को ही खत्म कर देना होगा। तो क्या इस आंदोलन में माओवादियों का कोई स्टेक नहीं है? सवाल उठता है कि यदि बारहों ग्रामसभाओं का पफैसला वेदांता के ताबूत में आखिरी कील साबित नहीं हुआ तब? इसका जवाब पिफलहाल 19 अक्टूबर को आने वाले सुप्रीम कोर्ट के पफैसले में छुपा है, लेकिन माओवादियों ने बहिष्कार का आह्वान करते वक्त जो दलील दी थी उसे इतनी आसानी से नजरंदाज नहीं किया जा सकता। 
दरअसल, नियमगिरि का सवाल अपने आप में कोई स्वायत्त और स्वतंत्रा सवाल नहीं है। यह 40,000 करोड़ रुपये के निवेश का मामला है जिसमें अंतर्राष्ट्रीय पूंजी समेत सरकारों की इज्जत भी दांव पर लगी हुई है। मीडिया की सतही अटकलों के आधर पर कोई कह सकता है कि कांग्रेस जब तक केंद्र की सत्ता में है और बीजू जनता दल जब तक ओड़िशा की सत्ता में है, तब तक मामला पफंसा रहेगा। यह तो हुई सियासी दलों के आपसी अंतर्विरोध् की बात, लेकिन इस बात को तो सभी समझते हैं कि पूंजी की चमक के आगे ऐसे सारे अंतर्विरोध् मौके-बेमौके हवा भी हो जाते हैं। जाहिर है राहुल गांधी की जबान रखने के लिए 40,000 करोड़ को लात नहीं मारी जा सकती। यह नूराकुश्ती अस्थायी है। असल सवाल यह है कि देश में ऐसे सैकड़ों नियमगिरि हैं जहां बुनियादी विरोधभास ग्लोबल पूंजी के हितों और स्थानीय संसाधनों पर मालिकाने के बीच है। नियमगिरि सिर्पफ इस मामले में विशिष्ट हो गया है कि यहां आजादी के बाद पहली बार न्यायिक पफैसले के आधार पर स्थानीय लोग विकास की लकीर खींच रहे हैं। लेकिन इस लकीर को राज्य सरकार ने घपला कर के कितना छोटा कर दिया है, यह भी हम देख चुके है। जो ग्रामसभा 112 गांवों में होनी चाहिए थी, उसे 12 में ही निपटा दिया गया और आदिवासी मंत्रालय समेत कानून मंत्रालय और न्यायालय सब मुंह ताकते रह गए। इस सच्चाई को आंदोलन का नेतृत्व अच्छे से समझता है, तभी आजाद कहते हैं, ‘‘नियमगिरि को छूने के लिए कंपनी को हजारों आदिवासियों का खून बहाना पड़ेगा और हम अपनी ध्रनी का एक-एक इंच बचाने के लिए जान दे देंगे।’’ राज्यसत्ता को ऐसी भाषा माओवादियों से मेल खाती दिखती है और नतीजतन वह महज 12 वोटरों के एक गांव में अपनी न्यायिक प्रक्रिया की निगरानी के लिए तीन बटालियनें उतार देती है। यह ‘परसेप्शन’ का पफर्क है। आंदोलन का नेतृत्व यह सोचता है कि उसने माओवादियों के बहिष्कार का विरोध् कर के खुद को उनसे अलगा लिया है और यही संदेश राज्यसत्ता को भी जा चुका है, जबकि सरकार ऐसा नहीं सोचती क्योंकि सीआरपीएपफ और पुलिसबल से गांवों को पाट देने की कवायद एक ही चश्मे से आती है जिसके उस पार सरकारी योजना का विरोध् करने वाला हर शख्स माओवादी दिखता है। इस मामले में हम कह सकते हैं कि नियमगिरि सुरक्षा समिति का नेतृत्व एक स्तर पर खुशपफहमी में है, लेकिन आंदोलन के बौ(िक दिशा-निर्देशक लिंगराज प्रधन इस बात को कुछ ऐसे रखते हैं, ‘‘यह रणनीति का सवाल है। हम देख रहे हैं कि जहां-जहां माओवादी आंदोलन हो रहे हैं, वहां राज्य का दमन इतना बढ़ा है कि डेमोक्रेटिक स्पेस खत्म हो गई है। उड़ीसा में अब भी गंदमारदन किसान आंदोलन आदि ऐसे उदाहरण हैं जहां लोकतांत्रिक दायरे में कामयाबी हासिल की गई है। यह लड़ाई प्रतिरोध् के जनवादी स्पेस को बचा ले जाने की है।’’ वे हालांकि यह भी मानते हैं कि इस ‘खुशपफहमी’ की वजह बस इतनी है कि अब तक यहां जनता के साथ दगा नहीं हुआ है और लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इसीलिए आस्था बची हुई है, जिसके चलते 12वीं ग्रामसभा के पफैसले को ‘ताबूत में आखिरी कील’ मान लिया जा रहा है। लेकिन इस इलाके में संघर्षों का इतिहास कुछ और ही कहता है। 
चासी मुलिया के सबकः स्थानीय अखबारों पर नजर दौड़ाएं तो हम पाएंगे कि पिछले कुछ महीनों के दौरान अचानक कोरापुट जिले से चासी मुलिया आदिवासी संघ ;किसानों, बंध्ुआ मजदूरों और आदिवासियों के संघद्ध के सदस्यों के सामूहिक आत्मसमर्पण संबंधी खबरों में कापफी तेजी आई है। मीडिया की रिपोर्टों के मुताबिक जनवरी 2013 के बाद संघ के 1600 से ज्यादा सदस्यों ने आत्मसमर्पण किया है। ये सभी कोरापुट जिले के नारायण पटना ब्लॉक के निवासी हैं। संघ के मुखिया नचिकालिंगा के सिर पर ईनाम है। उनके नाम के ‘मोस्ट वॉन्टेड’ पोस्टर भुवनेश्वर में लगे हैं। पिछले साल 24 मार्च को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ;माओवादीद्ध ने कोरापुट के टोयापुट गांव से एक विधयक झिना हिकोका को अगवा कर लिया था और उनकी रिहाई के बदले चासी मुलिया के 25 सदस्यों को रिहा करने की मांग कर डाली थी। इसके बाद अचानक यह संदेश गया था कि चासी मुलिया को माओवादियों का समर्थन है। उसके बाद से आत्मसमर्पणों का सिलसिला शुरू हुआ, जिससे आम धरणा बनी कि यहां माओवादियों का आधर सरक रहा है। नियमगिरि आंदोलन के नेता इसी परिघटना के पीछे माओवादियों द्वारा ग्रामसभाओं के बहिष्कार के आह्वान का हवाला देते हैं, जो अपनी तात्कालिकता में भले सच हो लेकिन करीबी अतीत में चली प्रक्रिया से बेमेल है। 
असल में चासी मुलिया आदिवासी संघ ओडिशा में कोई प्रतिबंध्ति संगठन नहीं है, इसलिए इसके सदस्यों की गिरफ्रतारी और आत्मसमर्पण का मुद्दा चौंकाने वाला है। पुलिस मानती है कि चासी मुलिया माओवादी पार्टी का जनसंगठन है और माओवादी इसी के सहारे कोरापुट, मलकानगिरि और रायगढ़ा जिले के कुछ हिस्सों में अपनी राजनीतिक गतिविध्यिों को आगे बढ़ा रहे हैं। चूंकि रायगढ़ा के सात गांवों में पल्लीसभा हुई है, इसलिए यहां सीआरपीएपफ और पुलिस को भारी संख्या में उतारना सरकारी नजरिये का ही स्वाभाविक परिणाम था। दूसरी ओर संघ के मुखिया नचिकालिंगा जो आजकल भूमिगत हैं, माओवादियों के साथ अपने रिश्ते की बात को खुले तौर पर नकारते हैं। पिछले साल ‘तहलका’ को एक गुप्त स्थान से दिए अपने साक्षात्कार में उन्होंने यह कहा था। इस पृष्ठभूमि में यह पड़ताल करना आवश्यक हो जाता है कि क्या चासी मुलिया आदिवासी हितों के लिए काम करने वाला एक स्वतंत्रा संगठन है या पिफर इसके माओवादियों से वाकई कुछ रिश्ते हैं। इसी आलोक में हम जान पाएंगे कि चासी मुलिया के प्रति नियमगिरि आंदोलन के नेतृत्व का उभयपक्षी नजरिया नियमगिरि के भविष्य में कौन सी राजनीतिक इबारत लिख रहा है। 
चासी मुलिया आदिवासी संघ का जन्म आंध््र प्रदेश के किसान संगठन रैयतु कुली संगम ;आरसीएसद्ध से हुआ था जिसे माओवादी समर्थक नेताओं ने विजयानगरम में गठित किया था। आरसीएस की एक शाखा 1995 में ओडिशा के कोरापुट जिले के बंध्ुगांव ब्लॉक में भास्कर राव ने शुरू की। शुरुआत में बंध्ुगांव और नारायणपटना ब्लॉक के किसानों और बंध्ुआ मजदूरों का इसे कापफी समर्थन हासिल हुआ। भाकपा माले-कानू सान्याल गुट ;यह खुद को भाकपा ;मालेद्ध ही कहता हैद्ध के कुछ अहम नेता जैसे गणपत पात्रा आरसीएस के साथ कापफी करीब से जुड़े रहे हैं। आरसीएस-कोरापुट ने भाकपा ;मालेद्ध के नेताओं के सहयोग से ही यहां जल, जंगल और जमीन का आंदोलन चलाया था। जब आंध््र प्रदेश में भाकपा ;माओवादीद्ध और उसके जनसंगठनों पर प्रतिबंध् लगाया गया था, उसके ठीक बाद 17 अगस्त, 2005 को आरसीएस को भी वहां प्रतिबंधित कर दिया गया। ओडिशा में भी आरसीएस को ऐसे ही प्रतिबंध् का अंदेशा था, सो उसने 2006 में अपना नाम बदल कर चासी मुलिया आदिवासी संघ रख लिया। संघ ने 2006 से 2008 के बीच खासकर नारायण पटना और बंध्ुगांव ब्लॉकों में गैर-आदिवासी जमींदारों से जमीनें छीन कर गरीब आदिवासियों में बांटने का कापफी काम किया, शराब बंदी के लिए रैलियां कीं और भ्रष्ट सरकारी अपफसरों के खिलापफ अभियान चलाया। 2008 आते-आते संघ की नेता कांेडागिरि पैदम्मा को दरकिनार कर के बंध्ुगांव के अर्जुन केंद्रक्का और नारायणपटना के नचिकालिंगा ने संगठन की कमान संभाल ली, लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि संगठन के भीतर अपने आप दो ध्ड़े भी बन गए। अर्जुन केंद्रक्का बड़े जमींदारों से भूदान के पक्ष में थे जबकि नचिकालिंगा उनसे जमीनें छीनने में विश्वास रखते थे। इस तरह दोनों ध्ड़ों के बीच मतभेद बढ़ते गए। इसकी परिणति इस रूप में हुई कि केंद्रक्का ने 2009 के चुनाव में खड़े होने का मन बना लिया और संसदीय लोकतंत्रा में अपनी आस्था जता दी। नचिकालिंगा ने इसका विरोध् किया। माना जाता है कि इसकी दो वजहें रहीं। पहली यह कि नचिकालिंगा माओवादी विचारधरा से प्रभावित थे। दूसरी वजह यह थी कि वे खुद भाकपा ;मालेद्ध के टिकट पर कोरापुट की लक्ष्मीपुर संसदीय सीट से लड़ना चाहते थे। हुआ यह कि अर्जुन केंद्रक्का को भाकपा ;मालेद्ध से टिकट मिल गया, हालांकि वे बीजू जनता दल के झिना हिकोका से हार गए। इसके बाद चासी मुलिया के दो पफाड़ हो गए। वरिष्ठ नेताओं और सलाहकारों ने भी अपना-अपना पक्ष तय कर लिया। मसलन, कोंडागिरि पैदम्मा ने अर्जुन ध्ड़े को चुना तो भाकपा ;मालेद्ध के पात्रा ने नचिकालिंगा के गुट में आस्था जताई। 
यही वह समय था जब कोरापुट, मलकानगिरि और रायगढ़ा में माओवादियों का एक जत्था बाहर से आया और यहां की राजनीति में उसने पैठ बनानी शुरू की। 20 नवंबर, 2009 को नारायणपटना पुलिस थाने पर नचिकालिंगा ने सुरक्षा बलों द्वारा आदिवासियों के दमन के खिलापफ धवा बोला और गोलीबारी हुई जिसमें संघ के दो नेताओं की मौत हो गई, कई जख्मी हुए और पुलिस ने 37 को गिरफ्रतार कर लिया। इसके बाद से नचिकालिंगा भूमिगत हैं। इसी मौके का लाभ माओवादियों ने इस गुट में अपनी उपस्थिति को मजबूत करने में उठाया। एक सरकारी संस्था इंस्टीट्यूट पफॉर डिपफेंस स्टडीज अनॉलिसिस ;आईडीएसएद्ध की एक रिपोर्ट के मुताबिक माओवादियों ने नचिकालिंगा को अपने साये तले पुलिस से संरक्षण दे दिया और बदले में समूचे गुट को अपने नियंत्राण में ले लिया। इस बात को लिंगराज प्रधन भी मानते हैं कि दक्षिणी ओडिशा के इस इलाके में चासी मुलिया के नेतृत्व में चल रहे जमीन के आंदोलनों को माओवादियों ने ‘हाइजैक’ कर लिया। नचिकालिंगा ने हमेशा माओवादियों के साथ अपने रिश्ते को नकारा है, लेकिन नियमगिरि आंदोलन के नेता इस बात की पुष्टि करते हैं। इसके अलावा, चुनाव हारकर सरकारी मशीनरी के विश्वासपात्रा बन चुके अर्जुन केंद्रक्का की 9 अगस्त, 2010 को भाकपा ;माओवादीद्ध की श्रीकाकुलम इकाई द्वारा की गई हत्या भी इस बात को साबित करती है कि चासी मुलिया ;नचिकालिंगाद्ध में माओवादियों की पैठ बन चुकी थी। इस हत्या के बाद संघ की बंध्ुगांव इकाई निष्क्रिय हो गई और माओवादियों की मदद से नचिकालिंगा गुट ने वहां और नारायणपटना ब्लॉक में 6000 एकड़ जमीनें कब्जाईं। 
इस साल चासी मुलिया से काडरों के बड़े पैमाने पर हो रहे आत्मसमर्पण एकबारगी यह संकेत देते हैं कि इस इलाके में माओवादियों की पकड़ कमजोर पड़ रही है, लेकिन कुछ जानकारों का मानना है कि यह नचिकालिंगा गुट और भाकपा ;माओवादीद्ध की एक रणनीति भी हो सकती है। कुछ स्थानीय लोगों के मुताबिक नचिकालिंगा ने अगर संसदीय राजनीति की राह पकड़ ली, तब भी माओवादियों के अभियान पर यहां कोई खास असर नहीं पड़ने वाला क्योंकि उन्होंने मिनो हिकोका के रूप में चासी मुलिया संघ में नेतृत्व की दूसरी कतार पहले से तैयार की हुई है। इसके अलावा एक उभरता हुआ गुट सब्यसाची पांडा का है जिन्होंने पिछले दिनों भाकपा ;माओवादीद्ध को छोड़ कर उड़ीसा माओवादी पार्टी बना ली है। प्रधन इसे लेकर हालांकि चिंतित नहीं दिखते, ‘‘यह तो सरवाइवल के लिए बना समूह है। पांडा या तो सरेंडर कर देंगे या पिफर एनकाउंटर में मारे जाएंगे। उनका इस इलाके की राजनीति पर कोई असर नहीं होने वाला।’’ 
इस पूरी कहानी में सबसे दिलचस्प बात यह है कि सारी लड़ाई आदिवासियों, किसानों और बंध्ुआ मजदूरों के हितों के लिए जमीन कब्जाने से शुरू हुई थी। विडंबना यह है कि नचिकालिंगा खुद एक बंध्ुआ मजदूर था जिसके मालिक के घर में आज सीमा सुरक्षा बल की चौकी बनी हुई है। यह लड़ाई महज चार साल के भीतर माओवादियों के कब्जे में आ चुकी है और मोटे तौर पर तीन जिलों कोरापुट, मलकानगिरि और रायगढ़ा में उनका असर पहले से कहीं ज्यादा बढ़ा है। मजेदार यह है कि जमीन की बिल्कुल समान लड़ाई नियमगिरि की तलहटी वाले गांवों में चल रही है जहां माले का न्यू डेमोक्रेसी ध्ड़ा और खुद लिबरेशन भी अलग-अलग इलाकों में सक्रिय हैं। लड़ाई का मुद्दा एक है और जमीन कब्जाने की रणनीति भी समान, लेकिन इलाके अलग-अलग हैं और ‘मोस्ट वांटेड’ संगठन चासी मुलिया के प्रति माले के ध्ड़ों का नजरिया भी अलग-अलग है। लिंगराज प्रधन इसे ‘पर्सनालिटी कल्ट’ का संकट बताते हैं जहां नेतृत्व संगठन से बड़ा हो जाता है। इस जटिल इंकलाबी राजनीति के आलोक में नियमगिरि का आंदोलन, जो आज की तारीख में वैश्विक प्रचार हासिल कर चुका है, माओवाद से अछूता रह जाए ;या रह गया होद्ध यह संभव नहीं दिखता। लिंगराज प्रधन इसे ‘रूल आउट’ नहीं करते, ‘‘हमारे नेता आज़ाद के पास माओवादियों के पफोन आते हैं। वे कहते हैं कि तुम चिंता मत करो, हम तुम्हारे साथ हैं।’’ पिफर वे कहते हैं, ‘‘दरअसल, अभी तक नियमगिरि में प्रतिरोध् का सिलसिला सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के सहारे और छिटपुट आंदोलनों के बल पर ही चलता रहा है जो गंदमारदन जैसी भीषण शक्ल नहीं ले सका है और अपेक्षाकृत सौम्य है, इसमें कामयाबी भी मिलती ही रही है, इसीलिए माओवादियों को यहां घुसने की स्पेस नहीं बन पा रही है। जनवादी राजनीति की यही कामयाबी है।’’
जहां बड़े आंदोलन होते हैं, वहां अपफवाहें भी बड़ी होती हैं। कहते हैं कि नियमगिरि के कुछ डोंगरिया गांवों में राइपफलें भी हैं। यह बात गलत हो या सही, इससे पफर्क नहीं पड़ता। असल पफर्क यह समझने से पड़ता है कि नियमगिरि की लड़ाई किसी कोने में अलग से नहीं लड़ी जा रही है। यह कोई पवित्रा गाय नहीं है जहां लोकतांत्रिक प्रक्रिया और संवैधनिक प्रावधनों के आधर पर ही बड़ी पूंजी के खिलापफ जीत हासिल की जा सके। सवाल यहां भी जल, जंगल और जमीन का ही है। विरोधभास यहां भी लोकल बनाम ग्लोबल का है और अब तक तो कोई ऐसी नजीर इस देश में पेश नहीं हुई जहां न्यायिक सक्रियता के चलते बड़ी पूंजी की स्थायी वापसी संभव हुई हो। 
नियम की तासीरः ऐसा नहीं कि आंदोलन के नेताओं लिंगराज आजाद या लोदो सिकाका को जन्नत की हकीकत नहीं मालूम। संजय काक की पिफल्म में लोदो सिकाका की एक बाइट हैः ‘‘सरकार हमें माहबादी (माओवादी) कहती है। अगर हमारा नेता लिंगराजा माहबादी है, तो हम भी माहबादी हैं।’’ यह चेतना का उन्नत स्तर ही है जो दुनिया की दुर्लभ आदिवासी प्रजाति डोंगरिया कोंध् के एक सदस्य से ऐसी बात कहलवा रहा है। संघर्षों से चेतना बढ़ेगी तो कल को माओवादी पोस्टरों के मायने भी समझ में आएंगे और मोबाइल पर बजता गीत-संगीत भी। अभी तो दोनों ही आकर्षण का विषय हैं और इनसे निकल रहा बदलाव नियमगिरि की पिफजा में सापफ दिख रहा है। लड़के दहेज ले रहे हैं, औरतें सिंदूर लगा रही हैं, बच्चियां अपने स्कूली शिक्षकों के कहने पर तीन नथ पहनना छोड़ रही हैं तो सभ्य दिखने के लिए आदिवासी बच्चे अपने लंबे बाल कटवा रहे हैं। इन छवियों के बीच मुझे अस्पताल में पड़े साथी और नियमगिरि के जंगलों में अपने मार्गदर्शक अंगद की कही एक बात पिफर से याद आ रही है, ‘‘हम लोग सड़क और स्कूली शिक्षा का विरोध् इसीलिए करते हैं क्योंकि उससे आंदोलन कमजोर होता है।’’ इससे दो कदम आगे उनके नेता आजाद की बात याद आती है जो उन्होंने अपने साक्षात्कार में कही थी, ‘‘विकास का मतलब अगर बाल कटवाना होता है तो पहले मनमोहन सिंह की चुटिया काटो।’’ सख्त वाम राजनीति के चश्मे से देखने पर ग्रामसभाओं में वेदांता की हार ऊपर-ऊपर भले ही गालिब का खयाली फाहा जान पड़ती हो, लेकिन नियमगिरि की तासीर पर्याप्त गर्म है। यही डोंगरियों के नियम राजा का असली मर्म है।
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