दुनिया के मजदूरों एक हो !
वहीं देखते-देखते आठ घण्टे काम, आठ घण्टे मनोरंजन व आठ घण्टे आराम का मजदूर वर्गीय आन्दोलन एटलांटिक महासागर से प्रशांत महासागर व न्यू इंग्लैण्ड से कैलिफोर्निया तक फैल गया। द्वितीय अन्तर्राष्ट्रीय की प्रथम पेरिस कांग्रेस में पहली मर्इ 1886 को विशेष दिवस मनाने का फैसला लिया गया। जबकि इससे पूर्व अमेरिका के फेडरेशन आफ लेबर ने सन 1884 के 7 अक्टूबर को एक प्रस्ताव पासकर 1886 की पहली मर्इ से 8 घण्टे काम का दिन की वैधता मानने का प्रस्ताव पास किया था और वहीं मजदूरों की शहादत के साथ पहली मर्इ 1886 को अमेरिका के शिकागो शहर में जिसका इन्कलाबी इतिहास रचा गया। तब से लेकर आज तक प्रतिवर्ष पहली मर्इ को मजदूर दिवस के रूप में मनाने की परम्परा चल पड़ी। लेकिन इस दिन को तमाम कथित कम्युनिस्ट पार्टियां, मजदूरों का हितैषी बताने के नाम पर मजदूरों की एकता को भंग करने वाले ट्रेडयूनियन सिर्फ एक जश्न मनाकर इसके इतिहास व कार्यभार पर पर्दा डालने का काम करते चले आ रहे हैं।
आज 21 वीं सदी के द्वितीय दशक काल में आठ घण्टे के कार्य दिवस को लागू हुए आज 127 वर्ष होने जा रहे हैं। इन वर्षों में पूंजीवाद ने अपना राष्ट्रीय रूप त्याग कर अन्तर्राष्ट्रीय यानि साम्राज्यवादी रूप ग्रहण किया। जिसका विश्लेषण मूल्यांकन कर महान माक्र्सवादी लेनिन ने 20 वीं सदी के प्रथम दशक काल में ही कहा था राष्ट्रीय पूंजीवाद अब विकसित होकर साम्राज्यवादी अवस्था में पहुंचकर विश्व पूंजीवाद, मरणोन्मुख पूंजीवाद हो गया है। वहीं इन वर्षों में मशीनों में तकनीकी विकास व विज्ञान के सहारे श्रम उत्पादकता में कर्इ गुना वृद्धि हुर्इ। परन्तु कानूनन कार्य दिवस आठ घण्टे का ही बना रहा। जिससे आवश्यक श्रम काल कम होता गया और अतिरिक्त श्रम काल लगातार बढ़ता गया। यानि मजदूर वर्ग का शोषण लगातार तीव्रतर से तीव्रतम होता गया। जबकि कार्य दिवस के सम्बन्ध में भयानक सचार्इ यह है कि अघोषित व अलिखित रूप से आज मजदूर 15 से 16-18 घण्टे तक काम करने को लगातार विवश किया जा रहा है और सरकारें कानूनी रूप से कार्य दिवस को 8 से 10-12 घण्टे करने का मंसूबा बना रही हैं। इन सबके फलस्वरूप एक तरफ आम श्रमिक जन वर्ग का शोषण, दोहन, दमन, उत्पीड़न में लगातार बढ़ोतरी होती जा रही है वहीं इसी के अनिवार्य परिणाम के रूप में उत्पन्न गरीबी, बेकारी, बेरोजगारी, मंहगार्इ मुद्रास्फीति, भ्रष्टाचार, अराजकता, असमानता अभावग्रस्तता, सरीखी समस्याएं भी विकराल रूप धारण करती जा रही हैं। इनके बीच श्रमिक जन-वर्ग घुट-घुटकर जीने को विवश है। इसी का परिणाम है कि कहीं किसान सपरिवार आत्महत्या कर रहे हैं कहीं मजदूर। कहीं बरोजगारी, बेकारी का दंश झेलता युवा आत्महत्या का शिकार हो रहा है। (साभार : कार्ल मार्क्स )