कागज तुम्हारा जमीन हमारी : डॉ. ब्रह्मदेव शर्मा
वंचितों के हित में लगातार संघर्षरत डॉ. बी.डी. शर्मा का विगत 6 दिसंबर को देहावसान हो गया। जनसंघर्षों, जनांदोलनों एवं लोकहित मे कार्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति की व्यक्तिगत क्षति है। उन्होंने आदिवासियों, किसानों एवं कामगारों की दशा सुधारने के लिए असाधारण कार्य किया। उनका सरल, सहज व मितव्ययी जीवन हम सबके लिए एक पाठशाला है। प्रस्तुत आलेख मई-1997 में साकेगांव (जिला जलगांव, महाराष्ट्र) में 34 वें अ. भा. सर्वोदय समाज सम्मेलन में दिए गए उद्घाटन उद्बोधन का संपादित स्वरूप है। जिसे श्री कामेश्वर बहुगुणा ने तैयार किया था।
अब मौका आया है कि हम सोचें कि हमें कैसा देश बनाना है। यहां हम दो पीढ़ियों के साथ मिल रहे हैं। हम नयी पीढ़ी को गर्व के साथ कुछ भी देने में असमर्थ हैं। तो सोचें गलती कहां हुई। पहली बात यह है कि आजादी राजधानियों के शहरों में फंस गयी है। वहां हमारी शक्ल में लोग बैठ गए तो हमने समझा कि स्वराज्य आ गया। पर यह भूल है। आजादी के बाद भी देश में साम्राज्यवादी व्यवस्था को ही मजबूत किया गया है। यह व्यवस्था आम आदमी खासकर ग्रामीण के, हित व सम्मान के विरुद्ध है। इसने आदमी को ‘‘अनागरिक‘‘ बना दिया है।
संविधान की 40 वीं धारा में पंचायतें केवल ‘‘हुक्म‘‘ का पालन कर सकती है, ‘‘हुक्म‘‘ दे नहीं सकती। खुद ‘‘पंचायत‘‘ शब्द से भ्रम होगा। विधान में ‘‘ग्राम पंचायत‘‘ नहीं ‘‘पंचायत‘‘ शब्द है जो बंद कमरे में बात – काम करती है। सारी व्यवस्था कमरे में बंद है। हमारा देश आउटडोर सभ्यता वाला है, खुला समाज है, इसे बंद समाज में बदल दिया गया है। यह सारा पुरानी व्यवस्था का दस्तावेज है। यह पहला धोखा हुआ कि असली मालिक ठगा गया है।
समाज तो स्वयंभू है, प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीकरण स्वयं में ‘‘अन्तविरोधी प्रत्यय‘‘ है। पर इसमें हमें प्रदत्त अधिकारों से ठगा जा रहा है। स्वयंभू व्यवस्था प्रदत्त अधिकारों से नहीं चलती। यह बंद भीतरी व्यवस्था उस कुत्ते की तरह है जो समझता है कि मैं ही समूची गाड़ी चला रहा हूं। इसका आरंभ सत्ता का, लूट का बंटवारा मात्र है। इस बंटवारे को ही न्याय कहा जाता है। दुनिया का सबसे बड़ा लुटेरा क्लाइव ‘‘लार्ड‘‘ बना दिया गया था। हमारे भारतरत्नों में भी लुटेरे हैं। हमने इस व्यवस्था को मान लिया, इससे उत्पन्न आक्रोश को तोड़ने का काम किया, यह भारी भूल हुई है। आज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हित में खेती ‘‘हानि‘‘ का धंधा बना दिया गया है। भारत के परम्परागत धंधेवाले ‘‘अकुशल‘‘ बना दिए गए है। काम करने वाले को ‘‘बिचौलियों‘‘ के हवाले कर दिया गया है। इन मान्यताओं को कोई चुनौती नहीं दे रहा है। हमारे विश्वविद्यालय हमें ‘‘अमरीकी दृष्टि‘‘ दे रहे हैं उन्हें भारत का कोई ज्ञान नहीं है। वे गुलामी की ही शिक्षा दे रहे हैं। ‘‘समर्थ ही जी सकता है‘‘ इस दासता के मूल्य का प्रसार करते हैं।
एक बड़ी भूल यह भी हुई कि पहले तो विकास हो जाए, ‘‘सामाजिक न्याय‘‘ बाद को आएगा। यह गलत मान्यता व तर्क है। और विकास फल के बंटवारे पर कोई ध्यान नहीं दिया गया है। आज गांव व शहर का अंतर 12 गुना हो गया है। नयी तकनीकी इसी काम में लगी है। यहां तक कि सौ रुपये के नोट पर टैªक्टर छापा गया। तब गाय को कहां स्थान है। जमीन को ‘‘संपत्ति‘‘ मानकर खरीद बिक्री की वस्तु बना दिया गया है। फिर हमने पश्चिमी विकास को मान लिया। पर यह पश्चिमी विकास यूरोप-अफ्रीका व भारत आदि में नृशंसों व हुनरों के विनाश पर टिका है। इसको देश की संपत्ति पर कुछ लोगों को कब्जा दिलाने का माध्यम बना दिया गया है। इससे या तो पर्यावरण समाप्त होगा या फिर हम मानव रूप में नष्ट हो जाएंगे। अब यह मानस बनाया जा रहा है कि गरीबों को गले की हड्डी कब तक रखा जाएगा ? याने उन्हें समूल नष्ट करना होगा। नागरिक समानता खत्म होकर देश बंट गया है। रेल में, अस्पताल में, स्कूल में गरीब का स्थान खत्म हो गया। अब वैश्यों का स्थान सम्मान का बना दिया जा रहा है। ‘‘यौन – उद्योग‘‘ पर्यटन आदि के द्वारा बढ़ाया जा रहा है। परिवार टूट रहे हैं, जननी बनना हेय माना जा रहा है।
अतः अब सोचो हम स्वार्थवश हो यह सब सहन कर रहे हैं। अनुदानों के चक्कर में सम्मान खो रहे हैं। अनुदान भीख व भिक्षा से भी हेय है। हमारी संसद कंगालों की बस्ती बन गयी है। वह विदेशी भीख (कर्ज) मिलने पर तालियाँ पीटते हैं। अब मात्र आम आदमी ही एकमात्र आशा रह गयी है। भारत का गरीब, गरीब नहीं ‘‘शोषित‘‘ है। किसी को अकुशल व हेय मानना व कहना छोड़ दें। इस शोषक व्यवस्था को नकार दें। गांधीवाद को ‘‘आदर्शवाद‘‘ के ठप्पे से मुक्त करो। गांधीजी आदर्शवादी नहीं, ‘‘व्यवहारवादी‘‘ थे। किसान गरीब क्यों है, शोषित क्यों हैं ? यह बताएं। आम आदमी को सारी व्यवस्था अपने हाथ में ले लेनी होगी। सरकार ‘‘नाई‘‘ की तरह संदेशवाहक मात्र है पर वह ‘‘ठाकुर‘‘ बन गयी है। जमीन व समाज के अधिकार अब सरकारी कागजों के आधार पर तय नहीं होेंगे। अतः कागज तुम्हारा जमीन हमारी का नारा देना होगा। अब वक्त आ गया है कि देश को दिल्ली-मुम्बई के आदेशों पर ही न छोड़ दें।
आदिवासी क्षेत्रों में कुछ उपलब्धियाँ हुई हैं। स्वशासन का केन्द्रीय कानून गांधी की राह की ओर एक कदम है। हमें ‘गांव गणराज्य‘ की स्थापना करनी है। इसके लिए गैर आदिवासी क्षेत्रों में विशेष व्यवस्था करनी होगी। वहां व्यवस्था कुछ के लिए (दलितभाई के लिए) एकता की भी प्रतीक है। अतः समाज को एक करना, इकट्ठा करना पहला काम है। इसमें शराब आदि बाधक हैं, वैसे भी ये पूंजीवादी अस्त्र हैं। चीन का युद्ध अफीम के लिए हुआ था। शराब की लड़ाई ग्रामस्वराज्य की पहली लड़ाई है। शराब का नियंत्रण सरकार नहीं कर सकती। यह काम केवल राज्य के भरोसे पर नहीं छोड़ा जा सकता। हमें गांधीवादी रीति से समाज विरोधी कानूनों को तोड़ना होगा। इसकी शुरूआत हो गयी है। सब साथ होकर चलें तो जल्दी होगा। यहां से बगावत का संदेश लेकर जाएं। (सप्रेस)