बंदूक के साये में धान काटने को मजबूर नगड़ीवासी
यहां यह बताते चलें कि झारखण्ड सरकार, राज्य के विकास एवं जनहित के नाम पर भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के विभिन्न धाराओं का हवाला देते हुए नगड़ी मौजा के आदिवासियों की 227 एकड़ जमीन गैर-कानूनी तरीके से बंदू के बल पर जबरदस्ती उनसे छिनने की कोशिश कर रही है और आदिवासी किसान अपनी जमीन बचाने के लिए पिछले एक वर्ष से संघर्ष कर रहे हैं क्योंकि ‘रूल ऑफ लॉ’ के अनुसार यह जमीन उनकी है। उनके पास जमीन का खतियान, पट्टा एवं रसीद है। वे जमीन का लगान चुकाते हैं और जमीन पर उनका कब्जा भी है। लेकिन ‘रूल ऑफ लॉ’ को लागू करने वाले ही यहां ‘माईट ऑफ लॉ’ का शासन चला रहे हैं। ‘रूल ऑफ लॉ’ कहता है कि नगड़ी की जमीन को विकास के नाम पर भी सिर्फ छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम की धारा-50 के तहत ही अधिगृहित किया जा सकता है क्योंकि यहां भूमि अधिग्रहण कानून 1894 मान्य नहीं होगा। सुप्रीम कोर्ट का व्यवस्था है कि जहां विशेष कानून होगा वहां समान्य कानून लागू नहीं होंगे। इस स्थिति में छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम विशेष कानून है एवं भूमि अधिग्रहण एक सामान्य कानून हैं। इसके साथ यहां पांचवी अनुसूची एवं पेसा कानून 1996 के प्रावधान भी लागू हैं। ये किसान विकास विरोधी भी नहीं हैं उनका कहना है कि शिक्षण संस्थानों को बंजर भूमि में बनाया जाना चाहिए क्योंकि यह जमीन उनके आजीविका का एकमात्र स्रोत्र है। लेकिन झारखण्ड सरकार किसानों की एक भी बात सुनने को तैयार नहीं है इसलिए रणभूमि पर रण जारी है।
इसी बीच सरकार ने आंदोलन के एक बड़े नेेता दयामनी बारला को जेल में डाल दिया ताकि आंदोलन ढंठा पड़ जाएगा, जिससे जमीन छिनने में असानी हो जाएगी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 1 नवंबर, 2012 को ग्रामीणों ने फिर से सरकार द्वारा निर्मित चारदिवासी पर हमला कर अपना इरादा बता दिया। अपने खेतों में धान रोपने के बाद किसान लगातार आंदोलन करते रहे और पता भी नहीं चला कि उनका धान पक गया है। जिस खेत को सरकार ने अदालन के सामने बंजर कहा था उसी खेत में धान की लहलहाती फसल ‘रूल ऑफ लॉ’, मानवाधिकार एवं सामाजिक न्याय पर विश्वास करने वालों को यह बता रही है कि सरकार एवं अदालत किस तरह से झूठ के बुनियाद पर उनकी जमीन छिनने पर तुले हुए हैं। अब फसल तैयार है इसलिए किसान उसे काटकर अपने खलिहान में ले जाना चाहते थे। लेकिन जब वे फसल काटने के लिए हंसुआ लेकर अपने खेतों पर पहुंचे, बंदूकधारी सुरक्षा बलों ने उन्हें धान काटने से मना कर दिया। कहा कि यह सरकार की जमीन है इसलिए उन्हें धान काटने नहीं दिया जाएगा। इस पर रैयतों को काफी गुस्सा आया लेकिन वे अपना आंसू पीकर लौट गए। उसके बाद उन्होंने तय किया कि वे आंदोलन के रूप में धान काटने जाएंगे और यह बात उन्होंने चारो तरफ फैला दिया। आपने कभी सुना की किसान को अपने खेत में हल चलाने, धान रोपने और धान काटने के लिए भी आंदोलन करना पड़ता है? नगड़ी में पिछले कई महिनों से यही ही रहा है? अब कोई हमें यह बतायेगा कि हम इस महान लोकतंत्र में जीने पर गर्व करें या शर्म से माथा टेक लें? हमारे पूवर्जों ने हमें यही सिखाया है कि अगर हमें जिन्दा रहना है तो हमारे पास आंदोलन के अलावा दूसरा रास्ता नहीं है।
तयशुदा योजना के मुताबिक 21 नवंबर, 2012 को महिला, पुरूष और बच्चे एक साथ अपने खेतों में पहुंचे। सरकार ने पहले से बंदूकधारी सुरक्षा बलों के साथ दण्डाधिकारी को लगा कर रखा था। मीडिया के लोग भी भारी संख्या में वहां पहुंच गए। किसान और पुलिस के बीच झड़प होने की स्थिति को देखकर दण्डाधिकारी ने किसानों को धान काटने दिया। उन्होंने कहा कि किसान धान काट लें लेकिन थाना प्रभारी के बिना अनुमति वे धान नहीं ले जा सकते हैं क्योंकि उन्हें ही इसे देख-रेख करने की जिम्मेवारी दी गई है। हम लोग भी ग्रामीणों के बुलाने पर उन्हें मद्द करने गए थे इसलिए धान काटने में व्यस्त थे। समय बीतता गया और किसान धान का बोझा बनाकर ढ़ोना शुरू किये। वहां पर उपस्थित दण्डाधिकारी इधर-उधर दौड़ने लगे और बंदूकधारी सुरक्षाकर्मी भी किसानों को रोकने लगे और वहां बखेड़ा शुरू हुआ। मीडियाकर्मियों का कैमरा भी बार-बार बिजली की तरह चकने लगा और किसानों का आवाज भी और बुलंद होता गया।
इसी बीच पुलिस ने धान का बोझा ढ़ोकर ले जा रहे एक किसान को रोक दिया, जिससे देखकर महिला किसान शीला टोप्पो हाथ में हंसुआ लिए दौड़ पड़ी और किसान को धान ले जाने से मना कर रहे सुरक्षा बलों पर टूट पड़ी और रोकने का कारण पूछा। उस पर दण्डाधिकारी ने उसे जवाब दिया कि आपलोग धान काट सकते हैं लेकिन इसे घर ले जाने से पहले कांके के थाना प्रभारी से अनुमति लेना होगा। इस पर उसने दण्डाधिकारी से पूछा कि क्या थाना प्रभारी मेरे पति या ससुर हैं जिनसे मुझे अनुमति लेने की जरूरत होगी। क्योंकि धान काटने से पहले हम सिर्फ अपने पति या ससुर से ही पूछते हैं। जब खेत हमारा है, हमने धान रोपा है तो आप कौन हैं हमें राकने वाले? शीला के तेवर ने दण्डाधिकारी एवं बंदूकधारियों को शांत कर दिया। इसके बाद महिलाएं धान का बोझा आपने सिर पर ढोकर अपने गांव की ओर निकल पड़ी।
इस ढंठे मौसाम में भी आज नगड़ी में अजब की गर्माहट थी। आंदोलनकारी धान काट रहे थे और बीच-बीच में आवाज आ रही थी कि अगर बंदूकधारी सुरक्षाकर्मी उन्हें धान ढ़ोने से मना करते हैं तो आज यहां से ही झारखण्ड में नया उलगुलान की शुरूआत होगी। उधर नगड़ी आंदोलन के नेता विकास टोप्पो, परवीन टोप्पो एवं रमानंद टोप्पो धान भी काट रहे थे एवं चारो ओर नजर दौड़ा रहे थे कि कहीं किसानों को धान काटने से कोई रोक तो नहीं रहा है। यहां यह भी चितंनीय विषय बना कि नगड़ी में आदिवासियों की जमीन लूटने के काम में आदिवासी बंदूकधारी पुलिसकर्मियों को ही मोर्चा पर रखा गया है। पूंजीपति, नौकरशाह और बड़े-बड़े लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए आदिवासियों को आपस में लड़ाने का इससे बेहतर उदाहरण क्या हो सकता है? इस हालत को देखकर विकास टोप्पो बार-बार कह रहे थे कि अब सभी आदिवासी पुलिसकर्मियों को एक साथ नौकरी छोड़ देना चाहिए क्योंकि उन्हें अपने आदिवासी भाई-बहनों को ही प्रताड़ित करने, उनकी जमीन लूटने और उन्हें गोली मारने के काम में लगाया जाता है।
यहां गजब की स्थिति है। झारखण्ड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुण्डा ने राज्य के स्थापना दिवस के अवसर पर कहा कि किसान ही समाज एवं देश के निर्माता हैं। लेकिन उसी अर्जुन मुण्डा की सरकार को नगड़ी के आदिवासी किसानों की जमीन छिनने में शर्म नहीं आती है। इसी तरह राज्य के पथ निर्माण मंत्री सुदेश महतो ने रांची-पतरातू फोर लेन के उदघाटन के अवसर पर कहा कि वे उद्योगों को अच्छी सड़के उपलब्ध कराएंगे एवं सड़क को इंडस्ट्रियल कॉरिडोर बनाएंगे। मतलब साफ है कि झारखण्ड सरकार अब उद्योगपतियों की सरकार बन गई है। अब उन्हें जनसेवा से ज्यादा पूंजीसेवा में मुनाफा दिख रहा है। नगड़ी के किसानों को जिस तरह से बंदूक के साये में धान काटने को मजबूर किया गया जो यह दिखाता है कि अब सरकार की बंदूक पूंजीपतियों की रक्षा के लिए है एवं यहां के आदिवासी एवं मूलवासियों की कोई कीमत नहीं है। नगड़ी हमें यह सोचने को भी मजबूर कर रहा है कि यहां जमीन बचाना सिर्फ आदिवासियों के आजीविका को बचाना मात्र नहीं है लेकिन इसका वास्ता राज्य के लिए अनाज उगाने से भी है। झारखण्ड में मात्र 38 प्रतिशत खेती योग्य जमीन है जिसमें 18 प्रतिशत सिंचित हैं लेकिन सिर्फ 7 प्रतिशत सिंचित जमीन पर ही सिंचाई होती है। राज्य में नगड़ी की जमीन की तरह उपजाउ जमीन का अभाव है ऐसी स्थिति में इस जमीन पर शिक्षण संस्थान खड़ा करना कहां की बुद्धिमानी है?
लोग बार-बार सवाल पूछते हैं कि झारखण्ड के आदिवासियों को आदिवासी मुख्यमंत्री के शासनकाल में न्याय क्यों नहीं मिल रहा है? लेकिन वे लोग यह भूल जाते हैं कि मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आदिवासी जरूर बैठा है लेकिन शासन दिल्ली एवं नागपुर से चलता है। राज्य का इतिहास है कि यहां अबतक शासन पटना, दिल्ली और नागपुर से ही चलता रहा है। इस उपनिवेशी शासन से मुक्ति के बगैर आदिवासियों को कभी न्याय नहीं मिलेगा। उपनिवेशी शासक एक आदिवासी को दूसरे आदिवासी के खिलाफ खड़ा कर रहे हैं क्योंकि उनके जल, जंगल, जमीन, खनिज और आजीविका के अन्य संसाधनों को लूटने का इसे अच्छा तरीका और कुछ नहीं हो सकता है। नगड़ी ने हमें यह सीखा दिया है और नगड़ी का उलगुलान हमें बचने का उपाय भी बता रहा है अब हमें तय करना है कि किस रास्ता में कदम रखना उचित होगा।
– ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और नगड़ी आंदोलन से जुड़े हुए हैं।