छत्तीसगढ़ महतारी की नीलामी का राज्योत्सव
महामहिम राष्ट्रपति ने कल शाम छत्तीसगढ़ की नयी राजधानी नया रायपुर में बने राज्य के नये मंत्रालय भवन और विभागाध्यक्ष भवन का लोकार्पण किया और इसी के साथ राज्योत्सव का समापन हो गया। यहां सब कुछ नया था, शानदार और शंहशाही था। हां, इस जादुई मेले के बाहर सब कुछ ज़रूर वही पुराना था- भुखमरी और ग़रीबी का नज़ारा, कल्याणकारी सरकर की ज़्यादतियों और बेदिली के शर्मनाक़ क़िस्से, उसके झूठे वायदे और तरक़्क़ी के फ़र्ज़ी आंकड़े, बेबस और उदास चेहरे, छावनियों में तब्दील हो गये इलाक़े, यहां-वहां ख़ौफ़ और दहशत से तरबतर मरघटी ख़ामोशी, जम्हूरियत और इंसानियत के उड़ते परखचे और हां, इंसाफ़ मांगती और लगातार तेज़ होती आवाज़ें भी। राज्योत्सव के बहाने पेश है आदियोग का यह आलेख;
देश की सबसे बड़ी अदालत के कड़ा रूख़ अख़्तियार करने के बाद ही राज्य सरकार ने उसको दी जा रही आर्थिक और हथियारों की सहायता रोकी। भले ही पंजा और कमल के बीच कुश्ती का माहौल दिखता हो लेकिन सलवा जुडुम के मामले ने भी साफ़ कर दिया कि माओवाद के सफ़ाये को लेकर देश के इन दोनों प्रमुख विपक्षी दलों के बीच कमाल की एकता है। इसलिए कि दोनों ही दल सबसे पहले उद्योगों के तरफ़दार हैं। उनके लिए देश और देश की जनता उसके बाद है।
सलवा जुडुम की पैदाइश से लेकर उसके परवान चढ़ने तक के दौर में छत्तीसगढ़ के पुलिस प्रमुख थे विश्वरंजन। वे इस पर इतराते रहे हैं कि साहित्य उनके खू़न में रहा है। वे उर्दू के जानेमाने शायर उन फ़िराक़ गोरखपुरी के पौत्र हैं जिन्हें नेहरु बहुत मानते थे और फ़िराक़ साहब सरेआम उनसे भी चुटकी लेने में नहीं हिचकिचाते थे। जो फ़िराक़ साहब को महज़ हुस्नो-इश्क़ के शायर के बतौर जानते हैं, शायद उन्होंने फ़िराक़ साहब के काव्य संग्रह ‘धरती की करवट’ को नहीं पढ़ा जिसमें रोटियां, क़ैदी, जागते रहो, माज़ीपरस्त, नयी चेतना जैसी नज़्में शामिल हैं और जो लयताल की खू़बसूरती के साथ ज़ालिम निजाम से बग़ावत करने का पैग़ाम देती हैं। फ़िराक़ साहब को अपनी धारदार नज़्मों के कारण आज़ादी से पहले जेल की हवा खानी पड़ी थी। आज ज़िंदा होते और लिख रहे होते तो जेल में ही होते। विश्वरंजन अपने पितामह से बहुत हट के हैं।
बहरहाल, इन्हीं में दास्ताने आदम नाम की उनकी मशहूर लंबी नज़्म के इस पहले बंद को यहां पेश करना मुनासिब होगा।
क़ुर्नो के मिटाने से मिटे हैं, न मिटेंगे
आफ़ाते-ज़माना से झुके हैं, न झुकेंगे
उभरे तो दबाने से दबे हैं, न दबेंगे
हम मौत के भी मारे मरे हैं, न मरेंगे
हम ज़िंदा थे, हम ज़िंदा हैं, ज़िंदा रहेंगे।
(क़ुर्न का मतलब है युग)