श्रम शक्ति की लूट के बग़ैर कोई मुनाफ़ा मुमकिन नहीं
खदानों से खनिज कौन निकालता है, उस खनिज को माल में कौन बदलता है, उसे देश के कोने-कोने तक कौन पहुंचाता है और उसे दुकानों से बेचने का काम कौन करता है? जाहिर है कि यह सब कुछ मजदूर ही करता है, उसे हम कर्मचारी भी कह सकते हैं। देश में आज इस मजदूर जनता की क्या स्थिति है? हर तरफ सिर्फ ठेका मजदूर या संविदा कर्मचारी। सारे काम बदस्तूर चल रहे हैं, पिछले 25 वर्षों में उनकी गति और तेज हुई है। लेकिन इसी दौरान एक बुनियादी बदलाव यह हुआ है कि हर जगह स्थाई मजदूर को ठेका मजदूर में बदलने के काम को केंद्र और राज्य सरकारों ने हरी झंडी दे दी। ठेका मजदूर का अर्थ क्या है? जितने वेतन में आप स्थाई मजदूर रखेंगे, उतने में ही कम से कम पांच ठेका मजदूर पा जायेंगे जिन्हें वे सुविधाएं देने की भी विवशता नहीं होगी, जो स्थाई मजदूर को देनी पड़ती है। ये आधुनिक युग के गुलाम हैं- जब तक चाहो, इनसे काम लो और जब चाहो, सड़क पर फेंक दो।
अब यदि मालिक को एक आदमी के वेतन पर पांच आदमी की श्रमशक्ति मिल जायेगी, काम के घंटों को मनमाने तरीके से बढ़ाने पर कोई रोक नहीं होगी, रात की पाली में काम करवाने पर कोई अतिरिक्त भुगतान नहीं करना होगा तो लाभ कितना गुना बढ़ जायेगा- इसका कोई हिसाब है?
इस दौरान देश के अमीरों की पूंजी में जो बेतहाशा वृद्धि हुई है जिसका एक हिस्सा वे घूस देने में और बड़ा हिस्सा प्राकृतिक संसाधनों को खरीदने में खर्च करते हैं, वह आखिर आई कहां से? अर्थशास्त्र तो यह बताता है कि हर पूंजी संचित श्रम होती है। यह संचित श्रम जिंदा श्रम को चूस कर अपना विस्तार करता है। कोई औजार, कोई मशीन, कोई कच्चा माल क्या जिंदा श्रम को उपयोग में लाये बिना नया मूल्य या मुनाफा पैदा कर सकता है? यदि मशीनें नया मूल्य पैदा कर सकतीं या कच्चा माल अपने आप मूल्य बन जाता तो आदमी की जरूरत ही खत्म हो चुकी होती। इसके उलट जितनी आधुनिक मशीन होगी, उतना ही अधिक उसे लगातार जीवित श्रम की आवश्यकता होगी ताकि मशीन पर हुआ खर्च जल्द से जल्द नया मूल्य पैदा करके वापस मिल सके। इसमें हुई थोड़ी भी देरी मालिक को दिवालिया बना सकती है।
हमें यह समझना होगा कि सारी लूट, भ्रष्टाचार और विस्थापन का प्रस्थान बिंदु सस्ते श्रम का दोहन और उसका लक्ष्य और अधिक सस्ते श्रम का दोहन है। यही पूंजी के पैदा होने और बढ़ने की प्रक्रिया है। यदि भ्रष्टाचार और लूटपाट को हम सस्ते श्रम और लगातार बढ़ती मजदूरों की बदहाली से काट कर देखेंगे तो हम समस्याओं के समाधान के बारे में किसी व्यावहारिक नतीजे तक नहीं पहुंचेंगे। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश राज्य परिवहन निगम में करीब 50 हजार कर्मचारी हैं। इनमें 30 हजार ड्राइवर और कंडक्टर हैं। ये सभी संविदाकर्मी हैं जो प्रतिमाह चार-पांच हजार रूपये पाते हैं। परिवहन निगम भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा अड्डा है। खरीद-फरोख्त में बड़े पैमाने पर कमीशनबाजी होती है, करोड़ों का कमीशन ऊपर से नीचे तक बंटता है। आखिर निगम के पास इतना पैसा कहां से आता है जो भ्रष्टाचार में बंटता है? जाहिर है कि 30 हजार संविदाकर्मियों के बेहद सस्ते श्रम से। अगर उन्हें श्रम का उचित मूल्य देना पड़े तो क्या भ्रष्टाचार के लिए पैसा बचेगा? छत्तीसगढ़ के संदर्भ में इसे बखूबी समझा जा सकता है जहां उद्योगों से लेकर सरकारी कामकाज तक में ठेका मजदूरी चरम पर पहुंच रही है।
कहने का मतलब यह है कि बुनियादी लड़ाई पूंजी और श्रम के बीच है। हर वो आंदोलन जो किसी नतीजे तक पहुंचना चाहता है, उसे इस सच्चाई को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। इसके साथ ही मजदूर संगठनों का भी यह कार्यभार बनता है कि वे खुद को देश में चलनेवाले तमाम आंदोलनों के प्रश्नों से जोड़ें। समझें कि आज पूरी की पूरी मजदूर जनता हर प्रकार के अधिकारों से वंचित करके गुलामों की श्रेणी में ढकेल दी गयी है और इस गुलामी की नींव पर पूरी वित्तीय पूंजी और उससे जुड़ी लूटपाट और भ्रष्टाचार का महल खड़ा हुआ है। मजदूर वर्ग के लिए आर्थिक सवालों पर लड़ना जरूरी है लेकिन यह महल तभी गिरेगा जब उसकी नींव हिलनी शुरू होगी। यह एक राजनैतिक लड़ाई है जो पूरी मजदूर जनता की मुक्ति और पूरी मानवता की मुक्ति के सवाल से जुड़ी है।
जन आंदोलनों और मजदूर आंदोलनों को एक-दूसरे से अलग रखने की राजनीति मौजूदा सत्ता की सेवा करती है और दोनों को जोड़ कर आगे बढ़ने की राजनीति पूरी मानवता की मुक्ति की ओर बढ़ती है।
(लेखक आपात काल के दौर से जन आंदोलनों के मोर्चे पर हैं और इंडियन वर्कर्स कौंसिल के सक्रिय कार्यकर्ता हैं)