क्या न्यायपालिका आदिवासी विरोधी है?
15 जुलाई, 2012 को रिमझिम बारिस के बीच, सरकार के फरमान पर अपनी जमीन बचाने के लिए नगड़ी गांव के रैयत रांची के कांके स्थित बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के सभागार में विराजमान हुए। यह विश्व विद्यालय भी उन्ही के बापदादो से जमीन छिनकर बनायी गयी है। सरकार अब उनका बचाखूचा जमीन भी विकास के नाम पर लूट कर उन्हें भूमिहीन, बेघर और लाचार बनाने पर तुली हुई है, जिसका वे लगातार विरोध कर रहे हैं। नगड़ी मामले को सुलझाने के लिए झारखण्ड के मुख्यमंत्री द्वारा गठित ‘‘उच्च स्तरीय समिति’’ के समक्ष नगड़ी के आदिवासियों ने एक-एक कर कहा कि वे अपनी जमीन किसी भी कीमत पर सरकार को नहीं देंगे। इसलिए बंदूक के बल पर सरकार द्वारा कब्जा की गई उनकी जमीन को उन्हें वापस दी जानी चाहिए। ग्रामीण और आंदोलन के समर्थन में खड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं की बात सुनने के बाद समिति के अध्यक्ष मथुरा महतो ने उन्हें अश्वस्त करते हुए कहा कि उनकी समिति ग्रामीणों के हित में ही फैसला लेगी। लेकिन उनके बातों को सुनने के बाद भी ग्रामीणों में असंतोष रहा और वे नारा लगाते हुए सभागार से निकले एवं अपने खेतों में काम शुरू कर दिया।
नगड़ी के रैयतों ने अपनी जमीन को बचाने के लिए लोकतंत्र के प्रत्येक दरवाजा को खटखटाने का प्रयास किया है, लेकिन अबतक निराशा ही उनके हाथ लगा है। विगत जनवरी महिने में जब सरकार ने बन्दूक के बल पर ग्रामीणों का जमीन हड़प लिया और उनके फसल को भी तहस-नहस कर दिया तब ग्रामीणों ने न्यायालय का भी दरवाजा खटखटाया लेकिन वहां भी उन्हें नहीं सुना गया। सबसे पहले उन्होंने अपनी जमीन पर आई.आई.एम., आई.आई.आई.टी. एवं लॉ यूनिवर्सिटी के लिए खड़ा किया जा रहा चारदिवारी निर्माण पर रोक लगाने के लिए झारखण्ड उच्च न्यायालय में अर्जी दाखिल किया था, जिससे उच्च न्यायालय ने 26 अप्रैल 2012 को खारिज कर दिया। दूसरी तरफ बार एसोसिएशन द्वारा लॉ यूनिवर्सिटि का निर्माण कार्य जल्द पूरा कराने हेतु दायर जनहित याचिका पर 30 अप्रैल 2012 को सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय ने झारखण्ड सरकार को 48 घंटे के अंदर जमीन पर निर्माण कार्य शुरू करने का आदेश दिया। इसके बाद अंतिम आस लगाये हुए नगड़ी के रैयत देश के सर्वोच्च न्यायालय में न्याय मांगने गये लेकिन वहां भी उन्हें दुतकार ही मिला। 28 जून 2012 को सुनवाई के दौरान रैयतों के मामले को सुनने के बजाये, सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश एच.एस. गोखले एवं न्यायाधीश रंजना प्रकाश देसाई ने मामले को सुनने से इनकार करते हुए केस का फाइल ही फंेक दिया।
चूंकि संविधान के पांचवी अनुसूची के तहत राज्यपाल को विशेष अधिकार प्राप्त हैं। इसलिए कई बार नगड़ी के रैयतों ने झारखण्ड के राज्यपाल से मामले पर हस्तक्षेप करने की मांग की पर उन्होंने रैयतों की एक भी नहीं सुनी। इधर सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय एवं झारखण्ड सरकार के जन विरोधी रवैया को देखते हुए ग्रामीणों का आक्रोश सिर चढ़कर बोलने लगा। ग्रामीणों ने ठान लिया कि किसी भी कीमत पर सरकार को जमीन नहीं देंगे। चाहे इसके लिए क्यों न उनका जान ही चला जाये। उनका कहना था कि अब जीने से भी फायदा क्या है जब जीने का एकमात्र जड़िया जमीन ही नहीं बचेगा।
4 जुलाई 2012 को ग्रामीणों ने आई.आई.एम. का दिवाल तोड़ दिया। फलस्वरूप, ग्रामीण और पुलिस के बीच झड़प हुई और नगड़ी रणक्षेत्र बन गया। पुलिस ने ग्रामीणों पर लाठी बरसाया, जिसमें डूभन टोप्पो, दुःखनी टोप्पो, जम्मी टोप्पो एवं बंधनी टोप्पो गंभीर रूप से घायल हो गये। पुलिस ने सैकड़ों लोगों के खिलाफ पुलिस पर हमला करने एवं सरकारी सम्पति को नष्ट करने के आरोप में मुकदमा दर्ज किया तथा रामा तिर्की, छोटू टोप्पो, जम्मी टोप्पो एवं बंधनी टोप्पो हिरासत में ले कर जेल भेज दिया। पुलिस बर्बरता ने राज्य में और ज्यादा जनाक्रोश पैदा कर दिया। ग्रामीणों ने पुलिस बर्बरता के खिलाफ नगड़ी गांव के पास अनिश्चित काल के लिए सड़क जाम कर दिया। वहीं कई जनसंगठन, राजनीति दल एवं बुद्धिजीवी भी सड़क पर उतर गये। ग्रामीण स्टेयररिंग कमेटी के अध्यक्ष शिबू सोरेन के पास भी गये। उन्होंने ग्रामीणों को साथ देने का वचन दिया, जिससे आंदोलन में मानो असमय वर्षा हो गई। फलस्वरूप, ऐसी स्थिति बन गयी कि सरकार के लिए इसे संभलना मुश्किल हो गया।
जनाक्रोश को देखते हुए उच्च न्यायालय के व्यवहार में भी नरमी आयी। 10 जुलाई 2012 को उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को ग्रामीणों के साथ मिलकर इस मामले में एक सप्ताह के अंदर हल निकालने का आदेश दिया। इसी आदेश के आधार पर झारखण्ड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुण्डा ने एक उच्च स्तरीय कमेटी का गठन भू-राजस्व मंत्री मथुरा महतो की अध्यक्षता में बनायी गयी, जिसमें भू-राजस्व सचिव एन.एन. पांडे, वित्त सचिव सुखदेव सिंह, आयुक्त दक्षिणी छोटानागपुर सुरेन्द्र सिंह और रांची के उपायुक्त विनय चौबे को शामिल किया गया। समिति ने 14 जुलाई 2012 को ए.टी.आई. में बैठक रखा जिसको ग्रामीणों ने विरोध किया था। फलस्वरूप, समिति गांव में नजदीक बी.ए.यू. में दूसरी बैठक की।
दूसरी ओर 16 जुलाई 2012 को झारखण्ड उच्च न्यायालय का इस मामले में पांचवा आदेश आया जिसमें न्यायालय ने सरकार से कई सवाल पूछा ह,ै जैसे – सरकार यह बताये कि क्या यहां कानून का राज चलेगा या सड़क पर फैसले होंगे? क्या पूरे झारखण्ड में सिर्फ नगड़ी में ही खेती की जमीन बची है? अगर सरकार नगड़ी के ग्रामीणों को उनकी जमीन वापस करती है तो क्या वह पिछले 60 वर्षों में विभिन्न परियोजनाओं के लिए अधिग्रहीत किये गये खेती की जमीन किसानों को लौटा देगा? उच्च न्यायालय ने सात पन्नों के आदेश में ऐसी बातें कही हैं, जिससे स्पष्ट है कि अदालत एक पक्षीय है और नगड़ी की जमीन को किसी भी कीमत पर छिनने के पक्ष में है। झारखण्ड में अबतक लोग यहां की विधायिका और कार्यपालिका पर हल्ला बोलते रहे हैं लेकिन अब वे न्यायपालिका की कार्यशैली पर भी उंगली उठा रहे हैं, जो निश्चित तौर पर लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। क्या न्यायपालिका भी आदिवासी विरोधी है? इस प्रश्न का जवाब निश्चित रूप से ढूढ़ा जाना चाहिए। झारखण्ड उच्च न्यायालय की चटुकारिता, रवैया और आदेशों का विश्लेषण करने से स्पष्ट जवाब मिलता है कि न्यायालय आदिवासी, रैयत और गरीब विरोधी हो गया है।
इसमें सबसे पहले यहां यह समझ लेना जरूरी होगा की नगड़ी का मामला क्या है। झारखण्ड की राजधानी रांची से सटे कांके थानान्तर्गत एक आदिवासी बहुल गांव है जिसका नाम नगड़ी। इस गांव की 227 एकड़ जमीन को राज्य सरकार ने बंदूक के बल पर छिनकर नेशनल लॉ यूनिवर्सिटि, आई.आई.आई.टी एवं आई.आई.एम. बनाने की तैयारी शुरू कर दी है। सरकार ने 23 नवंबर 2011 से अर्द्धसैनिक बल लगाकर जमीन को कब्जा करना प्रारंभ किया एवं जमीन का ज्यादातर हिस्सा में दिवाल खड़ा कर दिया है। सरकार यह दलील देती है कि यह जमीन 1957-58 में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के विस्तारीकरण एवं सीड बैंक के लिए अधिग्रहित की गई थी। हकीकत यह है कि उस समय भी आदिवासियों ने भारी विरोध किया था एवं 153 में से 128 रैयतों ने मुआवजा नहीं लिया। जिन 25 किसानों ने मुआवजा लिया वे एक विशेष समुदाय से आते हैं। 128 आदिवासी रैयतों द्वारा मुआवजा राशि 133732 रूपये ठुकराने पर उस राशि को सरकार ने रांची कोषागार में जमा कर दिया। नगड़ी की जमीन अभी भी वहां के ग्रामीणों के कब्जे में हैं। वे उसपर खेती करते हैं, जमीन का जमाबंदी भी देते हैं एवं जमीन पर दावा करने के लिए सभी तरह के जरूरी दस्तावेज उनके पास है। लेकिन सरकार गैर-कानूनी एवं जबरदस्ती उनकी जमीन छिन रही है, जिसका वे लगातार विरोध कर रहे हैं।
रैयतों के विरोध के कारण निर्माण कार्य में हो रही देरी को देखते हुए ‘‘बार एसोसिएशन’’ (झारखण्ड उच्च न्यायालय, रांची) ने 3 मई 2012 को इस मामले में झारखण्ड उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर किया। इसमें सबसे बड़ा सवाल यह है कि नेशनल लॉ यूनिवसिटि के बदले बार एसोसिएशन ने मामला क्यों दर्ज किया? क्या नेशनल लॉ यूनिवसिटि मामला दर्ज कराने में अक्षम था या कानूनी बध्यताएं थी? नेशनल यूनिवर्सिटि फॉर रिसर्च एण्ड स्टडीज ऑन लॉ, रांची एक्ट 2010 में स्पष्ट रूप से लिखा हुआ है कि लॉ यूनिवर्सिटि का कुलपति झारखण्ड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश होंगे। इसका अर्थ यह हुआ की जो भी न्यायाधीश झारखण्ड उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश होगें वे स्वतः ही लॉ यूनिवर्सिटी के कुलपति भी होंगे। जब लॉ यूनिवर्सिटी का उदघाटन 2010 में किया गया था तब उस समय झारखण्ड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ज्ञानसुधा मिश्र थी और वे लॉ यूनिवर्सिटी की पहली कुलपति बनी थी। उनके जाने के बाद न्यायाधीश भगवती प्रसाद ने उनका जगह लिया। वे उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और लॉ यूनिवर्सिटी के कुलपति भी बने।
वर्तमान में झारखण्ड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश प्रकाश टाटिया हैं, जो नगड़ी मामले की भी सुनवाई कर रहे हैं। ऐसी स्थिति में अगर लॉ यूनिवर्सिटी इस मामले में सीधे मुकदमा करता तो वे इस पर सुनवाई नहीं कर सकते थे क्योंकि इसमें मुख्य न्यायाधीश सीधे तौर पर सवालों के घेरे में आ जाते इसलिए लॉ यूनिवर्सिटि ने मामले को स्वंय न उठाकर इसे बार एसोसिएशन के हवाले कर दिया गया। चाहे कुछ भी हो झारखण्ड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और लॉ यूनिवर्सिटी के कुलपति प्रकाश टाटिया अपनी रणनीति में अबतक सफल रहे और इस मामले की सुनवाई करते रहे है। इसमें सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या उन्हें इस मामले में सुनवाई करने का कानूनी एवं नैतिक अधिकार होना चाहिए? क्योंकि बार एसोसिएशन का मामला लॉ यूनिवर्सिटी के जमीन से संबंधित है और वे यूनिवर्सिटी के कुलपति हैं। क्या यह ‘हित के टकराव’ (कॉनफ्लिक्ट ऑफ इंट्रेस्ट’) का मामला नहीं है? क्या शेर और मेमना के बीच चल रहे मुकदमा में शेर को फैसला सुनाने की इजाजत दी जा सकती है? अगर यह इजाजत दी जायेगी तो शेर किसके हक में फैसला लेगा? क्या शेर से यह अपेक्षा किया जाये कि वह अपने फैसला में कहेगा कि मेमना को हरयाली घास चरने दिया जाये क्योंकि यह उनके पूर्वजों का इलाका है? क्या एक संवैधानिक पद पर बैठा हुआ व्यक्ति, जिससे न्यायमूर्ति की उपाधि से नवाजा जाता है अपने पद एवं शक्ति का दुरूपयोग कर न्यायपालिका का इस तरह मजाक बना सकता है?
झारखण्ड उच्च न्यायालय ने नगड़ी के मामले में सुनवाई करते हुए जो आदेश दिया है उसे स्पष्ट हो जाता है कि न्यायपालिका आदिवासियों के मामलों में पूर्वाग्रह से ग्रासित है। यहां उच्च न्यायालय के कुछ ठोस आदेशों का विश्लेषण करना जरूरी होगा। 16 जुलाई 2012 को दिये गये आदेश में उच्च न्यायालय ने झारखण्ड सरकार पूछा है कि क्या राज्य में कानून का राज चलेगा या फैसले सड़क पर होंगे? नगड़ी के किसानों के पास अपनी जमीन का खतियान, पट्टा एवं रसीद उपलब्ध है। वे वर्ष 2011 तक जमीन का लगान सरकार को चुकाते रहे हैं और जमीन पर उनका कब्जा है। इतना ही नहीं कुछ किसानों ने दूसरों को भी जमीन बेचा है और उनके नाम पर भी कांके प्रखण्ड के अंचलाधिकारी द्वारा जमीन की बंदोबस्ती कर दी गई है। दूसरी तरफ राज्य सरकार के पास 1957-58 में जमीन अधिग्रहण का कोई कानूनी दस्तावेज प्रमाण के रूप में उपलब्ध नहीं है। इसके साथ ही रिंग रोड निर्माण के लिए एन.ओ.सी. देने के मामले में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय ने स्पष्ट रूप से यह कहा कि नगड़ी का जमीन उनका नहीं है इसलिए वे एन.ओ.सी. नहीं दे सकते हैं। इसका अर्थ यह है कि सरकार द्वारा नगड़ी की जमीन का अधिग्रहण ही नहीं किया गया है और सरकार गैर-कानूनी तरीके से लोगों का जमीन बंदूक के बल पर छिन रही है और न्यायालय ने भी देश संविधान (पांचवीं अनुसूची), कानून (सी.एन.टी. एक्ट) एवं विगत 60 वर्षों से उपलब्ध दस्तावेजों के आधार पर भी रैयतों को न्याय नहीं दिया। तो स्वभावित है कि लोग अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सड़क पर उतरेंगे और फैसला भी वहीं होगा।
झारखण्ड उच्च न्यायालय ने इस मामले में भूमि अधिग्रहण कानून का गलत व्याख्या करते हुए बन्दूक के बल पर सरकार द्वारा रैयतों की जमीन को हड़ने को सही ठहराया है। एक बार के लिए यह भी मान लिया जाये कि जमीन का अधिग्रहण 1957-58 में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के लिए किया गया। ऐसी स्थिति में भी यह जमीन भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा 17 (4) के तहत अपातकाल की स्थिति से निपटने के उद्देश्य से लिया था लेकिन जमीन का उपयोग 60 वर्षो तक नहीं किया इसका मतलब यह हुआ कि सरकार ने रैयतों को ठगने का काम किया। उस समय सरकार के पास कोई आपतकाल की स्थिति नहीं थी। क्या विश्वविद्यालय का विस्तरिकरण कोई आपतकाल की स्थिति में की जाती है? भूमि अधिग्रहण कानून यह भी कहता है कि जमीन का उपयोग नहीं होने कि स्थिति में जमीन का रैयतों को लौटा देना चाहिए। इसी तरह भूमि अधिग्रहण ऑडिनेंश 1967 के अनुसार अधिग्रहित जमीन का उपयोग दूसरे उद्देश्य कि लिए नहीं किया जा सकता है। एच.ई.सी. के मामले में रांची के उपायुक्त ने 1991 में इसी संदर्भ में भूमि सुधार आयुक्त को लिखा कि एच.ई.सी. गैर-कानूनी तरीके से अपनी जमीन दूसरे संस्थानों को दे रही है जो गैर-कानूनी है और एच.ई.सी. के खिलाफ कार्रवाई किया जाना चाहिए। चूंकि जब नगड़ी का जमीन अधिग्रहण किया गया था उस समय यह क्षेत्र बिहार राज्य में आता था। ऐसी स्थिति में बिहार भूमि सुधार कानून 1950 के तहत अगर सरकार किसी जमीन का अधिग्रहण करने के 50 वर्षाें के अंदर उसका उपयोग नहीं करती है तो वह जमीन स्वतः मूल रैयतों का होगा। सरकार ने अपने कृषि नीति में भी स्पष्ट रूप से कहा है कि कृषि योग्य भूमि का गैर-कृषि कार्यों के लिए उपयोग नहीं किया जायेगा। नगड़ी की जमीन शुद्ध रूप से कृषि भूमि है ऐसी स्थिति में सरकार अपने ही नीति का अवहेलना कर रही है। उपलब्ध दस्तावेज एवं कानून के आधार पर नगड़ी की जमीन पर मूल रैयतों का हक है बावजूद इसके न्यायालय ने सरकार के पक्ष को सही ठहराया।
झारखण्ड उच्च न्यायालय ने कहा है कि सरकार के चाहने के बाद भी नगड़ी की जमीन को नहीं लौटाया जा सकता है क्योंकि यह भूमि अधिग्रहण कानून 1894 के तहत ‘‘जनहित’’ में अधिग्रहित की गई है और यह कानून संसद द्वारा पारित कर पूरे देश में लागू किया गया है। न्यायालय का तर्क इस मामले में न्यायसंगत नहीं है। न्यायालय ने पूरे मामले में कभी भी पांचवीं अनुसूची, सी0एन0टी0 एक्ट या पेसा कानून का जिक्र तक नहीं किया। जिसे स्पष्ट है कि न्यायालय आदिवासी विरोधी है। क्या न्यायालय को इन कानूनों की जानकारी नहीं है? नगड़ी गांव पांचवीं अनुसूची के अन्तर्गत आता है, जिसके तहत राज्यपाल को यह अधिकार है कि वे संसद या विधानमंडल द्वारा पारित कानून को खारिज कर सकते हैं अगर वह कानून अनुसूचित क्षेत्र के लिए उपयुक्त नहीं है। उन्हें यह भी देखने की जिम्मेवारी दी गई है कि कही आदिवासी लोग आजीविका से बेदखल तो नहीं हो रहे हैं। इसके साथ अनुसूचित क्षेत्र में आदिवासी सलाहकार परिषद के अनुमति के बगैर एक इंच भी जमीन किसी भी विकास कार्य के लिए नहीं लिया जा सकता है। झारखण्ड में पेसा कानून 1996 लागू है। इस कानून के तहत ग्रामसभा के अनुमति के बिना कोई भी जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता है। इसी तरह छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 की धारा-50 के तहत खूंटकट्टी एवं भूईहारी जमीन का अधिग्रहण नहीं किया जा सकता है। बावजूद इसके गैर-कानूनी तरीके से तथाकथित विकास के नाम पर आदिवासियों का हजारों एकड़ जमीन सरकारी उपक्रमों एवं निजी कंपनियों द्वारा कब्जा किया गया। नगड़ी में भी भूईहारी जमीन है फिर उसका अधिग्रहण 1957-58 में किस कानून के तहत किया गया था? झारखण्ड उच्च न्यायालय ने सरकार से यह सवाल क्यों नहीं पूछा? कई मामलों में न्यायालय ने स्वतः संज्ञान लिया है लेकिन आदिवासी भूमि का गैर-कानूनी लूट पर आजतक न्यायालय मौन क्यों है?
झारखण्ड उच्च न्यायालय ने कहा है कि कुछ लोग जो खूद को ज्यादा बुद्धिमान समझते हैं और जनता का प्रतिनिधि बने हुऐ है, जिनका नगड़ी में निहित स्वार्स्थ है वे लोग यह जानते हुए लोगों को भड़का रहे है कि झारखण्ड आदिवासी बहुल क्षेत्र है तथा यहां के अधिकतर लोग अनपढ़ और गरीब हैं। न्यायालय को यह समझना चाहिए कि नगड़ी के लोग 1957 से भूमि अधिग्रहण के खिलाफ लड़ रहे हैं। नगड़ी में कई बूजुर्ग अभी भी मौजूद हैं, जो 1957-58 के आंदोलन में शामिल थे। नगड़ी के ग्रामीणी विगत 5 मार्च 2012 से लगातार 125 दिनों तक जेठ की चिलचिलाती धूप में भी अपने खेतों में बैठे रहे। वहीं पर खाना बनाया, खाया और रात गुजारी। इस दौरान लू लगने से तीन महिला – मंगरी उरांव, दशमी उरांव एवं टेबो उरांव की मौत हो गई। वे अपनी जमीन बचाने के लिए शहीद हो गए। नगड़ी के रैयत अपनी लड़ाई खूद लड़ रहे हैं और उन्हें किसी ने भ्रमित नहीं किया है। जिस दिन नगड़ी में आई.आई.आई. एम. का दिवाल तोड़ा गया उस दिन भी वहां एक भी नेता या बाहर का आंदोलनकारी मौजूद नहीं थे। अबतक के सारे निर्णय ग्रामीणों ने स्वंय लिया है। हां इतना जरूर है कि इस जनांदोलन को विभिन्न तबकों का समर्थन प्राप्त है और नगड़ी के आस-पास के 35 गांव इस आंदोलन से जुड़ गये है क्योंकि नगड़ी के बाद उनकी भी बारी है। सरकार ने ग्रेटर रांची के नाम पर उन्हें विस्थापित करने हेतु नोटिस दे दिया है। इसलिए न्यायालय को गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि ग्रामीणों को कोई गुमराह कर रहा है।
न्यायालय ने यह भी कहा है कि सरकार ग्रामीणांे को समझाये या इन प्रतिष्ठित संस्थानों को राज्य से बाहर भेजें। सरकार पर इस तरह का भवनात्मक प्रहर करने के बजाये न्यायालय को यह समझना चाहिए कि आदिवासी एवं मूलवासी लोग हमेशा विकास के पैरोकार रहे हैं। राज्य में बड़े-बड़े शिक्षण संस्थान, स्टील प्लांट, डैम, खनन परियोजना, पावर प्लांट आदिवासी एवं मूलवासियों की जमीन पर ही बनाया गया हैं। उन्हें विस्थापित होकर पलायन करना पड़ा। बावजूद इसके ये लोग विकास विरोधी नहीं है। नगड़ी के मामले में भी सरकार को विकल्प बता दिया गया है। नगड़ी के लोग आई.आई.एम., आई.आई.आई.टी. एवं लॉ यूनिवर्सिटि का विरोध नहीं कर रहे हैं, वे सिर्फ और सिर्फ कृषि भूमि के अधिग्रहण का विरोध कर रहे हैं। ग्रामीणों ने सरकार को यह भी बता दिया है कि नगड़ी गांव से 3 किलो मीटर की दूरी पर स्थित कूटे गांव में लगभग 1900 एकड़ बंजर भूमि पड़ा हुआ है, जिसपर ये शिक्षण संस्थानों को खोला जा सकता है इसके अलावा और कई जगह हैं जहां ये संस्थान चलाये जा सकते हैं। खूंटी रोड में सफायर इंटरनेशनल स्कूल एवं कई और संस्थान बंजर एवं पहाड़ी जमीन पर बनाया गया हैै तो फिर इन संस्थानों को नगड़ी की उपजाउ जमीन क्यों दिया जाना चाहिए? क्या इन प्रतिष्ठित संस्थानों का ग्रोथ सिर्फ उपजाउ जमीन में ही होगा बंजर जमीन में नहीं? सरकार एक तरफ जहां बंजर भूमि को कृषि भूमि में तब्दील करने के लिए करोड़ों रूपये खर्च करती है और वहीं दूसरे तरफ कृषि भूमि को गैर-कृषि कार्यों के लिए लगाती है। क्या यह आम जनता के पैसा की बर्बादी नहीं है? इस पर झारखण्ड उच्च न्यायालय चुप क्यों है?
झारखण्ड उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में यह भी कहा है कि नगड़ी की जमीन खेती योग्य नहीं है और खेती के उपयोग में नहीं था और रैयतों ने जो कागजाद उपलब्ध कराये हैं उसका जमीन से कोई लेना देना नहीं है। यह सरासर झूठ है। अगर नगड़ी में खेती नहीं होती थी तो क्या नगड़ी के लोग पिछले 60 वर्षों से मिट्टी खा रहे थे? न्यायालय ने यह भी कहा कि जमाबंदी प्रमाण नहीं है जमीन पर अधिकार जताने का तथा रजस्व रिकॉर्ड गलत है। रैयतों ने चुनौती नहीं दी और जिन्होंने चुनौती दी है वे भूमि अधिग्रहण के समय जन्म नहीं लिये थे इसलिए उन्हें इसके बारे में पता नहीं है। इसके साथ 60 वर्ष बाद मामला उठाना निष्कपट नहीं प्रतीत होता है। न्यायालय का उपरोक्त कथन लोगों के अधिकारों को नकारने के लिए दिया गया। न्यायालय ने कहा कि लोग गरीब हैं इसलिए सरकार 15 प्रतिशत ब्याज देने पर राजी हो गया है, जो हास्यास्पद है। भूमि अधिग्रहण कानून के तहत मुआवजा में ब्याज के रूप में प्रतिवर्ष 9 प्रतिशत देना है लेकिन न्यायालय ने नगड़ी के रैयतों को सिर्फ एक बाद 15 प्रतिशत देने को कहा जो कानून का उल्लंघन है। न्यायालय ने यह भी कहा कि अधिकतर लोगों ने मुआवजा लिया है, जो झूठ है 153 में से सिर्फ 25 लोगों ने ही 1957-58 में मुआवजा स्वीकार किया था।
झारखण्ड उच्च न्यायालय को बाहर से आकर राज्य में शिक्षा ग्रहण कर रहे विद्यार्थियों के भविष्य की खूब चिंता है। न्यायालय कहती है कि लॉ यूनिवर्सिटी का अपना कैम्पस नहीं है इसके कारण विद्यार्थियों को हॉस्टल फी ज्यादा देना पड़ रहा है जो उनके लिए बोझ है। लेकिन उसी न्यायालय को नगड़ी के आदिवासी बच्चों के आजीविका, शिक्षा और भविष्य की चिंता नहीं है। क्यों? ये बच्चे अपनी जमीन बचाने के लिए पढ़ाई छोड़कर सड़कों में उतर रहे हैं। देश का संविधान अनुच्छेद 21 सभी को जीवन जीने का अधिकार देता है। फिर न्यायालय एक पक्षीय क्यो है? क्या नगड़ी के आदिवासी बच्चे इस देश के नागरिक नहीं है? स्पष्ट है न्यायालय आदिवासी विरोधी है। सबसे हास्यास्प बाद यह है कि लॉ यूनिवर्सिटी के विजन पेपर में लिखा हुआ है कि यूनिवर्सिटी के अंदर एक संस्थान खोला जायेगा जो लोगों के अधिकार जिसमें विशेषकर आदिवासियों के अधिकारी की रक्षा हेतु वकालत की जायेगी। आदिवासियों की जमीन छिन कर, उनके आजीविका को तबह करने के बाद उनके लिए किस अधिकार की रक्षा हेतु यूनिवर्सिटी में संस्थान खोला जायेगा? आदिवासियों के जले में नमक छिड़कने का काम बन्द होना चाहिए। न्यायाधीश प्रकाश टाटिया जैसे लोगों को अगला फैसला सुनाने से पहले मुंशी प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘‘पंच परमेश्वर’’ का अध्ययन करना चाहिए ताकि वे सही पक्ष में अपना फैसला सुना सके, जिसे इस देश के न्यायव्यवस्था में लोगों का आस्था कायम रह सकती है। – ग्लैडसन डुंगडुंग
– ग्लैडसन डुंगडुंग मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं और नगड़ी आंदोलन से जुड़े हुए हैं।