भारत-जापान परमाणु समझौते के विरोध में खड़े हो रहे आदिवासी, किसान मछुआरे
जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे 11 से 13 दिसम्बर 2015 को तीन दिनों की यात्रा पर भारत आएँगे। इस दौरान उनके बनारस दौरे के तामझाम के अलावा जो मुख्य बात होनी है वह है भारत और जापान के बीच परमाणु समझौता। यह परमाणु करार पिछले कई सालों से विचाराधीन है और इसे लेकर भारत और जापान दोनों देशों में विरोध होता रहा है. इस बार शायद मोदी और आबे दोनों इस समझौते के लिए आख़िरी ज़ोर लगाएं क्योंकि दोनों की राजनीतिक पूंजी अब ढलान पर है. कुमार सुंदरम का जनपथ से साभार आलेख;
पिछली बार जब शिंजो आबे भारत आए थे, 2014 के गणतंत्र दिवस के मुख्य अतिथि बन कर, तो भारत के कई हिस्सों में उनका विरोध हुआ था. महाराष्ट्र के कोंकण में जैतापुर, गुजरात के भावनगर जिले में स्थित मीठीविर्दी और आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम इलाके में कोवाडा के किसानों-मछुआरों ने परमाणु डील का तीखा विरोध किया था, क्योंकि इससे उनकी ज़मीन, जीविका और सुरक्षा का सवाल जुड़ा हुआ है. इन आन्दोलनों के समर्थन में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता और बंगलोर जैसे शहरों में भी विरोध-प्रदर्शन हुए थे. नीचे दिए गए वीडियो में पिछले साल जंतर मंतर पर हुए प्रदर्शन में वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरणवादी प्रफुल्ल बिदवई को हिन्दी में बोलते हुए सुना जा सकता है –
https://www.youtube.com/watch?v=YW0H15L0_Uw&feature=youtu.be
पिछले साल के विरोध-पोस्टर में नारा था – श्री शिंजो आबे, आपका भारत में स्वागत है, परमाणु विनाश का नहीं!
भारत के प्रधानमंत्री मोदी की जापान यात्रा के दौरान भी प्रस्तावित परमाणु करार का तीखा विरोध हुआ. टोक्यो में परमाणु डील के विरोध में रैली हुई, हिरोशिमा-नागासाकी के बुज़ुर्गों ने विरोध दर्ज़ किया और फुकुशिमा की एक महिला युकिको ताकाहाशी ने मोदी को चिट्ठी लिखकर परमाणु दुर्घटना के चार साल बाद भी जारी अपने विस्थापन का दर्द बताया और डील करने से पहले उन्हें फुकुशिमा आकर खुद देखने की अपील की.
फुकुशिमा दुर्घटना 11 मार्च 2011 को हुई. लेकिन परमाणु दुर्घटना और किसी भी अन्य दुर्घटना में अंतर यह होता है कि परमाणु दुर्घटना शुरू होती है ख़त्म नहीं होती. किसी और औद्योगिक या प्राकृतिक त्रासदी में अगले दिन या अगले घंटे से ही राहत और पुनर्निर्माण शुरू हो जाता है, लेकिन परमाणु दुर्घटना की स्थिति में यह असंभव है क्योंकि आने वाले सैकड़ों-हज़ारों सालों तक पूरा इलाका विकिरण से विषाक्त हो जाता है. यह अदृश्य विकिरण अपने मूल स्रोत के पास तो इतना घातक होता है कि वहाँ पहुंचने पर मिनटों में जान जा सकती है. फुकुशिमा के चार साल बीतने पर यह संभव हुआ कि उस अभिशप्त बिजलीघर में रोबोट भेजे जाएं, क्योंकि अब तक इतने सघन विकिरण में काम कर सकें ऐसी मशीनें नहीं बनी थीं, लेकिन इस साल अप्रैल में जब पहली बार एक छोटा रोबोट भेजा गया तो उसने तीन घंटों के अंदर ही दम तोड़ दिया, वहाँ विकिरण की मात्रा इतनी अधिक थी.
सोवियत रूस के चेर्नोबिल में तीस साल पहले हुई दुर्घटना के कारण आज भी अब यूक्रेन में पड़ने वाले उस तीस किलोमीटर के दायरे में इतना सघन रेडिएशन है कि पूरा इलाका जनशून्य है और प्रिप्यात जैसे शहर भुतहे खँडहर में तब्दील हो चुके हैं जहां वक्त जैसे थम गया हो. फुकुशिमा के बीस किलोमीटर के दायरे में भी हालत वैसी ही है, और फुताबा, नामिए और मिनामी सोमा जैसे शहर ठिठक गए हैं. लोग उस सुबह अपना न्यूनतम सामान लेकर जैसे बना बस भाग पड़े और स्कूल, घर, स्टेशन, दफ्तर साराकुछ साजो-सामान के साथ वैसे ही हैं जैसे किसी बच्चे ने पूरे इलाके को ‘स्टेच्यू’ बोल दिया हो. मैं इस बीच दो बार फुकुशिमा गया, विस्थापित लोगों से मिला, बीस किलोमीटर दायरे के ठीक बाहर जिन जगहों के विषाक्त कचरे का भण्डार बन जाने के बावजूद लगातार जहां लोग हिम्मत से बचाव कार्य में लगे हैं उनसे मिला और इस घातक काम में जबरदस्ती भेजे जा रहे फिलीपींस, इंडोनेशिया और कोरियाई मूल के मजदूरों से बात की. अपनी जान हथेली पर रख कर रिपोर्टिंग कर रहे उन पत्रकारों से भी मिला जो कंपनी और सरकार द्वारा फुकुशिमा को सामान्य घोषित करने की हर कोशिश का भंडाफोड़ करते रहे हैं. कार्पोरेट और राजनीति के इस नेक्सस के पीछे मुआवजे का पैसा बचाने की मंशा और जापान के सभी 54 परमाणु प्लांटों को दुबारा चालू करने की जल्दीबाजी है जो फुकुशिमा के बाद जनविरोध और सुरक्षा-समीक्षा के कारण बंद हैं. इन चार सालों में वहाँ से विस्थापित दो लाख लोगों की ज़िंदगियाँ, सामाजिक ताना-बाना, आर्थिक स्थिति और विकिरण-जनित बीमारियों के कभी भी अवतरित हो जाने के अलगातर डर की कहानियां रूह हिला देने वाली हैं, जिसे इस आलेख श्रुंखला की तीसरी कड़ी में साझा किया जाएगा.
फुकुशिमा की स्थिति बेकाबू बने रहने के बावजूद जापान अगर भारत से परमाणु डील कर रहा है तो इसमें उसका अपना इतना बड़ा हित नहीं है. जापान की किसी कंपनी का भारत में अणुबिजलीघर लगाने का कोई प्लान तत्काल नहीं है. यह डील दरअसल अमेरिका और फ्रांस के उन प्रोजेक्टों के लिए है जो भारत में सारी डीलें हो जाने के बावजूद अटके पड़े हैं क्योंकि उन डिज़ाइनों में कुछ ऐसे पुर्ज़े इस्तेमाल होते हैं जो सिर्फ जापान बनाता है, ख़ास तौर पर रिएक्टर प्रेसर वेसल, मजबूत धातु का वो विशालकाय तसला जिसमें हज़ारों डिग्री तापमान पर परमाणु विखंडन का नियंत्रित चेन रिएक्शन होता है. जापान इस डील के लिए पिछले कई सालों से ना-नुकुर करता रहा है क्योंकि हिरोशिमा के बाद उसकी विदेशनीति में परमाणु निरस्त्रीकरण का केंद्रीय स्थान रहा है और भारत को बम बनाने और तथा सीटीबीटी/एनपीटी जैसी सन्धियां न साइन करने के बाद भी तकनीक मुहैया कराना जापान की पारम्परिक विदेशनीति से एक बड़ा अलगाव है. परमाणु मुद्दे को लेकर अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की इस बुनावट और इसमें भारतीय दुर्नीति के खतरों पर इस लेख-श्रृंखला के आख़िरी किश्त में बात होगी.
यह अटकी हुई डील जैतापुर, मीठी विरदी और कोवाडा के किसानों के लिए आख़िरी उम्मीद है क्योंकि उनकी अपनी सरकार उनको दगा दे चुकी है और बिजली और विकास के पीछे पागल देश का मध्यवर्ग उन्हें भूल चुका है. जैतापुर में 2006 से किसानों और मछुवारों का संघर्ष जारी है, जिसमें 2010 में एक शांतिपूर्ण जुलूस के दौरान पुलिस फायरिंग में एक युवक की जान तक जा चुकी है. पूरे इलाके की नाकेबंदी, स्थानीय आंदोलन के लीडरों को पकड़कर हफ़्तों जेल में डालना, धमकाना-फुसलाना, और आस-पास के जिलों से पहुंचने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं को जिलाबदर घोषित करना कांग्रेस-एनसीपी की सरकार में भी हुआ और अब महाराष्ट्र की भाजपा सरकार में भी जारी है. परियोजना का विरोध करने वाले सभी लोग बाहरी और विदेशी-हित से संचालित घोषित कर दिए गए हैं और फ्रांसीसी कंपनी एकमात्र इनसाइडर और देशभक्त बची है. 2010 में देश के दूसरे इलाकों से समर्थन में पहुंचकर सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने एक यात्रा निकाली जिसमें पूर्व नौसेनाध्यक्ष एडमिरल रामदास और सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस सावंत भी शामिल थे, लेकिन सबको हिरासत में ले लिया गया. जैतापुर में किसान ज़्यादातर हिन्दू हैं और मछुआरे मुस्लिम. जिन किसानों के नाम ज़मीन थी कम-से-कम उनको मुआवजा मिला लेकिन उन मछुआरों को कुछ नहीं मिला क्योंकि उनके पास समंदर का कोई कागज़ नहीं है. परमाणु प्लांट से जो गर्म अपशिष्ट पानी निकलेगा वह आस-पास के समुद्री तापमान को 5 से 7 डिग्री बढ़ा देगा जिससे मछलियों की खेप समाप्त हो जाएगी. इस संवेदनशील प्लांट के आस-पास समुद्र में जो 5 किमी तक जो सेक्यूरिटी तैनात होगी वह भी साखरी नाटे और कई दूसरे मछुआरे गाँवों की जीविका छीन लेगी क्योंकि उस दायरे में मछली पकड़ना बंद हो जाएगा. शिवसेना और भाजपा का उस इलाके में राजनीतिक प्रभुत्व है और इस मामले को हिन्दू-मुस्लिम बना देने की कोशिश भी वे कर ही रहे हैं.
कोंकण भारत के सबसे खूबसूरत इलाकों में से एक है, जहां जैव-विविधता और प्राकृतिक सम्पदा सचमुच बेजोड़ और नाज़ुक है. जैतापुर में बनने वाला परमाणु प्लांट दुनिया का अब तक का सबसे बड़ा अणु-बिजलीघर होगा जिसे फ्रांस की कंपनी अरेवा बना रही है. इस परियोजना के लिए तैयार पर्यावरणीय प्रभाव अध्ययन फर्जी है, जिसे नागपुर की एक सरकारी संस्था ने तैयार किया जिसकी परमाणु मामले की कोई विशेषज्ञता नहीं, लेकिन 2010 में फ्रांसीसी राष्ट्रपति के भारत आगमन के ठीक एक दिन पहले आनन-फानन में इस परियोजना को मंजूरी दे दी गयी, जिसके बारे में खुद तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने स्वीकार किया कि ऐसा कूटनीतिक हितों को पर्यावरण के सरोकारों से ऊपर मान कर किया गया. जैतापुर में लगाया जाने वाला फ्रांसीसी डिज़ाइन EPR फुकुशिमा के बाद खुद फ्रांस में हुई सुरक्षा समीक्षा में वहाँ परमाणु सुरक्षा की निगरानी करने वाली एजेंसी ASN द्वारा असुरक्षित करार दिया जा चुका है.
स्थानीय किसानों ऐसी ही स्थिति गुजरात और आंध्र की उन प्रस्तावित साइटों पर भी है. वहाँ भी पर्यावरणीय मानकों, सघन जनसंख्या और सुरक्षा चिंताओं और स्वतंत्र विशेषज्ञों की आपत्तियों के बावजूद वहाँ अमेरिका से आयातित परमाणु प्लांट लगाए जा रहे हैं. 2005 और 2015 बीच बदला यह है कि अमेरिका की जीई कंपनी अब जीई-हिताची हो गयी है और वेस्टिंगहाउस अब वेस्टिंगहाउस-तोशिबा. मतलब इन दोनों कंपनियों में जापानी शेयर बढ़ गया है और इन परियोजनाओं के भारत की ज़मीन पर आगे बढ़ने के लिए अब भारत-जापान परमाणु समझौते की ज़रूरत है.
फुकुशिमा के बाद भारत ही ऐसा देश है जो परमाणु ऊर्जा के व्यापक विस्तार पर कायम है. और ऐसा देश की ऊर्जा-सुरक्षा को लेकर किसी सुसंगत नीति के तहत नहीं हो रहा. भारत की ऊर्जा सचिव रह चुके ईएएस सर्मा ने इस मुद्दे पर जापान और भारत के प्रधानमंत्रियों को खुली चिट्ठी लिखी है जिसमें उन्होंने समझाया है कि भारत की ऊर्जा ज़रुरत में परमाणु ऊर्जा फिट नहीं बैठती. लेकिन फिर भी परमाणु ऊर्जा को लेकर मौजूद पागलपन दरअसल 2005 में अमेरिका के साथ हुई उस डील और परमाणु मामले की व्यापक अंतर्राष्ट्रीय राजनीति का नतीजा है, जिस पर चर्चा अगली कड़ी में की जाएगी.