आदिवासियों की बेदखली का फरमान और जमीन की कारपोरेटी लूट
-सीमा आज़ाद
20 फरवरी को सुप्रीम कोर्ट में 13 फरवरी को दिया गया एक ऐसा फैसला जंगल में आग की तरह फैला, जिसने लोगों को स्तब्ध कर दिया। यह एक ऐसा फैसला था, जिसके सुनाये जाते समय पीड़ित पक्ष अदालत में मौजूद ही नहीं था। यह फैसला था- देश के 17 राज्यों के वन क्षेत्रों में बसे 10 लाख से ज्यादा आदिवासियों को 24 जुलाई 2019 के पहले उजाड़ने का। फैसले के अनुसार ये वनवासी/आदिवासी वन और वन्यजीवों के लिए खतरा हैं। यह फैसला जिस तरह का है उसे देखते हुए यह कहा जा सकता है, कि उजाड़े जाने वाले आदिवासियों की संख्या इतने तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि यह 22 लाख से ऊपर तक जायेगी, क्योंकि अन्य राज्यों को भी भविष्य में ऐसे ही आदेश जारी होने हैं।
देखा जाय तो इस फैसले का विस्तार यहां तक जाता है कि इस दुनिया से मनुष्यों को खदेड़ देना चाहिये, क्योंकि उनसे इस धरती और आसमान को खतरा है। लेकिन ऐसा नहीं होगा, क्योंकि फैसले का उद्देश्य वनों, वन्यजीवों को या धरती को बचाना नहीं है, बल्कि धरती के अधिक से अधिक भाग से लोगों को उजाड़कर उस पर कॉरपोरेटों का कब्जा सुनिश्चित करना है। यह जमीन पर साम्राज्यवादी कॉरपोरेटों का सामंती कब्जा है। यह नये तरह की जमींदारी है-कॉरपोरेटी जमींदारी।
हमारे देश में अंग्रेजों के आने के पहले और बाद तक जमीनों पर राजाओं और जमींदारों का कब्जा था, भले ही जमीन को जोतने-बोने का काम किसान करते थे। लेकिन उस वक्त वन और जंगलों का क्षेत्र इन राजाओं और सामंतों से बचा हुआ था, जिन पर आदिवासी रहा करते थे। अंग्रेजों के रूप में साम्राज्यवादियों के देश में आने के बाद से जमीनों का कब्जा जो उनके हाथ में जाना शुरू हुआ, वह यहां तक पहुंच गया है कि खेती की जमीन ही नहीं, बल्कि जंगल और वन क्षेत्र भी उनसे नहीं बच पा रहे हैं। साम्राज्यवादी कॉरपोरेट घराने आज जमीनों के नये सामंत हैं, जिन तक जमीन, वनोपज, नदी, पहाड़ पहुंचाने में हमारे देश की सत्ता के सभी अंग तत्पर हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिया गया यह फैसला इसका उदाहरण है। कहा जा रहा है कि इस मुकदमें में आदिवासियों की ओर से पक्षकार सरकार स्वयं थी, लेकिन यह गलत तथ्य है। ये ऐसे मामले हैं जिनमें कॉरपोरेटों के मददगार एनजीओ याचिकाकर्ता, यानि केस दर्ज कराने वाले होते हैं और उनकी ही दलाली करने वाली सरकारें विरोधी पक्षकार। कई बार तो असली पक्षकार को पता भी नहीं होता कि उनकी सम्पदा के साथ यह सब हो क्या रहा है। इस मुकदमे नुमा खेल के समापन पर उनसे कह दिया जाता है कि ‘न्याय के पवित्र मन्दिर में आप मुकदमा हार गये हैं, लेकिन न्याय हो गया है, फैसले को लागू करना आपका कर्तव्य है, कर्तव्य पूरा न करने पर आपके खिलाफ हर संभव कार्यवाही की जायेगी।’ जंगल, नदी, खदान और पर्यावरण से जुड़े हर मुकदमें में ज्यादातर यही होता आया है, देश में जंगलों में नदियों के किनारों पर, पहाड़ पर रहने वाले लोगों को उजाड़े जाने का सिलसिला 1947 के बाद से तेज हुआ है, और बर्बर भी। यह सब ज्यादातर ‘विकास’ के नाम पर हुआ है, कभी-कभी ‘पर्यावरण’ और ‘वन्यजीव संरक्षण’ के नाम पर भी।
आदिवासियों से जल-जंगल-जमीन छीनने के लिए कई तरीकों का इस्तेमाल किया जाता रहा है, जिसमें कानून भी एक है, जो कि ‘मानव संरक्षण’ के लिहाज से निहायत गैरकानूनी होते हैं। इन कानूनों के कारण इन जमीनों पर पीढ़ियों से रहने वाले लोगों का अपनी जमीन पर हक़ मांगने का हक़ भी बाधित होता जा रहा है। मौजूदा फैसले के सन्दर्भ में यह कहा जा रहा है, कि यह फैसला यूपीए सरकार के समय में आये 2006 के वन अधिकार कानून का उल्लंघन करता है। ऐसा कहकर लोग कांग्रेस और वामदलों को जमीनें कॉरपोरेटों को सौंपने के आरोप से मुक्त कर रहेे हैं, जबकि यह सच नहीं है। वाम शासन के समय की नन्दीग्राम-सिंगुर में किसानों से जमीन छीनने के लिए वाम सरकार की हिंसा याद कीजिये। कांग्रेस सरकार द्वारा तो जमीनें छीनने की इतनी घटनायें हैं, कि केवल ब्यौरा देने वाला एक बड़ा लेख लिखना पड़ेगा। छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के खिलाफ चलाया गया सलवा जुडुम तो किसी को नहीं भूला होगा। ये तो केवल कार्यवाहियां थीं। उनके समय में आया 2006 का वनाधिकार कानून भी आदिवासियों के पक्ष में खड़ा कानून नहीं था। आज जिसे कुछ लोग (जिसमें जन पक्षधर मीडिया ‘द वायर’ भी शामिल है) जन पक्षधर कानून बता रहे हैं वह भी वन भूमि पर आदिवासियों के मालिकाना हक़ को सुनिश्चित करने के बजाय उन्हें मात्र जीविका के लिए वन उपज का उपभोग करने की ही छूट देता है। इसी आधार के कारण ही वर्तमान फैसले में उन्हें वहां से खदेड़ने का फैसला देना संभव हो सका।
इन 10 से 22 लाख लोगों को इसलिए खदेड़ दिया जायेगा, क्योंकि उनके पास उस जमीन पर रहने का कोई कागजी प्रमाण नहीं है और इस जमीन पर बाघों का रहना अधिक जरूरी है। (हलांकि बाघों की हत्या मानव विकास के किस पड़ाव पर शुरू हुई, इसे खंगाला जाय तो पता चलेगा-तब से, जब से बाघ, जंगल में जीवन गुजारने वाले एक जानवर से विनिमय मूल्य पैदा करने वाले ‘माल’ में बदल गया। वनों में बसे आदिवासियों से बाघों की हत्या का कुछ लेना-देना नहीं है। इसके साथ ही यह भी सच है कि वनोपज और वनों के नीचे मौजूद खनिजों का विनिमय मूल्य बढ़ता जा रहा है इसलिए साम्राज्यवादी कॉरपोरेट उस पर भी टूट पड़े हैं)।
इसलिए इस फैसले के लिए केवल मौजूदा सरकार को ही जिम्मेदार बताना और पिछली सरकारों को बरी कर देना ठीक नहीं है। इसी कारण इस लेख के साथ वन अधिकार कानून का सिंहावलोकन करने वाला एक लेख भी दे रहे हैं, ताकि इस बात को ठीक से समझा जा सके कि मौजूदा फैसले की बुनियाद काफी पहले से रखी जा रही थी। यह सिंहावलोकन वन अधिकार कानून 2006 की प्रशंसा में लिखा गया है, फिर भी इस कानून की उन खामियों की ओर इशारा कर देता है, जिसकी बुनियाद पर मौजूदा फैसला दिया गया है। मौजूदा सरकार क्योंकि इन सामंती कॉरपोरेटों की सबसे अच्छी दलाल है, इसलिए ऐसे फैसले करने में उसे खुद कोई हिचक नहीं थी, फिर भी लोगों के गुस्से को कम करने के लिए उसने न्यायपालिका का सहारा लिया। यह फैसला इस फासीवादी दौर का एक नमूना है कि जनता पर हमले सरकारें करती हैं, पर जनता को लगता है कि हमला कहीं और से हो रहा है और समस्या कहीं और है। इस हमले के पहले ही पूरे देश को पुलवामा के बहाने राष्ट्रवाद के उन्माद में झोंक दिया गया और फिर कोर्ट के माध्यम से यह फासीवादी फैसला सुनाया गया, ताकि इसके नकारात्मक असर को रोका जा सके।
यहां इस बात का जिक्र भी जरूरी है कि इस दौर में न्यायालय भी क्रूर से क्रूर फैसला सुनाने में नहीं हिचक रही है, बल्कि इस मामले में तो उसने संविधान की भी अवहेलना की है। संविधान के 73वें संशोधन के अनुसार किसी भी गांव का प्रशासन कैसे होगा और वहां क्या होगा, इसका फैसला करने का हक़ वहां की ग्राम सभाओं को होगा। यह संशोधन सत्ता के ‘केन्द्रीकरण’ के बरख़्श ‘विकेन्द्रीकरण’ की अवधारणा को स्थापित करने के लिए किया गया था। इसी अवधारणा के आधार पर चार साल पहले उड़ीसा के नियामगिरी का फैसला आया था, जिसके तहत ग्राम सभायें आयोजित कर ग्रामवासियों से उनकी राय ली गयी थी, कि नियामगिरी के नीचे दबे खनिजों को वेदान्ता कम्पनी को सौंपने के लिए उस पहाड़ को खाली किया जाय या नहीं। सभी ग्रामसभाओं ने इंकार किया, इसलिए वह पहाड़ बच सका और साथ ही पर्यावरण भी। पिछले साल संविधान के इसी संशोधन को ध्यान में रखकर देश के कई वन क्षेत्र में आदिवासियों/वनवसियों ने पत्थलगड़ी आन्दोलन चलाया गया, जिसने गांव की सीमा के अन्दर बाहरी व्यक्तियों का प्रवेश तक प्रतिबन्धित कर दिया, जिससे सरकारी मशीनरी बुरी तरह बौखला गयी थी। शायद इसलिए ही मौजूदा फैसले में संविधान के 73वें संशोधन को भी उठाकर कूड़ेदान में फेंक दिया गया है और वनों में निवास कर रहे आदिवासियों को 24 जुलाई 2019 तक खदेड़ने का आदेश जारी कर दिया गया है।
साम्राज्यवादी कॉरपोरेट, सरकार और कोर्ट की मिलीभगत को एकदम साफ कर देने वाला यह एक और फैसला है और यह पर्यावरण और बाघ बचाने के लिए नहीं, बल्कि कॉरपोरेटों के लिए जंगल, जंगल की सतह पर और सतह के नीचे मौजूद खनिज सम्पदा को उपलब्ध कराने के लिए आया है। जिस पर मुनाफाखोर कॉरपोरेटों की सालों से नजर है लेकिन वहां मौजूद आदिवासी ऐसा होने नहीं दे रहे हैं, सरकार के हमलों से बचने के लिए वे माओवादी भी हो रहे हैं, और इसका उल्टा भी सही है कि क्योंकि आदिवासी उनके इन मंसूबों को पूरा करने में बाधक है इसलिए सरकार उन्हें माओवादी घोषित कर हत्या कर रही हैं और जेलों में ठूस रही हैं। आज तो स्थिति यह है कि माओवादी आदिवासी और जंगलो की सुरक्षा तीनों एक-दूसरे से मजबूती के साथ जुड़ गये हैं। खुद सरकारी आंकड़े बताते हैं, कि वन और जंगल वहीं अधिक स्वस्थ व समृद्ध हैं, जहां माओवादियों का कब्जा है। सरकार कितना भी दावा कर ले, कि उसके अभियानों ने माओवादियों की कमर तोड़ दी है, सच्चाई तो यही नजर आ रही है कि माओवादियों ने सरकार की कमर तोड़ रखी है, क्योंकि आदिवासी जनता जंगल बचाने के लिए उनके साथ है। जंगल खाली करा लेने का यह फरमान सरकार के हाथ में माओवादियों से लड़ने का एक हथियार भी है। लेकिन इस फासीवादी फरमान को लागू करना इतना आसान नहीं होगा। 10 लाख आदिवासी आखिर जायेंगे कहां। पुरानी जगह से वे उजाड़े जायेंगे और तथाकथित ‘मुख्यधारा’ में उनके लिये कोई रोजगार नहीं है। मरने के सिवाय उनके पास केवल एक ही विकल्प बचता है-लड़ने का। तो इस फैसले के बाद ऐसा लगता है कि सरकार अपने दुश्मनों की एक नयी फसल तैयार कर रही है जिसका नाम होगा-‘ट्राइबल नक्सल।’
लेख प्रेस में जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले पर स्टे लगा दिया। दरअसल जनदबाव को देखते हुए सरकार ने 27 फरवरी को कोर्ट में एक आवेदन दाखिल किया की उसका पक्ष सुना जाय। लोगों को कुछ उम्मीद बंधी लेकिन 28 फरवरी को अपना रखते हुए सरकार ने कहा कि वह कोर्ट के इस फैसले में ‘संशोधन’ चाहती है। उसके इस संशोधन की मंशा क्या है यह इससे समझा जा सकता है कि उसने यह कहा कि उसे आदिवासियों के एफीडेविट वगैरह दाखिल करने में समय लगेगा और आदिवासियों को उजाड़ने की कोर्ट द्वारा दी गयी 24 जुलाई की समय-सीमा ‘अवास्तविक’ है। जाहिर है वह आदिवासियों को उजाड़ने के फैसले के खिलाफ नहीं है बल्कि वह उजाड़ने के लिए थोड़ा और समय चाहती है। इसलिए इस भारत बंद के बाद भी प्रदर्शन जारी रहने चाहिए।
साभार : दस्तक