सम्पादकीय, सितम्बर 2011
भूमि-जल-जंगल-खनिजों की लूट के खिलाफ अगस्त के पहले हफ्ते में जंतर-मंतर पर विभिन्न संगठनों, आंदोलनों के द्वारा साझे तौर पर आयोजित प्रतिरोध, अन्ना टीम द्वारा ’जन लोक पाल’ विधेयक के लिए अहिंसक-गांधीवादी आंदोलन और अंत में उसमें भूमि अधिग्रहण के मुद्दे को भी शामिल करने की घोषणा, पुणे में पानी की मांग कर रहे किसानों पर गोली चालन, तमिलनाडु में ऊर्जा संयंत्र के विरूद्व किसानों की भूख हड़ताल, हरियाणा में गोरखपुर परमाणु ऊर्जा संयंत्र के खिलाफ संघर्षरत किसानों के एक और साथी की शहादत, नवलगढ़ में एक वर्ष से भी ज्यादा समय से लगातार धरने पर बैठे किसानों का तीखा होता भूमि अधिग्रहण विरोधी आंदोलन, ओडिशा में पोस्को तथा वेदांत कम्पनियों के खिलाफ जारी संघर्ष, मारूति सुजुकी कम्पनी (मानेसर-हरियाणा) में तालाबंदी, गंगा एक्सप्रेस वे विरोधी आंदोलनकारियों का बलिया से नोएडा तक मार्च का फैसला और इन सारी प्रक्रियाओं-विरोधों से प्रभावित हुए बगैर ग्रामीण विकास मंत्री द्वारा संसद में- भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थान विधेयक, 2011 पेश किया जाना सरकार की मंशा को एकदम स्पष्ट करता है। यह प्रस्तावित विधेयक ’अधिग्रहण को बढ़ाने के लिए ज्यादा कारगर होगा न कि इसे रोकने या संयमित करने के लिए’।
वास्तव में यह प्रस्तावित कानून नवउदारवादी नीतियों और प्रक्रियाओं को आगे बढ़ाने की जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाया गया है। आर्थिक विकास के लिए इसे आवश्यक बताया जा रहा है तथा विद्वान अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री जिन्हे संत अन्ना ने ’ईमानदार’ का तमगा थमा दिया है और देश-विदेश की विद्वत मण्डली जिनके विकासोन्मुखी कार्यों को 120 करोड़ की आबादी वाले भारत के लिए नायाब-नुस्खा बताती रहती है वास्तव में विकास के साथ ही साथ भूख गरीबी, बेरोजगारी तथा आर्थिक विशमता भी बढ़ाती जा रही है। इण्टरनेशनल फुड पालिसी रिसर्च के मुताबिक भारत में भूखे लोगों की तादात 20 करोड़ है और असंगठित क्षेत्र की उद्यमिता के लिए नेशनल कमीशन की गणना कहती है कि देश की 83.7 करोड़ आबादी रोजाना 20 रूपये से कम पर गुजारा करती है जिसका तात्पर्य है देश की 77 फीसदी आबादी भुखमरी की कगार पर है। वर्ष 1993-94 और 2006-07 के बीच प्रतिव्यक्ति प्रतिमाह खाद्यान्न की खपत लगातार घटती गयी है- शहरी क्षेत्रों में क्रमषः 13.4 से 11.7 किलो तथा ग्रामीण क्षेत्रों में 10.6 से 9.6 किलो हो गयी है। प्रधानमंत्री का कहना है खाद्यान्न के उपभोग में कमी का कारण है कि लोग फल, अण्डे, बिस्कुट, मांस का सेवन ज्यादा करने लगे हैं। दुनिया के स्वयं भू सर्वोंच्च कोतवाल अमरीकी राष्ट्रपति का कहना है कि भारत के लोग ज्यादा खाते हैं अतएव वहां खाद्यान्न संकट है। नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन की 66वें दौर की रिपोर्ट कहती है कि वर्ष 2004-05 से 2009 -10 के दौरान रोजगार के अवसरों में 0.34 प्रतिशत (ग्रामीण क्षेत्रों) तथा 1.36 प्रतिशत (शहरी क्षेत्रों) में ऋणात्मक घटाव आया है। पंजाब कृषि विश्वविद्यालय का ताजा अध्ययन बताता है कि पंजाब के 89 फीसदी किसान बुरी तरह कर्ज से डूबे हैं, यहां प्रति हेक्टेअर खेत पर 50,140 रूपये का कर्ज है।
कृषि में अग्रणी पंजाब (जो हरित क्रांति की आत्मा कहा गया था) जैसे पं्रात में औसतन एक किसान परिवार की एक महीने की कमाई 3,200 रूपये है। यह कमाई एक दिहाड़ी मजदूर की मासिक कमाई से भी कम है। नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो का कहना है कि देश में 1997 से 2010 के बीच में 2,50,000 किसान आत्महत्या कर चुके हैं, पंजाब में तो केवल 2 जिलों में ही 9 साल के अंदर 2990 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। हरित क्रांति के 40 साल बाद खेती हर एक वर्ष किसानों को दलदल में धकेलने के साथ अपना अर्थ लगातार खोती जा रही है।
आर्थिक विकास की इसी असलियत को और गति देने के लिए कृषि नीति, औद्योगिक नीति, आर्थिक नीति, वन नीति आदि में परिवर्तन, सुधार बड़ी तेजी के साथ किया जा रहा है। भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2011 के प्रस्तावित संस्करण को भी इसी प्रक्रिया का अविभाज्य और अग्रिम कदम माना जाना चाहिए।
करोड़ों लोगों का विस्थापन, ग्रामीण अर्थव्यवस्था का खात्मा, भुखमरी, पलायन-विस्थापन, असमानता की बढ़ती खाँई, आत्म- हत्यायें, अमानवीय शर्तों पर काम करने की विवषता इसी विकास की अवधारणा के क्रियान्वयन का प्रतिफलन है जिसे पिछली 2 दषाब्दियों की सघन उदारीकरण-निजीकरण की प्रक्रियाओं ने तीव्रतर कर दिया है। इसकी तीव्रता का अंदाजा छत्तीसगढ़ राज्य के जशपुर जिले में जो होने जा रहा है उसके द्वारा समझा जा सकता है। जशपुर जिला, जिसका पूरा क्षेत्रफल 6205 वर्ग किलो- मीटर है, में 122 बड़े उद्योगों की स्थापना का प्रस्ताव है जिसके लिए 6023 वर्ग किलोमीटर जमीन की जरूरत होगी। अर्थात इन उद्योगों की स्थापना के बाद जिले की 182 वर्ग किलोमीटर जमीन ही बचेगी। यह आर्थिक विकास, विष्व षक्ति तथा उभरती अर्थव्यवस्था के भारतीय संस्करण का ’अतुलनीय उदाहरण’ होगा जिसके तहत पूरे के पूरे जिले की आबादी को ही विस्थापित कर दिया जायेगा।
इन परिस्थितियों में भोजन का अधिकार अधिनियम, ईमानदार पारदर्षी सरकार, सूचना का अधिकार, सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, कल्याणकारी योजनाओं को नगद से जोड़ना, वन अधिकार अधिनियम, पंचायती राज कानून, पेसा कानून तथा भारतीय संविधान की 5वीं अनुसूची कितना काम आयेगी यह आगे आने वाला समय बयान करेगा।